jivan ke jaal: kavy sangrh in Hindi Poems by Deepak Bundela Arymoulik books and stories PDF | जीवन के जाल: काव्य संग्रह

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जीवन के जाल: काव्य संग्रह

जीवन के जाल में
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जीवन एक जाल है,
सूत्रों से बुना हुआ—
आशा, निराशा,
मोह और माया का ताना-बाना,
जहाँ हर डोरी का सिरा
कभी हाथ आता है,
तो कभी सरककर
अनंत में खो जाता है।
कभी लगता है यह जाल
हमारा सहारा है,
रिश्तों की डोरियों से बँधा
एक सुरक्षित किनारा है।
पर अगले ही पल
यह बंधन बोझ बन जाता है,
और मन चिड़िया-सा
आज़ादी के नभ को ताकता रह जाता है।
इस जाल में हँसी भी है,
तो दर्द की सरगोशियाँ भी;
कुछ मीठे पल यादों में,
कुछ खट्टे शिकवे की परछाइयाँ भी।
कभी प्रेम की चाँदनी
सब ओर उजाला करती है,
तो कभी विश्वास की दरार
रात को और गहरा करती है।
कर्म की डोरियाँ
हर किसी को जकड़ती हैं,
बीते पलों की छायाएँ
आने वाले कल को पकड़ती हैं।
हम भागते रहते हैं
न जाने किस मंज़िल की ओर,
पर ठहरकर सोचें तो—
मंज़िल भी तो जाल का ही
एक और सिरा है,
जिसके पीछे बस भ्रम की हवा है।
फिर भी यह जाल ही
जीवन का सौंदर्य है,
संघर्ष की गहराई,
और अनुभव का औषधि है।
अगर जाल न हो
तो अर्थ भी कहाँ होगा?
बिना उलझनों के
मनुष्य का हृदय गढ़ा कहाँ होगा?
तो ए जीवन!
तेरे जाल से भागना नहीं,
बल्कि इसमें नृत्य करना है—
उलझनों के बीच भी
सुर ढूँढ़ना है,
अंधेरों के बीच भी
आस की रौशनी चुनना है।
क्योंकि यही जाल
एक दिन हमें सिखाता है—
कि कैद समझा जिसे,
वही था उड़ान का पहला पंख,
और उलझनें नहीं थीं बंधन,
बल्कि आत्मा की साधना के अंक।

सार:
जीवन एक जाल है—सुख, दुख, प्रेम, मोह, आशा और निराशा की जटिल डोरियों से बुना हुआ। कभी यह जाल सहारा और सुरक्षा देता है, तो कभी बोझ और उलझन बन जाता है। इसमें हँसी, दर्द, यादें और शिकवे सभी मौजूद हैं। कर्म और बीते पल हमारे जीवन को जकड़ते हैं, और हम अनंत मंज़िलों की ओर भागते रहते हैं। परन्तु यही जाल जीवन का सौंदर्य, संघर्ष और अनुभव का स्रोत है। जाल से भागने के बजाय इसमें नृत्य करना, उलझनों में संतुलन और अंधेरों में आशा खोजना जीवन की असली कला है। उलझनें बंधन नहीं, बल्कि आत्मा की साधना और उड़ान का माध्यम हैं।

☀️डीबी-आर्यमौलिक 
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माया का जाल

माया—
एक मोहिनी,
जो स्वप्निल धागों से
जीवन को लपेट लेती है।
उसकी मुस्कान में सोना चमकता है,
उसके आँचल में रेशमी भ्रम पलते हैं।
मनुष्य दौड़ता है—
धन के महलों,
यश के द्वारों,
रूप की छवियों और सुख की कल्पनाओं की ओर,
पर हर बार पकड़ में आती है—
सिर्फ़ एक मरीचिका,
जो छूते ही
रेत की तरह उँगलियों से झर जाती है।
राजा और रंक दोनों उसके कैदी हैं।
कभी वह चंदन की डोरी बनकर बाँधती है,
कभी लोहे की ज़ंजीर बनकर जकड़ लेती है।
वह वादा करती है—
"मुझमें अमरता है,
मुझमें आनन्द है,
मुझमें पूर्णता है।”
पर जब सत्य का सूर्य उदय होता है,
तो उसके सारे रंग
धुएँ की तरह विलीन हो जाते हैं।
माया का यह जाल
सुख और दुख दोनों से बुना है।
जो इसे सत्य मानता है,
वह जीवन भर भ्रम में भटकता है।
जो इसे खेल समझ लेता है,
उसके लिए यह
एक सुंदर रंगमंच है
जहाँ आत्मा केवल साक्षी बनकर मुस्कुराती है।

सार:
माया केवल बाहरी आकर्षण है। इसे साधन मानो, न कि लक्ष्य, तभी जीवन का मार्ग प्रकाशमान होगा।

☀️डीबी-आर्यमौलिक
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मोह का जाल

मोह—
मन का सबसे कोमल पर सबसे कठोर बंधन।
माँ की आँखों की नमी से लेकर,
संतान के अधरों की हँसी तक
उसकी डोरें फैली हैं।
यह संबंधों की ऊष्मा भी है,
और वही बंधन भी
जो आत्मा को उड़ान से रोक देता है।
मोह का जाल
रेशमी लगता है—
स्नेह, करुणा और अपनत्व से बुना हुआ।
पर भीतर ही भीतर
वह पकड़ लेता है जैसे
लता वृक्ष को कस ले,
धीरे-धीरे उसके स्वत्व को ढँक ले।
पिता का मोह—
संतान के भविष्य में खो जाता है।
संतान का मोह—
अपनी इच्छाओं के संसार में उलझ जाता है।
प्रिय का मोह—
स्मृतियों की अग्नि में जलाता है।
और साधक का मोह—
मुक्ति के मार्ग को भी कठिन बना देता है।
मोह वह दर्पण है
जिसमें हम अपने प्रिय चेहरों को देखते हैं,
पर वही दर्पण
हमें अपने वास्तविक स्वरूप से दूर कर देता है।
जो मोह को त्यागे बिना प्रेम खोजता है,
वह केवल बंधन पाता है।
जो मोह को पहचानकर प्रेम करता है,
वह आत्मा को स्पर्श करता है।
मोह—
एक जाल ही सही,
पर उसी में छिपी है
करुणा की चिंगारी,
जो मनुष्य को
मानव बना देती है।

सार:
मोह प्रेम और अपनत्व का आधार है, पर जब यह अज्ञान और आसक्ति बन जाए, तो मनुष्य को बंधन में बाँध देता है।

☀️ डीबी आर्यमौलिक
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वासना का जाल

वासना—
मन की आग, इंद्रियों का मधुमक्खी सा चमकता जाल।
वह मीठी-मिठी सरगोशी में फुसफुसाती है—
"इसे पकड़ो, यह तुम्हारा सुख है।”
पर जब हाथ बढ़ाओ,
तो वह धुएँ की तरह उड़ जाती है।
सुख का लालच देती है,
और असली शांति छीन लेती है।
रात के सन्नाटे में वह हँसती है,
दिन के उजाले में वह आँखों में चमकती है।
विवेक की डोरी को खींचती है,
मन के जहान को उलझाती है।
कभी प्रेम की आभा में,
कभी लालसाओं की चितवन में,
मनुष्य उसका शिकार बन जाता है।
राजा, रंक, साधु—
सभी उसके जाल में एक समान फँसते हैं।
जो आत्मा इस जाल को देख सके,
उसके लिए यह केवल एक खेल है।
जो इसे पकड़ने दौड़े,
उसके लिए यह अग्नि है,
जो हृदय को जला देती है।
वासना—
एक तात्कालिक मोह,
जो स्थायी शांति का मार्ग छुपा लेती है।
जिसे समझो, वही मुक्त हो,
अनजाने में बहते रहो,
तो जीवन बन जाता है केवल प्यास का मैदान।

सार:
वासना क्षणिक सुख देती है, पर असली शांति और स्थायित्व केवल आत्म-नियंत्रण और विवेक से मिलता है।

☀️डीबी-आर्यमौलिक
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अज्ञान का जाल

अज्ञान—
मन का अंधेरा,
ज्ञान के दीप को छुपाने वाला छाया सा जाल।
यह जाल नहीं दिखता,
फिर भी हर दिशा में फैलता है।
सत्य और मिथ्या की सीमाएँ धुंधली कर देता है,
मनुष्य को भ्रम के महल में कैद कर देता है।
वह कहता है—
"तुम जानते हो, पर तुम नहीं जानते।”
सवालों की बूँदों में उलझा कर,
जवाबों की रोशनी से दूर रखता है।
जो अज्ञान में फँसा,
वह स्थिरता को खो देता है,
निर्णय का साहस खो देता है,
और जीवन का मार्ग भूल जाता है।
पाठशाला की शिक्षा,
ग्रंथों का ज्ञान,
अनुभव की सीख—
सभी जब तक आत्मा में उतरती नहीं,
अज्ञान का जाल खिंचता रहता है।
पर जो व्यक्ति अपने मन के दीप जलाए,
विवेक की मशाल थामे,
सत्य के मार्ग पर चले—
अज्ञान का जाल उसके लिए केवल परछाई बनकर रह जाता है।
अज्ञान—
एक जाल भी है,
और एक परीक्षा भी,
जो आत्मा को चेतना की ओर ले जाने का निमंत्रण है।

सार:
अज्ञान मनुष्य को भ्रम में फँसाता है। ज्ञान, अनुभव और विवेक से ही यह जाल पार किया जा सकता है।

☀️डीबी-आर्यमौलिक
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अहंकार का जाल

अहंकार—
मन का सबसे चतुर जाल,
जो खुद को महान मानकर,
सत्य को नजरअंदाज कर देता है।
यह शिखर की चमक में घात करता है,
अपने ही परछाईयों में फँसा लेता है।
वह कहता है—
"मैं हूँ, मेरी दुनिया है, मेरा अधिकार है।”
और इसी वाक्य में
मनुष्य अपने भीतर के अनंत समुद्र से कट जाता है।
अहंकार का जाल
मन की शक्ति को भ्रमित करता है,
ज्ञान को अवरुद्ध करता है,
और प्रेम के मार्ग को पत्थर से ढक देता है।
वह दूसरों को छोटा दिखाता है,
पर भीतर खुद को कमजोर बनाता है।
जो इसे पहचान सके,
वह विनम्रता के दीप जला सकता है।
जो इसे पकड़ ले,
वह केवल अपनी छवि में खो जाता है।
अहंकार—
एक ऐसा जाल,
जो छाया सा जीवन को ढक लेता है,
पर आत्मज्ञान की मशाल से
वह जलकर राख हो जाता है।

सार:
अहंकार जीवन को भ्रमित करता है। विनम्रता और आत्मज्ञान इसे दूर कर सकते हैं।

☀️डीबी-आर्यमौलिक
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भय का जाल

भय—
मन का वह साया,
जो अनजाने में कदम रोक देता है।
अंधेरों में, भविष्य में,
असफलता की परछाइयों में
यह धीरे-धीरे डोर फैलाता है।
भय कहता है—
"सावधान रहो, ठोकर लगेगी, हारोगे।”
और हर निर्णय, हर इच्छा,
उसके फंदों में फँस कर
संकोच और संदेह में बदल जाती है।
वह सपनों के दरवाज़े पर रखी चाबी छीन लेता है,
मन को सिकुड़ा देता है,
हृदय को बंद कर देता है।
राजा हो या साधक,
भय सभी को अपनी गिरफ्त में लेता है।
पर जो हृदय में धैर्य रखता है,
जो विवेक की मशाल जलाए रखता है,
वह भय को केवल परछाई के रूप में देखता है।
वह जानता है—
भय केवल भ्रम है,
जो सच की खोज में बाधा बनता है।
भय—
एक जाल भी है,
और एक शिक्षक भी,
जो मनुष्य को चेतना, साहस और अंतर्दृष्टि की ओर ले जाता है।

सार:
भय केवल भ्रम है। धैर्य, साहस और विवेक से मनुष्य इसे पार कर सकता है।

☀️डीबी-आर्यमौलिक
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कामना और अपेक्षा का जाल

कामना—
मन की मीठी आग,
अपेक्षा—
हृदय का वह छाया-पलायन।
दोनों मिलकर बुनते हैं
अदृश्य डोरें,
जो मानव को स्वप्न और यथार्थ के बीच
फँसाए रखती हैं।
कामना कहती है—
"यह चाहिए, वह चाहिए,
सपनों को सच कर दिखाओ।”
अपेक्षा बोलती है—
"तुमसे यही होना चाहिए,
मुझे यही मिलना चाहिए।”
और मनुष्य दौड़ता है,
हर पल, हर क्षण,
भविष्य की कल्पनाओं में खोया,
वर्तमान के सौंदर्य से अज्ञानी।
जो कामनाओं और अपेक्षाओं में बंधा रहता है,
वह शांति नहीं पाता,
वह आनंद नहीं देख पाता,
वह केवल अधूरी चाहों की आग में जलता है।
पर जो इसे देख सके,
जो इसे समझ सके,
वह केवल देखने वाला रह जाता है,
और अनुभव करता है—
कामना और अपेक्षा केवल जीवन के रंगमंच की झलक हैं।
कामना और अपेक्षा—
एक जाल भी हैं,
और एक शिक्षक भी,
जो मनुष्य को
स्वयं की पहचान और संतोष की ओर ले जाते हैं।

सार:
कामनाएँ और अपेक्षाएँ जीवन को रंगीन बनाती हैं, पर इन्हें समझ कर अपनाना ही सच्ची संतोष की कुंजी है।

☀️डीबी-आर्यमौलिक
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समाज और परंपरा का जाल

समाज—
एक अदृश्य हाथ,
जो नियमों और रीति-रिवाजों से जीवन को ढालता है।
परंपरा—
वह विरासत,
जो पीढ़ियों के अनुभवों से बुनी जाती है।
दोनों मिलकर बनाते हैं
एक जाल,
जो दिखता नहीं पर हर कदम को नियंत्रित करता है।
कभी मार्गदर्शन बनता है,
कभी बंदिश बन जाता है।
समाज कहता है—
"ऐसा करना, वैसा मानना,
दिखावा मत कर, नियम का पालन कर।”
पर जब रीति-रिवाज अंधविश्वास में बदल जाएँ,
तो वही जाल
मनुष्य को स्वतंत्रता से दूर खींचता है।
परंपरा की डोरें
कभी सम्मान देती हैं,
कभी तान देती हैं।
जो इसे समझकर अपनाता है,
वह संस्कारों का दीप जलाता है।
जो बिना विवेक के फँस जाता है,
वह केवल बंधन में रह जाता है।
समाज और परंपरा—
एक जाल भी हैं,
और एक शिक्षक भी,
जो सही दृष्टि से अपनाए जाएँ,
तो जीवन को दिशा और पहचान देते हैं,
अनजाने में फँसाए जाएँ,
तो स्वतंत्रता और स्वभाव दोनों को दबा देते हैं।

सार:
समाज और परंपरा मार्गदर्शन और शिक्षा दे सकते हैं, पर अंधविश्वास और अज्ञान के रूप में जब फँसाएँ, तो वे बंधन बन जाते हैं।

☀️डीबी-आर्यमौलिक
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समय का जाल

समय—
एक अदृश्य नदी,
जो बहती है अनवरत,
कभी मंद, कभी प्रचंड,
कभी हल्की फुसफुसाहट में, कभी तूफानी गर्जना में।
उसकी डोरें
मनुष्य के हर कर्म, हर इच्छा से जुड़ी हैं।
वह कहता है—
"मैं रुकता नहीं, मैं थकता नहीं।
जो बीत गया, वह गया;
जो आने वाला है, वह अनिश्चित।”
मनुष्य दौड़ता है—
बीते कल की यादों में फँसा,
भविष्य की आकांक्षाओं में खोया।
वर्तमान के पल को पहचान नहीं पाता।
समय का जाल
न केवल सीमाएँ दिखाता है,
बल्कि अवसरों का प्रकाश भी है।
जो इसे समझ सके,
वह हर क्षण को गले लगाता है,
और जीवन के सार को पहचानता है।
जो इसे अनदेखा करे,
वह केवल घड़ी की टिक-टिक में फँसा रह जाता है।
समय—
एक जाल भी है,
और एक शिक्षक भी।
वह सिखाता है:
"सब कुछ क्षणभंगुर है,
फिर भी हर क्षण अमूल्य है।”

सार:
समय को पहचानना और हर क्षण का मूल्य समझना ही जीवन को सार्थक बनाता है।

☀️डीबी-आर्यमौलिक
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मन का जाल

मन—
एक रहस्यमय जंगल,
जहाँ हर विचार एक डोर बुनता है,
हर भावना एक फंदा खड़ा करती है।
यह शांत और मधुर भी है,
और उग्र और जटिल भी।
मन की चंचलता
जैसे हवा की लहरें,
जो कण-कण में हलचल पैदा करती हैं।
मन का जाल
अवचेतन की गुफाओं में बिछा होता है।
वह कहता है—
"मैं ही तुम्हारा सच हूँ,
मैं ही तुम्हारा सुख-दुख हूँ।”
और जो उसे पहचान न पाए,
वह भ्रम और चिंता में खो जाता है।
पर जो साधक
ध्यान और विवेक की मशाल जलाए रखे,
वह इस जाल को केवल एक खेल की तरह देखता है।
मन की लहरें उसे हिलाती नहीं,
बल्कि वह लहरों के साथ बहना जानता है।
मन—
एक जाल भी है,
और एक साधन भी।
जो इसे समझता है,
वह अपनी आत्मा का स्वामी बन जाता है।
जो इसे पहचान न पाए,
वह जीवनभर अपने ही विचारों का कैदी रह जाता है।

सार:
मन के जाल को समझकर साधना ही आत्मा की मुक्ति और स्थिरता की कुंजी है।

☀️डीबी-आर्यमौलिक
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समाप्त