सुबह की किरणें कमरे में फैल चुकी थीं। लगभग 45-46 का चौबे, पहलवान जैसा गठीला शरीर लिए, आँगन में कसरत कर रहा था। उसकी भारी आवाज़ गूँजी—
“नीचे आ जा और कसरत कर, वरना नाश्ता नहीं मिलेगा!”
बिस्तर में पड़ी अठारह-उन्नीस साल की मुस्कान ने करवट बदली और गहरी नींद में डूबे रहने का नाटक किया। चौबे ने जब देखा कि वह नीचे नहीं आई, तो चौबे को बहुत गुस्सा से लाल हो गया और गुस्से में ऊपर पहुँचा और एक बाल्टी पानी मुस्कान पर उँड़ेल दिया।
मुस्कान चीख पड़ी—“ यह क्या कर रहे हो?"
चौबे ने एक सांस में कहा "कसरत करना..'' तभी झल्लाती हुई मुस्कान बोली " क्या चौबे? यह भी कोई टाइम है कसरत का?
चौबे दहाड़ा—
“बदतमीज़! अपने बाप को नाम से बुलाती है?”
डरी-सहमी मुस्कान बाथरूम की ओर भाग गई।
कुछ देर बाद चौबे ने नाश्ता मेज पर रखते हुए फिर पुकारा—
“मुस्कान! जल्दी नीचे आ। आज समय पर तैयार नहीं हुई तो कॉलेज पैदल जाएगी।”
भागती हुई वह नीचे आई। चौबे की आँखें उसे देखकर और भड़क उठीं—
“ये कैसे कपड़े पहन लिए हैं? लड़कियाँ ऐसे बेढब कपड़े पहनकर आँगन में भी नहीं बैठतीं। और बाल? एकदम बिखरे हुए! कोई कहेगा भी कि कॉलेज में पढ़ती है?”
मुस्कान ने ढीला-ढाला सूट पहना था, बाल अस्त-व्यस्त थे। उसने शांत स्वर में कहा—
“पिताजी, जैसी हूँ वैसी ही ठीक हूँ। वैसे भी लेट हो रहा है, इसलिए जो मिला पहन लिया।”
चौबे उसे घूरते रह गए। मुस्कान ने उनकी आँखों से बचते हुए कार में बैठते समय मुस्कुरा कर उनके माथे पर हल्की-सी चुम्मी दी, जैसे यह रोज़ की आदत हो। फिर इयरफोन कानों में लगा लिए।
जल्दी ही वह कॉलेज पहुँची। वहाँ के लड़के-लड़कियाँ डिज़ाइनर कपड़ों में खिले हुए दिख रहे थे। चौबे के चेहरे पर झेंप-सी छा गई। जैसे ही मुस्कान गाड़ी से बाहर निकलने लगी, वह फिर गरजा—
“घर चल और कपड़े बदल कर आ।”
मुस्कान ने चिढ़कर कहा—
“चौबे, घर भी तुम छोड़ोगे और वापसी भी तुम ही करोगे। अगर सब तुम्हारे मुताबिक़ है तो…।”
चौबे तिलमिला उठा—“रुक! तुझे बताता हूँ।”
लेकिन मुस्कान फुर्ती से कॉलेज के गेट के अंदर जा चुकी थी।
.........
मुस्कान कॉलेज के गार्डन में बैठी एक पुरानी हिंदी नोवल में खोई हुई थी। हवा में गुलमोहर के पत्ते उड़ रहे थे और पेड़ों की छांव में वह एक अलग ही दुनिया में थी।
तभी वहाँ से आवाज़ आई—"हाय मुस्कान!"
मुस्कान ने सिर उठाकर देखा और वापस किताब में घुस गयी। सामने शीना खड़ी थी—कॉलेज की सबसे स्टाइलिश, लेकिन उतनी ही घमंडी लड़की। उसके पीछे दो चमचमाती सहेलियाँ थीं।
शीना ने मुस्कुरा कर कहा, "अरे यह क्या? ये कपड़े तो तुमने पिछले हफ्ते भी पहने थे। अगर पैसे नहीं हैं तो बोल दो, मैं दे दूंगी। बार-बार तुम्हें वही कपड़े में देखकर मैं ही बोर हो गई हूं!"
उसकी सहेलियाँ खिलखिलाकर हँस पड़ीं।
मुस्कान ने बिना घबराए, बिना किताब से नज़र हटाए, आराम से जवाब दिया— "अरे शीना डार्लिंग! मुझे नहीं पता था कि तुम लड़कियों में दिलचस्पी रखती हो… वरना कसम से मैं तुम्हारे लिए सज-धज कर ही आती!"
पूरा पार्क ठहाकों से गूंज उठा।
शीना के चेहरे पर तमतमाहट छा गई। बगल की सहेलियाँ भी हँसी रोक नहीं पाईं।
शीना गुस्से में पैर पटकती हुई वहां से चली गई।
मुस्कान फिर से अपने उपन्यास में खो गई… जैसे कुछ हुआ ही नहीं।
शीना के जाते ही वहाँ चंचल आ धमकी। चेहरे पर नाराज़गी साफ झलक रही थी।
"शीना को आखिर तुझसे प्रॉब्लम क्या है?" उसने पूछा।
मुस्कान ने धीरे से नोवल बंद की और मुस्कराकर कहा,"क्या हुआ? तू क्यों भड़की हुई फिर रही है?"
चंचल ने भौंहें चढ़ाकर जवाब दिया,
"देखा नहीं, कैसे सबके सामने तुझे नीचा दिखाया? और सुन, कॉलेज के सारे लड़के शीना पर मरते हैं। तू बस कोई बॉयफ्रेंड बनाना चाहती है—लेकिन पूरे कोलज में कोई लड़का नहीं है जिसने तुझे रिजेक्ट न किया हो!"
मुस्कान ने ठंडी साँस ली, फिर मुस्कुरा कर कहा,
"हो गया? कर ली मेरी सार्वजनिक बेइज्जती? अब तो जिगर को ठंडक मिल गई होगी!"
फिर उसने एकदम मासूमियत से जोड़ा, "वैसे... सुना है तेरा कोई भाई सिंगल है?"
चंचल ने गुस्से से घूरा, जैसे अभी फट पड़ेगी।
मुस्कान ने फिर नज़रें झुका लीं। किताब खोली… लेकिन अब पन्नों से ज़्यादा सोचों में खो गई।
"सबका ट्रू लव होता है..." उसने मन ही मन कहा, "पर मेरा कहाँ है? है भी या नही"
और वो फिर से अपनी किताब की दुनिया में लौट गई — जहाँ शायद कोई किरदार उसे उसी तरह चाहता था, जैसी वो थी।
...
कैंटीन में गर्मा-गरम समोसे और गुलाब जामुन की खुशबू फैली थी।
मुस्कान और चंचल कोने वाली टेबल पर बैठी थीं।
मुस्कान पूरी तन्मयता से खाने में लगी थी — प्लेट में पनीर रोल, पकोड़े, और आधे खाए समोसे।
कहीं से लग ही नहीं रहा था कि वो किसी कॉलेज की स्टूडेंट है… ज़्यादा तो ऐसा लग रहा था जैसे कोई दो दिन से भूखी खिलाड़ी ओलंपिक की फाइनल फूड राउंड में हो।
तभी एक हैंडसम-सा लड़का चंचल के पास आया। थोड़ा संकोच के साथ मुस्कुराया। "हाय, आइम रत्न। एक बात पूछनी थी…"
"जी?" चंचल ने भौंहें उठाईं।
"आप... सिंगल हैं?"
चंचल ने मुस्कुरा कर होंठ दबाए, फिर शरारत से बोली, "नहीं, लेकिन मेरी एक सहेली..."
उसने मुस्कान की ओर इशारा करना चाहा।
...और तभी नजर पड़ी मुस्कान पर — जो पकोड़े को मिर्ची सॉस में डुबो-डुबो कर खा रही थी, मुँह में भर-भर के, ऐसे जैसे यही अंतिम भोज हो।
लड़के की नजर भी वहीं गई। वह कुछ बोलने ही वाला था कि चंचल ने फुर्ती से बीच में कहा—
"आज आई नहीं है वो... मतलब... छुट्टी पर है... लेकिन हाँ, वह सिंगल है! मैं कल मिलवाती हूँ!"
लड़का मुस्कुरा कर चला गया।
चंचल ने तुरंत मुस्कान के सिर पर हल्का थप्पड़ मारा।
"क्या यार! थोड़ा तो इंसानों जैसा खा लिया कर!"
मुस्कान ने मुँह में भरे पकोड़े के साथ जवाब दिया—"पहले पेट पूजा फिर कोई दूजा!"
......
क्लास खत्म हो चुकी थी। शाम की हल्की धूप कॉलेज के मैदान पर बिखरी हुई थी।
मुस्कान एक किनारे घास पर बैठी थी, कानों में ईयरफोन, आंखें बंद, बगल में नावेल — जैसे दुनिया की हर आवाज़ उससे दूर हो गई हो।
.....
1. क्या कोई कभी उसकी किताबों के पीछे छिपी उस असली मुस्कान को भी देखेगा?
2. क्या प्यार पाने के लिए स्टाइल और लुक चाहिए... या सच्चा दिल काफ़ी होता है?
3. क्या मुस्कान को भी कभी कोई वैसे ही चाहेगा, जैसी वो है — बिना बदले, बिना सजधज के?
जानने के लिए पढ़ते रहिए "तुम मेरे हो"