Me and my feelings - 134 in Hindi Poems by Dr Darshita Babubhai Shah books and stories PDF | में और मेरे अहसास - 134

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में और मेरे अहसास - 134

उल्फ़त की चादर

कमसिन कली उल्फ़त की चादर ओढ़े निकल पडी हैं l

जहां भी जरा साया दिखा वहीं पर वो छलक पडी हैं ll

 

नशीले रंगीले सुहाने खूबसूरत मौसम में बहकर l

बिना बादल की बदली जैसे एकदम बरस पडी हैं ll

 

डूब गये प्यारी मदहोशी सुरत को देख ऐसे में ही l

जरा से हसीं मजाक को संजीदगी समझ पडी हैं ll

 

कई दिनों के बाद मुलाकात हुई तो काबु खो दिया l

और एकाएक ही बातों ही बातों में गरज़ पडी हैं ll

 

कभी तबस्सुम में था, और वो अरमान पूरे हुए भी l

आज थोड़ी सी मोहब्बत की बौछार से पनप पडी हैं ll

१-९-२०२५ 

ढलती शाम

ढलती शाम का लुत्फ़ उठा लेने दो ज़रा l

प्राकृतिक सौंदर्य का मजा लेने दो ज़रा ll

 

बड़े बेईमानी हो गये है दुनिया वाले तो l

मोहब्बत का पाठ पढ़ा लेने दो ज़रा ll

 

खिली हुई कलियां, भीगी सी फिझाएं l 

सौंदर्य निगाहों में समा लेने दो ज़रा ll

 

अभी भी रात का आँचल छोड़ा नहीं कि l

सोई हुई सुबह को जगा लेने दो ज़रा ll

 

बड़ी मुद्दतों के बाद शमा बाँधने को l

नशीली महफिलें सजा लेने दो ज़रा ll

२-९-२०२५ 

ढलती शाम

एक और शाम ढल गई यादों की किताब पढ़ते हुए l

आज निगाहें नम हो गई वादों की किताब पढ़ते हुए ll

 

दुनिया से छुपाके रात भर फोन पर बात याद करते l

मादकता से छलकती रातों की किताब पढ़ते हुए ll 

 

रूठने मनाने का एक एक वाकिये को लिखीं हुई l

बड़ी बैचेनी सी हुई हिसाबो की किताब पढ़ते हुए ll

 

नज़रें झुकाकर चलना, शर्मो हया के पर्दे में रहो तो l

आश्चर्यचकित हो गए रिवाजों की किताब पढ़ते हुए ll

 

कुछ ज्यादा ही लिख दिया था लिखने वाले ने कि l

सवालों को ढूँढने लगे जवाबों की किताब पढ़ते हुए ll

२-९-२०२५

सखी 

डॉ. दर्शिता बाबूभाई शाह 

 

 

अधूरा सफ़र

अधूरा सफ़र रह जाता है जब सहारा नहीं मिलता l

कहने को सब हमारे पर कहीं हमारा नहीं मिलता ll

 

ढूढ़ने निकले हमसफर और हरनवाज को तब l

जानबुझ भटकी हुई कश्ती को किनारा नहीं मिलता ll

 

ना रख कोई भी उम्मीद किसीसे भी दुनिया वालों से l

किश्तों में मिलता अपनों का साथ सारा नहीं मिलता ll

 

दिल फेंक और नकाब पहने हुई चारो और फिरते कि l

दिखावे का प्यारा मिलता है पर प्यारा नहीं मिलता ll

 

चाहते बेइंतिहा और बेपनाह प्यार करने वाला मिले पर l

अपना बनाने लायक कोई यहां गवारा नहीं मिलता ll

३-९-२०२५ 

महकती यादें 

शर्म का पर्दा डाल रखते हैं l

इश्क़ वाले जाल रखते हैं ll

 

महकती यादों में जीना l

रोमांचित हाल रखते हैं ll

 

वाबस्ता बरकरार रखने l

हररोज चौपाल रखते हैं ll  

 

किरदार ही ऐसा है कि l

हमेशा आमाल रखते हैं ll

 

मोहब्बत छलका ने को l 

दिल में भूचाल रखते हैं ll

 

जीत अभिमंत्रित करने l

गुप्त हर चाल रखते हैं ll

 

मन्नत पूरी करने तप l

वो पूरा साल रखते हैं ll

 

आबिदा आशीर्वाद से l

जेब मालामाल रखते हैं ll

 

बेरहम दुनिया से लड़ ने l

दोस्ती की ढाल रखते हैं ll

 

प्यार से लबरेज़ है पर l

सखी कंगाल रखते हैं ll

 

वाद्य के बादशाह सदा ही l

गीत में सुरताल रखते हैं ll

४ -९-२०२५

शिकायतें

महकती यादें चहका रहीं हैं l

जिंदगी को महका रहीं हैं ll

 

भीगी हुई बरसाती बयार l

सुबह शाम तड़पा रहीं हैं ll

 

शिकायतें बंध कर ये l

सखी समजा रहीं हैं ll

 

प्यार भरी मुलाकात हो l

वहीं लम्हें तरसा रहीं हैं ll

 

नशीले आलिंगन की l

तमन्ना बहका रहीं हैं ll

 

इश्क़ के पास आने से l

साँसे वो धड़का रहीं हैं ll

 

खामोशी का चोला पहन l

निगाहें मलका रहीं हैं ll

 

वो गैरों से गले मिले तो l

मेरा दिल गरजा रहीं हैं ll

 

रसीले इशारा कर के l

इच्छा भड़का रहीं हैं ll

५ -९-२०२५ 

अनजानी डगर 

शिकायतें ये है कि अब कुछ नहीं कहते हैं l

ख़ामोशी का चोला पहनकर चुप रहते हैं ll

 

जरा सी अनबन में रूठ के बैठे है उसकी l

सालों की जुदाई को चुपचाप सहते हैं ll

 

अनजानी डगर ले जाए तकदीर का घोड़ा वहीं l

और वक़्त की रफ्तार के साथ यूहीं बहते हैँ ll

 

बदनाम ना होगे ना बदनाम करेगे सखी यूहीं l

ज़माने के सामने हसी का मुखौटा पहते हैं ll

 

भाग्य में जो औ जितना लिखा है वो मिलेगा l

जो भी मिले उसे ही खुशी के साथ गहते हैं ll

 

अनजानी डगर 

अनजानी डगर अनजाने सफ़र पर निकले हैं l

 

 

आदत

ईंटो का ढाँचा रहा है, इमारत नहीं रही l

मकान रह गये कहीं पर छत नहीं रही ll

 

प्रकृत्ति ने अपना रौद्र रूप लिया है तो l

अगले पल की कोई सलामत नहीं रही ll

 

एक के बाद एक साथ छुट गया है सब का l

गैरों की छोड़ो अपनों की इनायत नहीं रही ll

 

भीड़ में भी अकेला रहने को जी करता हैं l

तन्हाई से मिले लोगों की आदत नहीं रही ll

 

पहचान बरकरार रहने का इरादा न रहा l

अब मुलाकातों की भी रवायत नहीं रही ll

 

दिखावे के लिए मंदिर मस्जिद जाते लोग l

जेहन में पहली जैसी इबादत नहीं रही ll

 

आजकल बड़े दिल फेंक होते हैं इश्क़ वाले l

नया हमराज मिला तो जरूरत नहीं रही ll

६ -९-२०२५ 

 

बड़ी जहमत उठाई है पल की झलकियां पाने के लिए l

और कई दिन लगें मुकम्मल तसवीर बनाने के लिए ll 

 

वैसे भी उखड़े उखड़े रह्ते है अब नहीं चाहते बेचैन रहे l

कभी के अजनबी ओ गुमशुदा हो गये ज़माने के लिए ll 

 

जो जैसा है वैसा ही भले ही रहे चाहे जो हो अब l

आईना किसीको न दिखाएँगे नजरों से गिराने के लिए ll 

 

सालों से लगातार दिल जल रहा था तो आज l

अश्क़ों का समंदर बहा दिया अगन बुझाने के लिए ll

 

जो भी करो पूरी शिद्दत और लगन से करना चाहिए l

कुछ भी ऐसा कभी नहीं करना चाहिए दिखाने के लिए ll

७-९-२०२५ 

अर्पण तर्पण

सर ए महफ़िल में दिल का हाल बताना नहीं आता l

नजर भर देख ने के लिए पर्दा उठाना नहीं आता ll

 

जो भी करेगे सिद्दत और मुकम्मल इच्छा से करेगे l

जूठा ही सही प्यार से गले से लगाना नहीं आता ll

 

दिल का रिश्ता दिल से निभाना जानते है दिखाने को l

जाने वालों के लिए अर्पण तर्पण जताना नहीं आता ll

 

सखी इस क़ायनात में बैठे बैठाएं कुछ नहीं मिलता l

मेहनत किये बिना रुआबदार ज़माना नहीं आता ll

 

मिलकर बैठे हो जब गंभीर बातचीत के लिए तब l

कभी भी अधूरी मजलिस छोड़कर जाना नहीं आता ll

 

भरे बाजार में मेला लगा हो तब सखी सहियर के सामने l

छुपते छुपाते निगाहों से निगाहें लड़ाना नहीं आता ll

 

एक बात सुन लो बड़े सीधे सादे और आम इंसान है l

प्यार करने वालें जीगर को जलाना नहीं आता ll

८-९ -२०२५ 

चाह

हमेशा देर कर देता हूं में l

 

जरा सा हाथ देना है तो भी l

जरा सा साथ देना है तो भी l

जरा सा हौंसला देना है तो भी ll

 

आखरी बार मिलने जाना हो l

आखरी बात एक कर लेनी हो l

आखरी गीत सुना देना हो l

 

किसीके सीने से लग जाना हो l

किसीके सीने में धड़कना हो l

किसीके पास जाना हो तो भी ll

 

मुलाकात का वादा निभाना हो l

हाल ए दिल आज सुनाना हो l

मुकम्मल टूटकर चाह लेना हो ll

९-९-२०२५ 

 

हिंदी

ग़ज़ल लिखने के लिए हिंदी के सिवा जचा ही नहीं l

अच्छी रचना बनाने शब्द कोई हाथ लगा ही नहीं ll

 

सुबह से लेकर शाम हो गई ना जाने क्या क्या l

सोचते फ़िर भी काफिया औ रदीफ मिला ही नहीं ll

 

यार दोस्त मिल बैठकर बहुत रंग जमा लेते पर l

ना क्या क्यूँ उठकर महफिल तक गया ही नहीं ll

 

निगाहों का कसूर कहो या लाज़वाब हसीना का l

खूबसूरत हुस्न की कतार से ध्यान हटा ही नहीं ll

 

कैसे कर लेते इशारों इशारों में बातें जानेमन  से कि l

निगाहें चार होने का कोई संजोग बना ही नहीं ll

१४-९-२०२५ 

 

हिंदी

हिन्दुस्तान में हिंदी की बोलबाला चलती हैं l

अंग्रेज औलाद को इस की हुकूमत खलती हैं ll

 

अपनी संस्कृति और भाषा की आराधना ही l

हर भारतवासी के दिलों दिमाग में पलती हैं ll 

 

शब्दों की मधुरता औ अभिव्यक्ति को पढ़ते l

किताबों में सुबह से लेकर शाम ढलती हैं ll

 

एकता की अनुपम परंपरा की गौरवगाथा l 

हमभाषी से रूह को सुकुनियत मिलती हैं ll

 

भारत की आशा, जीवन की परिभाषा कि l

खुद की राष्ट्रभाषा की अज्ञानता ग़लती हैं ll

१५-९-२०२५