शीर्षक : "अधूरी घंटी"
Part 6 : श्राप का वारिस
हवेली के बाहर आते ही विवेक और बाबा ने चैन की साँस ली। उन्हें लगा कि अब सब खत्म हो गया है। लेकिन आरव की आँखों में छिपी नीली चमक उन्होंने नहीं देखी।
गाँव लौटने के बाद आरव पहले जैसा सामान्य दिखने लगा। वह हँसता-बोलता, लोगों से मिलता और सबको यही यक़ीन दिलाता कि हवेली का श्राप खत्म हो गया।
लेकिन रात में, जब सब सो जाते, तो उसके कमरे से घंटी की धीमी आवाज़ आती—
"टन… टन… टन…"
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🌑 बाबा की शंका
रामकिशन बाबा को चैन नहीं मिला। एक रात वे आरव के घर पहुँचे। खिड़की से झाँकते ही उनके रोंगटे खड़े हो गए। आरव टूटी हुई घंटी के सामने बैठा था और आँखें बंद करके वही मंत्र उल्टा पढ़ रहा था।
बाबा समझ गए—"श्राप टूटा नहीं, बल्कि नया रूप ले चुका है। अब हवेली का वारिस आरव है।"
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🌑 विवेक की दुविधा
विवेक को जब यह बात पता चली तो उसके पैरों तले ज़मीन खिसक गई।
"क्या मैं अपने दोस्त को मार दूँ? या उसे बचाने का कोई और रास्ता है?"
आरव अब गाँव के लोगों पर अजीब असर डालने लगा था। जो भी उसके पास जाता, रात को डरावने सपने देखता। कुछ तो बीमार पड़ गए। धीरे-धीरे पूरे गाँव में यह बात फैल गई कि हवेली का श्राप अब आरव में बस गया है।
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🌑 अंतिम टकराव
बाबा ने विवेक से कहा—"आज आखिरी रात है। या तो तू अपने दोस्त को मुक्त करेगा, या यह श्राप पूरे गाँव को निगल जाएगा।"
विवेक कांपते हुए आरव के कमरे में गया। वहां घंटी हवा में अपने-आप झूल रही थी और आरव ध्यान में बैठा था। उसकी आँखों में अब पूरी तरह नीली चमक थी।
"तू देर से आया, विवेक," आरव ने आँखें खोले बिना कहा।
"अब मैं हवेली हूँ… और हवेली मैं हूँ।"
विवेक ने मंत्र पढ़ना शुरू किया, लेकिन इस बार आरव हँस पड़ा।
"मंत्र? वो अब मुझे नहीं रोक सकता। मैं श्राप का वारिस हूँ।"
कमरे की दीवारें काली होने लगीं। टेबल, कुर्सी, सब धुएँ में घुलते चले गए। विवेक ने कांपते हाथों से घंटी उठाई और पूरी ताक़त से उसे ज़मीन पर पटका।
धम्म!
घंटी टूटते ही आरव दर्द से चीख उठा। उसकी आँखों से नीली रोशनी बाहर निकलकर धुएँ में बदल गई। कुछ पलों तक सब कुछ हिलता रहा… और फिर सन्नाटा।
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🌑 अंत… या शुरुआत?
आरव ज़मीन पर पड़ा था, बेहोश लेकिन ज़िंदा। विवेक ने सोचा कि सब खत्म हो गया। बाबा ने राहत की साँस ली और कहा—"शुक्र है, श्राप टूट गया।"
लेकिन जब वे कमरे से बाहर निकले, तो टूटी हुई घंटी की दरारों से हल्की गूंज सुनाई दी—
"टन… टन…"
विवेक ने पीछे मुड़कर देखा—घंटी का एक टुकड़ा अपने-आप हिल रहा था।
उसकी रगों में सर्द लहर दौड़ गई।
"क्या सचमुच श्राप खत्म हुआ… या उसने बस नया घर खोज लिया?"
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✅ कहानी का निष्कर्ष
“अधूरी घंटी” अब भी अधूरी ही रही। हवेली का श्राप टूटा नहीं, बल्कि अपना वारिस पा चुका है।
कभी आरव के रूप में… तो कभी उस घंटी के एक छोटे से टुकड़े में।
कहानी वहीं खत्म होती है जहाँ से नया डर शुरू होता है।
✨ सीख (Lesson)
हर गुनाह अधूरा नहीं रहता, सच कभी-न-कभी सामने आता ही है।
लालच, धोखा और नफ़रत की आग इंसान को इंसान नहीं रहने देती—वह राक्षस बन जाता है।
श्राप और डर से भागने के बजाय उसका सामना करना ही मुक्ति का रास्ता है।
लेकिन याद रखना—हर श्राप का अंत नहीं होता, कुछ डर हमेशा ज़िंदा रहते हैं…