शीर्षक : "अधूरी घंटी"
Part 5 : श्राप की आख़िरी रात
हवेली में उस रात सब कुछ जैसे अंत की ओर बढ़ रहा था। विवेक और बाबा मंत्र पढ़ने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन आरव उनके बीच आ खड़ा हुआ। उसकी आँखों से अजीब सी नीली रोशनी झलक रही थी।
"मैं अब हवेली का हिस्सा हूँ… तुम चाहो तो मंत्र पूरा करो, लेकिन इसका नतीजा भुगतोगे," आरव की आवाज़ मानो किसी और की हो।
बाबा ने उसे शांत करने की कोशिश की—"बेटा, तू अभी पूरी तरह आत्मा के अधीन नहीं हुआ। अपने मन को मज़बूत कर और हमारे साथ मिलकर मंत्र पढ़।"
लेकिन तभी काली परछाई गुर्राई—
"यह अब मेरा है! जैसे राधिका की आत्मा मेरे अधीन है, वैसे ही यह भी होगा। कोई मंत्र इस बंधन को नहीं तोड़ सकता।"
दीवारें फटने लगीं, छत से राख बरसने लगी, और घंटी इतनी जोर से बजने लगी कि विवेक ने अपने कान बंद कर लिए।
"टन…टन…टन…टन…"
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🌑 आरव का संघर्ष
आरव ज़मीन पर गिर पड़ा। उसकी आँखें उलट गईं और वह दर्द से चीखने लगा। एक पल के लिए उसकी असली आवाज़ निकली—
"विवेक! मुझे बचा… मंत्र पूरा करो… जल्दी!"
विवेक की रगों में खून जम गया। उसका दोस्त अब मौत और मुक्ति के बीच फँसा था। बाबा ने जल्दी से गंगाजल उसके माथे पर छिड़का और मंत्र तेज़ आवाज़ में पढ़ने लगे।
राधिका की आत्मा फिर सामने आई। इस बार उसके चेहरे पर आँसू और गुस्सा दोनों थे।
"मेरी मौत का सच सामने आ चुका है… मुझे मुक्ति चाहिए… लेकिन यह परछाई मुझे छोड़ने नहीं देगी।"
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🌑 मौत का सामना
विवेक ने साहस जुटाकर कहा—"अगर तेरा श्राप तोड़ना है तो मुझे तुझसे लड़ना होगा।"
इतना कहते ही काली परछाई ने अपना असली रूप धारण कर लिया—एक जलते हुए इंसान की परछाई, जिसकी आँखों में आग थी और शरीर राख से ढका था।
"तू इंसान है… मुझसे लड़ पाएगा?"
विवेक काँप गया लेकिन बाबा ने उसका हाथ पकड़कर मंत्र की किताब थमा दी।
"डर मत बेटा, डर ही तुझे कमजोर बनाएगा। मंत्र ही तेरी शक्ति है।"
विवेक ने पूरी ताक़त से मंत्र पढ़ना शुरू किया। हवेली की दीवारें जोर-जोर से हिलने लगीं। काली परछाई चीखने लगी—
"नहीं… यह हवेली मेरी है… यह आत्माएँ मेरी हैं!"
आरव अचानक उठ खड़ा हुआ। उसका शरीर कांप रहा था, लेकिन उसने भी बाबा और विवेक के साथ मंत्र दोहराना शुरू कर दिया।
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🌑 घंटी का अंत
घंटी अचानक इतनी तेज़ बजी कि लग रहा था हवेली की छत फट जाएगी।
"टन…टन…टन…टन…"
और फिर—एक जोरदार धमाके के साथ घंटी टूटकर ज़मीन पर गिर गई।
काली परछाई दर्द से चीखते हुए राख में बदल गई। राधिका की आत्मा ने आखिरी बार आरव और विवेक की ओर देखा और मुस्कुराई।
"धन्यवाद… अब मैं मुक्त हूँ।"
धीरे-धीरे उसकी परछाई धुंध में घुल गई और हवेली का सारा कोहरा छंट गया।
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🌑 लेकिन…
सन्नाटा लौट आया। विवेक और बाबा ने राहत की सांस ली। आरव चुपचाप खड़ा था। उसकी आँखें अब सामान्य लग रही थीं।
लेकिन जैसे ही वे हवेली से बाहर निकलने लगे, आरव अचानक ठिठक गया। उसने टूटी हुई घंटी को उठाया और धीमे से मुस्कुराया।
*"मुक्ति…? नहीं… खेल तो अब शुरू होगा…"
उसकी आँखों में फिर वही नीली रोशनी चमकी।
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क्या आरव पर अब भी श्राप का असर है?
क्या हवेली सचमुच खाली हो चुकी है या श्राप अब किसी और रूप में जीवित है?
क्या यह अंत है… या बस एक नई शुरुआत?