Shaheed ki Vidhwa - Season 1 - 4 in Hindi Love Stories by Dhananjay dwivedy books and stories PDF | शहीद की विधवा - सीजन 1 - भाग 4

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शहीद की विधवा - सीजन 1 - भाग 4

     मुझे मेरे कानों में किसी के बुदबुदाने (धीमी-धीमी आवाज में खुद अपने आप से बात करना) की आवाज आ रही थी।

   मैंने पलट कर देखा तो ऋचा अपने आप मे खुद ही कुछ कुछ बोले जा रही थी और अपनी आँखों को पोछते जा रही थी।

  मैने अपने मन ही मन में सोचा कि किसी महिला का पुत्र और किसी नवविवाहिता के पति का अभी अभी निधन हुआ हो वो भला कैसे सयंम रख सकते हैं तब भी मैंने उनकी बातों एवं सिसकियों को अनसुना करते हुए ऋचा जी से पूछा कि शक्कर और चायपत्ती कहाँ हैं।


   ऋचा जी ने अपने आँसुओ को पोछते हुए दो डब्बे लाकर मेरे सामने रख दिये और अपनी नजरें नीचे कर के मुझे धन्यवाद देने लगीं।

      मैने उनकी धन्यवाद के बदले सिर्फ इतना कहा कि इसमें धन्यवाद की क्या बात है और अपनी बात बदलते हुए उनके पिताजी के बारे में पूछा की आपके पिताजी का स्वभाव ही इस तरीके का है क्या?

    मेरे सवाल पर ऋचा जी ने अपनी मौन सहमति दी और बोली की मैं और रोहित (रोहित ऋचा जी के पति का नाम था) कॉलेज में साथ ही पढ़े थे और हम दोनों के बीच मे कब प्यार हो गया पता ही नहीं चला।

    मेरे माता पिता इस रिश्ते के लिए राजी नहीं थे, लेकिन रोहित के सेना में अफ़सर बनने के बाद वो लोग भी मान गए और दो महीने पहले हमारी शादी हो गयी थी।

   शादी के चौथे दिन ही रोहित की छुट्टियां खत्म हो गयी थीं और वो वापस चले गए। मैं शादी के बाद उनको ढँग से देख भी नहीं पाई थी, इतना बोलने के पश्चात ऋचा जी के आंखों से अश्रुधारा बहने लगी।

     मैंने ऋचा जी को एक कप चाय देते हुए कहा कि विधि के विधान के आगे हम सभी को नतमस्तक होना पड़ता है, और उसे कोई बदल भी नहीं सकता है, इतना बोलते हुए मैंने उससे चाय ले जाने के लिए ट्रे माँगा और चाय लेकर बाहर आ गया।

    मैने चाय की ट्रे टेबल पर एक तरफ रख दी और एक कप चाय सिंह साहब के पास ले जाकर रख दी। सभी के चाय पीने के बाद मैंने ऋचा के पिता जी से कहा कि आप लोग मेरे घर चलिए आप लोगों की रुकने की व्यवस्था मैं वहीं कर दे रहा हूँ।

    मेरी बात सुनकर ठाकुर साहब और उनका पुत्र तुरंत बैग लेकर तैयार हो गए, मैंने मन ही मन सोचा कि ठाकुर साहब भी कैसे पिता हैं जो अभी तक अपनी बेटी से मिलकर उसे दिलासा देना भी उचित नहीं समझे और इतना सोचते हुए उनका बैग उठा कर अपने घर की तरफ पैदल चलने लगा वो लोग मेरे पीछे पीछे चले आ रहे थे।
    घर पहुंच कर मैने उनके लिए बिस्तर लगा दिया और बाथरूम वगैरह दिखा कर वापस निकल ही रहा था कि उन्होंने मुझे पुकारते हुए बोला कि बेटा एक बात बताओ न तो तुम हमारी जात के हो न तुम्हारी सिंह साहब से कोई पुरानी पहचान है, खुल के बोलना की ये सब तुम कहीं उनकी जायदाद वगैरह हथियाने के लिये तो नहीं कर रहे हो अगर ऐसा कुछ सोच रहे हो मुझसे बच कर रहना।
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क्रमशः----------