Vaah ! Beta Vaah! - 1 in Hindi Short Stories by H.k Bhardwaj books and stories PDF | वाह ! बेटा वाह ! - भाग 1

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वाह ! बेटा वाह ! - भाग 1

       कहानी:-  ■■ वाह ! बेटा वाह ! ■■                          भाग01               (कलियुगी बेटे की करतूत)_____________________________________________ रघु मेरा गहरा मित्र था, वह एक सॉफ़्ट बेयर इन्जीनियर था ।हम दोनो ने मुरादाबाद जैसे महानगर के प्रसिध्द महा विद्यालय" हिन्दू कालिज" में एक साथ ग्रेजुएट की डिग्री प्राप्त ली थी।यह कालिज रूहेलखंड बिश्व विद्यालय के अन्तर्गत आता है।           मेरी ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी होने के बाद मैं अपने पैतृक गाँव निजामुद्दींंन पुर शाह वापिस आ गया था ।और यहाँ घर पर कुछ् दिन यूँ ही भटकता रहा,।           गाँव मे अक्सर आय के स्रोत्र ना के बराबर होते है , अतः मैं एक गाँव के विद्यालय में ब्यक्तिगत अध्यापक के रूप में पढ़ाने लगा था, और इसी बीच मेरी शादी दीपा नाम की एक खूवसूरत लड़की से हो गई थी।पिताजी अपने कार्य में सलंग्न रहते थे ,जिंदगी की गाड़ी बे रफ्तार चल रही थी, घर में मेरा पूरा परिवार जिसे आज की भाषा में सँयुक्त परिवार कहना ही उचित था ,सभी एक साथ रहते थे ।जिसमें मेरी दादीजी दादाजी, माताजी पिताजी, और मैं और मेरी पत्नी दीपा रहती थी।मेरे चाचाजी पहिले से ही शहर अलीगढ़ में आकर वस चुके थे।मेरी पत्नी दीपा बहुत सुलझी हुई और समझदार गम्भीर प्रवृत्ति की महिला थी,।वह किसी भी कमी को मेरे सामने शो नहीं करती थी और न कोई परिबार की छोटी मोटी टेंशन को अपने दिमांक में अधिक ध्यान में रखती थी ,वह जैसी भी परिस्थिति होतीं उनमें अपनेआप को ढाल लेती थी ।           बस यूँ ही जिंदगी की गाड़ी धीरे धीरे चलती रही, और धीरे धीरे बाबा,दादी,दादा सब के सब प्रिय सदस्य एक एक कर के सब मुझे छोड कर चले गए।            अब मेरी माँ पर घर की सारी जिम्मेदारी आ गई थीं , परिबार की बुजुर्ग महिला मुखिया होने के नाते । इसी बीच में मैं दो पुत्रों का पिता बन चुका था बड़ा बेटा,चन्दन, और छोटा सनत कुमार।जब सनत कुमार एक सबा साल का था , कि मेरे पिताजी का देहाँत हो गया ।उस समय मेरी उम्र कम से कम चौबीस वर्ष रही होगी,घर पर विपत्तियों का पहाड़ टूट चुका था,।मेरी समझ मे नहीं आता कि अब में ग्रहस्थी की गाड़ी को कैसे संचालित करूँगा क्योंकि मेरे पास ना कोई मेरा तजुर्बा और न कोई जिम्मेदारी निभाने का कोई मन्त्र था , बस कुछ दिन मैं यूँ ही इधर उधर निर्लक्ष्य भटकता रहा।एक दिन मेरी माता जी ने मेरा हौशला बढ़ाने के उद्देश्य से मुझसे कहा।बेटा कुमार ,चलो अब हमें यह गाँव छोड़ देना चाहिये ,और शहर में एक साथ चलो ।"वहाँ हम सब मिल कर कुछ ना कुछ कार्य कर तुम्हारा हाथ बंटाएंगे " ।किन्तु मैंने,  अपनी माँ जी की बात को सुन कर अनसुना कर दिया ।कुछ समय और गुजरता गया,पिताजी के गुजरने के बाद से मेरी प्रति दिन की दिनचर्या वही थी जो उनके जीवित होने पर होती थी,।अतः कुल मिलाकर यह  कि मैं पहिले की भाँति सुवह उठकर नित्य कर्मो से फारिग हो कर एक व्यक्तिगत विद्यालय में शिक्षणकार्य हेतु चला जाता और दो बजे विद्यालय से सीधे ही घर न आकर एक आश्रम जो " सुंदर आश्रम " के नाम से विख्यात था ।वहाँ मंदिर पर चला जाता, और शाम ढलते ही अपने गांव को बापिस आ जाता, वस यह थी मेरी प्रति दिन की दिनचर्या ।            न कोई जिम्मेदारी का वोध ,और ना कोई भविष्य की चिंता।घर का ख़र्च कैसे चलता है ? यह भी मुझे पता नहीं था ।मेरी माता जी मेरे पिता जी की मासिक पूण्य तिथि पर पिताजी के निधन के बाद से हर माह कम से कम एक या दो ब्राह्मण को भोजन अबश्य कराती थीं, और उन्हें अपनी सामर्थ्य के अनुसार दक्षिणा देती,।इस तरह ग्यारहबें माह में पिता जी की बरसीं का कार्यक्रम पूर्ण करने के बाद , मैं घर को चलाने हेतु कार्य की तलाश में दिल्ली जैसे महानगर में अपने एक दोस्त के साथ आ गया।दिल्ली में मेरे गाँव के वहुत सारे लोग किराये पर कमरा लेकर मेहनत ,मजदूरी का कार्य करते थे।        मैं जिस शख्श के पास गया था ,वह ब्यक्ति बिल्डिंग पेंटर था, मेरा मतलब वह बड़ी बडीं बिल्डिंग्स पोतने का ठेका लेता था,।अतः घर बालों को कुछ धन कमा कर ले जाना है,इसी विचार भाव के साथ मैं,उन लोगो के साथ काम करने लगा,।मुझें याद है जब मैं पढ़ता था तो ,कला (ड्राइंग) में मुझे विशेष रुचि थी,मेरे पिताजी भी एक अच्छे चित्रकार थे अतः मुझे कला के प्रति झुकाब पैतृक विरासत के रूप में मिला था ,।किन्तु यह पेन्टिंग का शौक़ मैं स्कूल के बाद खाली समय में ही पूरा करता था, जबकि मैं घर पर रहता था अथवा छुट्टियों के अबसर पर।मै हार्डवोर्ड पर प्राकृतिक चित्र,स्त्री पुरुष आदि कलाकृतियां विभिन्न मुद्राओं की आइल पेंट से बनाया करता था,।किन्तु मजबूरी में मैं विलडिंग्स पोतने के कार्य में मै, अब संलग्न हो गया, ।इस तरह मुझे दिल्ली जैसे महानगर में मुझे पन्द्रह दिन बिल्डिंग पोतने का कार्य एक ब्यक्ति के साथ करने का समय मिल गया। जब वह कार्य खत्म हो गया तो मैंने ठेकेदार से जो काम किया था उसके पैसे लेकर,अपने गाँव की ओर चल पड़ा।                 दूसरे दिन छोटी दीबाली का त्योंहार सब लोग मना रहे थे मैं पूरे दिन का सफर तय कर घर आया तो अपनी माँ ,पत्नी दीपा और दोनो बच्चों को बड़ी बेसबरी से प्रतिक्षा करते पाया,।यह मेरे जीवन का पहला मुझे सबक मिला था, पिता जी की अनुपस्थिति में दीपावली मनाने का।             दीपाबली खुशियों का त्यौहार है , अतः सभी अमीर गरीब लोग इसे अपनें अपनें स्तर से सभी मनाते है , पर हम लोग मिडिल क्लाश और मजदूर वर्ग के अपनी अपनी औकात के अनुसार मनातें हैं ,और उस समय हमनें भी  दीपाबली अपनीं औक़ात के अनुसार मनाई , पहिली बार पिताजी के बिना।               धीरे धीरे दिन बीतते चले जारहे थे,इसी बीच मेरी माँ जी ने मेरी छोटी वहिंन का विवाह एक सुदर्शन युवक से सम्पन्न कर दिया,।मेरे परिबार में मेरे सगे चाचाजी और उनका परिवार भी था, किन्तु उनका कभी भी हमें सहयोग अब तक नहीं मिला था।चाचाजी का सहयोग के नाम पर सिर्फ खाली अधिकार दिखाना था ।खैर जैसे तैसे ईस्वर के भरोसे गृहस्थी की गाड़ी चलती ही रही।इसीबीच मेरे एक शिक्षक मित्र ने मुझें नजदीक शहर बरेली के एक "सरस्वति विद्यामन्दिर "वृज लोक कालोनी ,पीलीभीत मार्ग बरेली में अस्थायी रूप से कला-कृतियों को बनाने एवं डेकोरेशन और एक दो विषयों को पढ़ाने हेतु अस्थाई शिक्षक के रूप में लगबा दिया ।मैं विद्यालय में ही रहता था मेरा कार्य चित्र बनाना, डैकोरेशन,और एक दो पीरियेड लेने का था,।               मेरे साथी सभी आचार्य कर्मठ,और सहयोगी थे,इन्ही आचार्य में मेरे एक मित्र शशिकांत मिश्र भी थे जो मेरे परम् मित्र बन चुकें थे बरेली ।सरस्वती विद्यामन्दिर में मैंने एक चित्र सूर्य नमस्कार आसन की दस स्तिथियों को दर्शाने बाला अपनी कल्पना के आधार पर अखण्ड भारत के नक्शे में एक सोपान की दिवाल(भित्तिचित्र)के ऊपरी भाग पर ठीक सोपान के ऊपर आयल कलर  से बनाया।उस चित्र को देख हमारें कई पदाधिकारियों ने मेंरी सराहना भी की थी, समय गुजरता गया, कुछ समय बाद विद्यालय के प्रधानाचार्य श्री योगेश गुप्ता जी ने मुझे अचानकअपने ऑफिस में बुला कर 1जनवरी को एक पत्र देतें हुए यह कहा कि।"आप फरीदपुर सरस्वति शिशु मन्दिर में चले जाओ "।             अतः मैं अपने सभी साथियों को बिना बताये अपने घर वापिस चला आया, और फिर कभी भी उस ओर मुहं न उठाकर देखने की इच्छा के साथ, मैं घर पर लगभग पूरी जनवरी अकर्मण्यता के साथ पड़ा रहा ।इसी वीच एक घटना के अंतर्गत में अलीगढ़ आ गया यहां पर मेरी बड़ी वहिंन जो मुझसे छोटी थी ,अपने पति के साथ अपना घर बनाकर रहती थी , मैं उसके यहाँ पर रुक कर काम की तलाश में अब भटक ने लगा। भटकते भटकते एक दिन मैंने सब्जी मंडी  धनीपुर के गेट पर एक दुकान के पास खड़ा हो कर एक पेण्टर को दीबाल पर पेंटिंग्स का काम करते देखा ।          वह पेण्टर एक शब्द लिखता और थोड़ी देर विश्राम करता, और फिर अगले शब्द को लिखने में पुनः उतना ही समय लेकर अपना कार्य वेहद मन्थर गति से करता ।उसकी इस आदत पर मुझे उस पर वहुत गुस्सा आने लगा था,पर मैं अपने को शांत कर उस से बोला।भाई पेण्टर साहब, आप तो एक एक अक्षर लिखने में लम्बा समय लगाकर अपना कीमती समय ब्यर्थ करते हो।प्रतियुत्तर में पेण्टर साहब ने मेरी ओर,चश्में में से घूर कर देखा।और अगले पल अपने हाथ मे पकड़ा बुरुश मेरी ओर बड़ाया और कहा।लो भाई ,आप ही  जल्दी जल्दी लिखो।अचानक मुझे क्या हुआ , कि मैने उनकी इस बात को "चेलेंज मानकर" उसके हाथ से बुरुश पकड़ा और उनसे बोला।ठीक है, आप बोलते जाओ, मैं अभी सारा लिखता हूँ।और फिर मैंने अगले पांच मिनट में उसका सारा कार्य फिनिश कर दिया।अगले पल उस पेण्टर ने मुझ से कहा।आप क्या कार्य करते हो?कुछ भी नहीं बस ख़ाली हूँ।तो मेरे साथ काम कर लो,.....मैं तुम्हे 70 रु.प्रति दिन के हिसाब से दूंगा।उस समय एक मजदूर की दैनिक मजदूरी केबल रुपये 70/ ही थी,अतःअंधे को क्या चाहिए,.......वस दो .....आँखें ?अतः मैने उसका ऑफर बे झिझक स्वीकार कर उसको अपना पता दे दिया।               --और फिर अगले दिन वह पेण्टर साहब मेरे घर आ गये,जलपान करने के बाद मैं भी अपनी साइकिल से उनके साथ कार्य करने निकल पड़ा,।इस तरह मैं उनके साथ लगभग एक महीना वालपेन्टिंग का कार्य करता रहा ।इसी बीच मुझे उस पेंटर की वहुत सी एसी आदतें जो मुझे पसंद नही थी, पता चल चुकीं थी , मैंने कई बार कोशिश की  कि मैं उसके साथ काम कर सकूं, किन्तु उसकी आदतों के वीच मैं  अब समझौता नहीं कर सका ,इसलिये मैने उनका साथ छोड़ दिया।अब मेरे सामने बाल पेंटिंग के रूप में मेरी जीविका उपार्जन के रूप में एक विकल्प मुझे मिल चुका था सो मैं सैल्फ पेंटिंग, ' कुमार ' पेंटर के नाम से करने लगा। और फिर ईश्वर के आशीर्वाद से मेरा कार्य अच्छी तरह चल पड़ा। अब हम अपने परिवार को साथ लेकर अलग किराये पर कमरा लेकर रहने लगे, गांव के घर में ताला लगा दिया गया था।इस तरह जुलाई माह में मैं एक दीबाल पर एक स्कूल का एड. लिख रहा था, कि एक निकट के स्कूल की टीचर मुझसे उस एड.केबारे में बात करने लगी।आप क्या हिसाब से पेंटिंग करतें हैं।जी मैंम एक रुपये स्क़वायर फीट।मैंने  स्कूल बाल पेंटिंग्स के रेट के बारे मेंबोला।उस टीचर को पेंटिंग्स के रेट्स जो उस समय के थे,उसे अच्छी तरह समझाए।वह टीचर मेरे बात करने के ढंग से प्रभावित होकर बोली।"आपकी बातों से लगता है कि आप कुछ पढ़े लिखे हो " बैसे बाल पेंटिंग करने बाले लोग कम ही पड़े लिखे होते है?मैंने उसकी बात के उत्तर में हंस कर कहा।मैडम ज्यादा नहीं इंटर पास हूँ।तो आप किसी स्कूल में क्यों नही पढ़ा लेते।अब मेरे अंदर छिपी पीड़ा जागृत हो चुकी थी, मैने उस टीचर से दुःखित स्वर में कहा।" मैडम मैने वहुत समय तक पढ़ाया है,पर अब शिक्षण कार्य से मेरा मन ऊब चुका है।उस टीचर ने मुझें  हैरत से देखा ।और पुनः समझाया।देखो....,यह कार्य जो तुम करते हो, उसे तो कम पढें लिखे भी कर सकते है, ....हाँ तुम इस टीचिंग लाइन से जुड़ोगे तो तुम्हारे रहन सहन के स्तर और बोलचाल में भी सुधार होगा।प्रति उत्तर मे मैंने उस टीचर से कहा।ठीक है,मैम में आपकी इस बात पर विचार अबश्य करूँगा।और मैं अपने कार्य मे संलग्न हो गया।इस तरह काम की अधिकता में मुझे उस टीचर की बात काबिलकुल ध्यान ही नहीं रहा।एक दिन जब मैं काम का अबकाश करचुका या उस दिन मेने उस मैंडम के उस सुझाव पर विचार किया, तो उस की वात में अंतत: सच्चाई  मुझे महशूश हुई , और मैं अगलें पल निश्चय कर मैं विचार करता उस मैडम के पास गया।उसने मुझे पूर्ण सहानुभूति दिखाई ,और बोली।फिलहाल मेरे विद्यालय में इस समय जगह नहीं है,हाँ तुम चाहों तो मैं तुम्हें एक परिचित के स्कूल में भेज सकती हूं।मैने सोचा चलो आज बैसे भी छुट्टी कर ली है, अतः ट्राई करने में कोई हर्ज ही क्या है।अतः मैं मैडम के बताए पते पर  चला गया और मुझे उन्होंने,300/रुपये मासिक बेतन पर रख लिया।अब मैं नियमित समय पर विद्यालय जाता और विद्यालय से अबकाश होने के बाद पार्ट टाइम के रूप मे बाल पेंटिग्स करने दूर दूर तक साईकिल से जाने लगा ।मुझें अक्सर यह डर लगा रहता था कि कोई मुझे मेरा परिचित व्यक्ति पेंटिंग करते देख ना ले ।किन्तु यह भी भ्रम दूर हो गया था, क्यों कि अब धीरे धीरे मेरा काम अच्छा चलने लगा,।इसी बीच मेनेअपने सिद्धान्त से समझौता ना करते हुए, एक दिन वह विद्यालय छोड़ दिया ,जिस मे मुझे उस लेडी टीचर ने लग बाया था।जिस विद्यालय में मैं अब तक पढ़ाता था ,उसी के निकट घर के एक डाक्टर साहब अपने स्कूटर की नम्बरप्लेट पर नम्बर डलबाने मेरे घर आये।उनसे मैंने विद्यालय छोड़ने की बात बताई ,तो उन्होंने मेरे समक्ष स्वयं का विद्यालय खोलने का प्रस्ताव रखा,और मुझ से एक गाँव का पता देकर अगले दिन आने की कह कर चले गए।           अगले दिन जब मैं वहाँ उनसे मिलने उस गाँव में गया तो उन्होने मेरा परिचय ,एक अध्यापक के रूप में वहाँ के लोगो से कराया। उन सभी लोगो की प्रति क्रियात्मक सहयोग से मेरे अन्दर मेरा खोया हुआ आत्मविश्वास पुन:जाग्रत हो गया ,और मैंने अगले दिन से एक नए बिद्यालय का एक ब्यक्ति गत स्थान पर शुभारंम्भ कर दिया,।इसतरह  धीरे धीरे वह व्यक्तिगत विद्यालय सही ढंग से चलने लगा।उसकी मान्यता सम्बन्धी कानूनी प्रक्रिया भी अति शीघ्र पूरी कर मान्यता ले ली गई। और तब से अब तक मैं टीचिंग लाइन में पूरी तरहजुड़ गया था।यह सब पुरानी यादें अतीत के चलचित्र की भाँति मेरे सामने चंद मिनट्स में किसी चलचित्र की भाँति कौंध रहीं थी, क्यों की आज सुबह मेरे सहपाठी मित्र रघु का फोन मेरें पास आया था।रघु की रुड़की में पोस्टिंग हो चुकी थी।अतः मैंने उसे अपने घर आने का निमंत्रण दे दिया था ,और अगले सप्ताह रघु हमारे निमंत्रण पर घर आने बाला था , अपनी बीबी बच्चों के साथ।इस बारे में मैने अपनी पत्नी दीपा और बच्चों को भी बता दिया था।" कि मेरा अंतरंग मित्र रघु आ रहा है।"अतः उसके स्वागत में कोई कमी नहीं रहनी चहिये। मेरी पत्नी ने उसी दिन से सब ब्यबस्थाए देखना शुरू कर दी और फिर निर्धारित दिन आने पर मेरे मित्र का फोन आया कि ," कुमार मैं अभी नहीं आ सकता हूँ ,क्यों कि मैं उसी तारीख को रिटायर हो रहा हूँ ,साथ ही एक दुखद खबर यह है की मेरी पत्नी भी इसी बीच चल वसी है,मैने जिस तारीख को तुम से आने का बायदा किया था, अतः दर असल मुझे याद नहीं रहा था कि इस 30 मई को ही मैं रिटायर होने बाला हुँ। "मैंने अपने मित्र को टेलीग्राम के माध्यम से उसे आश्वस्त कर दिया।कि "कोई बात नहीं, इस दुःख की वेला में में तुम्हारे साथ हूँ जब तुम्हें फुर्सत मिले तो जरूर आना"। समय बीतता गया इधर मै भी अपने बिद्यालय में व्यस्त हो गया,पता नही कब एक वर्ष यूँ ही बीत गया।और अब लौट कर फिर वही छुट्टियों का  जून का महीना आने बाला था ,वस एक सप्ताह का समय शेष था अतः मेरी पत्नी ने मुझ से कहा।चलो हम  जून की छुट्टियों में इस बार आपके रुड़की बाले दोस्त रघु के यहाँ क्यों ना चलें ?प्रस्ताव तो बढ़िया है,.....चलो घर पर बच्चों से सलाह मशविरा लेते है।मैंने पत्नी दीपा को आश्वासन दिया। जब हम विद्यालय से घर वापिस आये तो सांयकालीन भोजन पर सभी बच्चों और वधुओ से मैंने और दीपा ने चर्चा की ।सभी ने क्रमशा अपने अपने छुट्टियों का कार्यक्रम हमें वताया,हमारी छोटी वधु राखी को घूमने का कुछ अधिक ही शौक था,अतः वह भी हमारे साथ चलने को तैयार हो चुकी थी , पर मैंने उसे समझाया।कि बेटा,अभी हमें हो आने दो....पता नही वह... रुड़की में किस तरह ......रह रहा होगा..... ,सुना है उसके बेटे की बहू जी ......एक बकील है।अतः मेरी पुत्र वधू स्तिथि समझ कर मान गई । और इस तरह हम दोनों पति पत्नी अपने मित्र से मिलने रुड़की पहुँच गए।रुड़की पहुँचकर अब हमें अपने मित्र की तलाश करनी थी अतः दिए गए पते पर दो चार लोगों से पूछते हुए हम, भटकते भटकते आखिर में अपने मित्र के दरबाजे पर पहुँच ही गये।मैने खुश होकर डोरवैल का स्विच पुश किया।दिन के ग्यारह बजे थे , अतः हम प्रतीक्षा करते रहे कि कोई दरवाजा खोले पर कोई गतिविधि ना पाकर मैंने पुनः एक बार फिर व्यग्रता से स्विच दबाया ,उत्तर पहले की भाँति शून्य था, ।कुछ पल प्रतीक्षा के बाद भी परिणाम उपयुक्त ना मिलने पर पुनः इस बार मैंने डोरबेल के स्विच से हाथ अलग नही हटाया,फलस्वरूप डोरवैल की आवाज लगातार अंदर की ओर तेजी से गूंज उठी,अतः आवाज लगातार आने से साथ ही, एक जबान व्यक्ति तेज कदमों से चलता हुआ गेट के निकट आकर जोर से चिल्लाया।कौन  मरदूद है?और गेट खोलने के बाद वह हम दोनों पति पत्नी को देख कर एक बार फिर तेज स्वर में चीखा।" क्या आपको डोर बैल बजाने की तमीज नहीं मालूम है क्या "।सॉरी भाई,गलती हो गई।मैंने बात को संभालने के इरादे से उस नवयुवक से कहा।बोलो ,क्या काम है,वह सीधा प्वाईंट पर आता हुआ बोला।मैंने उस से सयन्त भाषा में कहा।क्या यहाँ मिस्टर रघु रहते हैं।जी हाँ रहते तो है पर आपको उन से, क्या काम है?उसने मुझे ऊपर से नीचें तक विचित्र नजरों से घूरते हुए रूखे पन से पूछा।बस,उन्हें इतना बोलना कि अलीगढ़ से कोई "कुमार" उनका क्लाशफैलों मिलने आया है।जी,इस समय बह किसी जरूरी कार्य से बाहर गए हुए है, लगभग आधा घण्टे बाद आप उन से मिलने आ जाना।                अभी वह युवक मुझसे बात ही कर रहा था कि अंदर से एक कर्कश नारी स्वर पुनः सुनाई पड़ा।सानू ,अरे क्लिनिक नहीँ जाना है,क्या ? ....हरिअप...जल्दी नाश्तें पर आओ।आता हूं, डार्लिंग।कहता हुआ वह युवक गेट वन्द कर पुनः अंदर की ओर चला गया।पल भर को मैं हत्प्रभ था , कि आज के नये युवा पीढी को हो क्या गया है?....... क्या वह सब अपनें माता पिता का सिखाया शिष्टाचार ......भूल चुके है।इसी बीच दीपा मेरी ओर व्यंग से देखती हुई मुश्करा रही थी।चलो फिलहाल हम आये है तो रघु का इंतज़ार करते हैं, वहां सामने उस पार्क में बैठ कर।मेने दीपा से अपनी झैप मिटाने के उद्देश्य से कहा ।और अगले पल दीपा और मैं पार्क में बनी पत्थर की बैंच पर बैठकर रघु का इंतज़ार करने लगे,।बैसे भी इसके अलाबा और कोई विकल्प भी नहीं था हमारे पास ।अतः मैं एक कहानियों की पुस्तक निकाल कर चुपचाप  पढ़ने लगा।साथ ही बीच बीच में मैं चोर नजरों से हर दस मिनट में रघु के घर के दरवाज़े पर नजर डालता रहा था,दीपा अब बैठे बैठे बोर हो चुकी थी अतः वह कुछ सोचते हुए बोली ,।अगर आपके दोश्त ने भी आपको नहीं पहिचाना तो?मैं कुछ पल मौन रहा, और फिर दीपा से बोला।कोई बात नहीं यार,अगर हमें रघु नहीं पहिचानता है , तो कोई बात नहीं,हम वापिस एक दिन होटल में रुक कर अलीगढ़ चले जायेंगे।दीपा मेरी ओर तिरछी नजरों से देख कर कुछ मुश्काई,मैं उसकी मुश्कान का अर्थ समझता था।अभी हम आपस में बात कर ही रहे थे कि रघु पैदल पैदल साइकिल हाथ से पकड़ें और एक हाथ से दूध की डोलची थामे आता हुआ दिखाई दिया।उसने साइकिल स्टेण्ड करने के बाद डोर बैल बजाई।अंदर से एक युवा महिला जोकि जीन्स और टॉप पहिने थी ने दरबाजा खोला ।और अगलें पल जोर जोर से चिल्लाती हुई बोली।"आपको कोई भी काम सलीके से नहीं करना आता है "।बहू साइकिल का ब्रेक खराब था ,अतः मुझसे साइकिल रुकी नहीं और टकरा गई ,इसमें मेरा क्या दोष है।मैने देखा रघु का पेंट फट गया था ,साथ ही उसके पैर में चोट लगने के कारण वह लँगड़ा कर चल रहा था।तभी अंदर से उसका बेटा आया बह भी रघु को डांटने लगा।आप कोई काम कायदे से तो कर ही नहीं सकते,चलो अब जाओ अंदर जाकर पट्टी करा लो।बह लड़का कठोर आवाज में बोला।रघु अंदर जाने लगा तो उसने पुनः कहा।देखो वह जो पार्क मे  सामने बैंच पर बैठे हैं ,वह आपको पूँछ रहे थे।रघु हमारी ओर देखने लगा था और जब उसने मुझें पूरी तरह पहिचान लिया तो बोला।अरे कुमार तू.... यार ,वहाँ क्यों ....बैठा है ?।रघु खुशी में भरा मेरी ओर आने लगा।तभी उसकी पुत्र बधू ने उसे टोका। किन किन फ़ालतू लोगों को बुला लेते हो घर पर।बेटा ऐसे मत कहो,.......वह मेरा दोस्त कुमार है....... जो अलीगढ़ में .....रहता है।तो ...क्या हुआ , हम नाचें.... गायें,...अरे बैसे ही घर पर काम करने बाली .....नौकरानी नहीं है, और संजना की कोर्ट की छुट्टियां भी...अभी नही हुई  है।मैं दोनो पिता पुत्र की वार्तालाप ध्यान से सुन कर वीच में ही ठिठका खड़ा था।तभी दीपा सूटकेस हाथ में लेकर आगे बडी और बोली ।नमस्ते भाई साहब,बहु की सहायता करने के लिये कोई न कोई ज़रूरी होना चाहिए।भावी जी क्या बताये, जब तक शानू की माँ जिंदा थी उसके होते सब कुछ ठीक ठाक चलता रहा।चलो अंदर ले जाकर बात करो,सब बात अब यहीं सुनाओगे।शानू की पत्नी ने रघु से उलाहना देकर कहा। रघु दीपा से सूटकेस लेकर अंदर चला, साथ ही मैं भी रघु के साथ था ,उसने हमारा समान गेस्ट रूम में राख दिया, और स्वयं तेजी से अपनी पुत्र बधू से बोला,।बेटी दो कप चाय वना दो।सॉरी डैडी ,मैं पहिले ही आलरेडी लेट हूँ, अब और लेट नही हो सकती हूँ ,अत:आप ही स्वयं अपना कार्य करो।कहती हुई वह गेट से बाहर निकल चुकी थी।दूसरी ओर उसका बेटा गैराज से अपनी नई गाड़ी निकाल चुका था अतः वह गेट बंद कर दोंनो एक साथ स्विफ़्ट मैं बैठ चुके थे, और अगले पल स्विफ्ट तेजी से हवा के साथ बात करती हुई आगे निकल कर आँखों से ओझल हो गई थी।मैं और दीपा रघु की मजबूरी देख और सुन चुके थे।रघु सुस्त सा बीस मिनट बाद एक ट्रे में नाश्ता और चाय की केटली कप के साथ लाया।आते ही दीपा से बोला ।सॉरी भाभी जी, मैं वहुत शर्मिंदा हूँ।वह अपने होठों पर एक फीकी वेवश मुस्कान लाता हुआ बोला।अरे यार रघुनाथ तू आज कैसी गैरों बाली बात कर रहा है। मैंने रघु के जख्मों पर मरहम लगाने का  असफ़ल प्रयास किया।नहीं कुमार, आज तू कुछ मत कह , वर्षों पुरानें इस दर्द को निकल जाने दे, यार जो मैं तेरी भाभी के मरने के बाद से अब तक चुपचाप सीनें में दबाये रखे बैठा था, आज वह एक गहरी ठोकर से भरभरा कर वहने लगा है।रघु के आँसू आँखों से निकल कर गालों पर आचुके थे।मेरे यार रघु प्लीज मत बहा ये आँसू, मैं तेरे दिल के दर्द को खुद अपने हृदय में महसूस करता हूँ।मैं रघु के दर्द को समझ रहा था,दरअसल मैं उसे और दुखी नहीं देखना चाहता था।मेरी पत्नी दीपा ने रघु के आँसू पूँछ दिए। और बोली ।भाई साहब हम आपको कोई अजनबी नहीं बल्कि यह आपके पुराने सहपाठी है, यह सब ऐसा तो घर में चलता ही रहता है।दीपा ने रघु को समझाते हुये कहा।रघु वहुत देर तक उसी अवसाद की स्तिथी में बैठा रहा।मैंने दीपा को इशारा कर उसे किचिन में खाना बनाने को बोला,अतः दीपा ने बड़ी समझदारी से रघु से कहा।भाई साहब मैं आपको खाना बनाके लाती हूँ,बताइये क्या सब्जी बनबानी है।भावी जी मैं कैसा दुर्भागी हूँ, जिसके घर आया मेहमान खुद अपने हाथ से स्वयं खाना बनाकर खाये।रघु बिलाप करते हुऐ बोला।रघु ,यार तू आज कैसे गैरों जैसी बात कर रहा है, जा अपनी भाभी को किचिन का रास्ता दिखा के मेरे पास आ।रघु बड़ी मुश्किल से दीपा को किचिन में लेकर गया।दीपा ने देखा,किचिन की हालत बहुत खराब थी किचिन में रखी हरेक जरूरी बस्तु उल्टी सीधी ,बेतरतीबी से पड़ी थी मशाले के डिब्बे इधर उधर पड़े हुए थे गेस के चूल्हे पर जमा आटे की परत चुग़ली कर रही थी कि गृहणी किस श्रेणी की महिला है।एक ओर झूण्ठे वर्तनों का ढेर सिंक में लगा हुआ था।दीपा ने हौसला कर सब वर्तनों को क्रम से साफ करके सही कर के सजाये, चूल्हें को साफ कर शेष किचिन की रूप रेखा ही कुछ देर में बदल दी। लग भग आधा घण्टे में खाना तैयार कर उसने डायनिंग टेबिल पर लगा दिया और आकर बोली।चलो खाना तैयार है।रघु कभी आश्चरिये से कभी दीपा को देखता और कभी मुझे,मैं उसकी इस हरकत पर मुश्करा के बोला।देखा यह है बीबियों का जादू,चल उठ खाना खाते है।रघु उठा और मेरे साथ चल कर डायनिंगटेबिल के पास पड़ी एक कुर्सी पर बैठ गया ।एक मुद्दत हो गई थी इस टेबिल के निकट बैठ कर खाना खाएं हुये।वह ठंडी सांस लेता बोला।भूल जा,यार पिछली बातों को।मैंने उसे समझाने की कोशिश की। किन्तु रघु था की वह उन बातों को भूलना नहीं चाहता था उसे वह सब पुरानी बातें एक दर्द बन कर चुभ रहीं थी वह पुरानी यादों में खोया रुक रुक कर बोल रहा था।कुमार भाई....." जब पहली सन्तान उतपन्न होती है तो...... सोचो उस माँ और पिता को .....कितनी खुशी महशूस होती है, .....यही सब खुशी मुझे भी कभी हुई थी.... जब यह शानू ....पैदा हुआ था, .....दूसरी संतान एंजिल के आने के दो माह बाद ....मेरी नौकरी रुड़की पाबर प्लांट में मेरी नियुक्ति हो गई,.....घर में खुशहाली ही खुशहाली थी,.....मैं रागी शानू की माँ को अपने साथ लेकर रुड़की आ चुका था ....मेरे पिता ने मुझसे कहा था ।बेटा रघु तुम्हारा.... बहू को लेकर नौकरी पर जाना... क्या उचित है।किन्तु उस समय मैं.... भूल गया था कि .....जो जैसा अपने माँ बाप के प्रति करता है,.....भगवान भी उसे उस से मय सूद ब्याज़ के साथ.....बापिस लौटाता है,.....और आज मैं स्वीकार करने मे जरा भी नही हिचकिचाऊंगा.... कि " जो मैंने अपने माता और पिता के ....प्रति जरा सी भी लापरवाही बरती थी.... यह सब आज......  उसी पाप कर्मों का..... परिणाम है "।रघु के मन की छिपी पीड़ा निकल कर पूरे बेग से आँखों के रास्ते वह निकली ,आँसुओं के रूप में आँखों से।मैं भी सोच रहा था काश मैंने तो कोई ऐसी गलती अपनी समझ से तो अपने मां और पिता के साथ नहीं की है ...मैं सोच रहा था .....मेरा परिवार सब एक ही जगह संयुक्त रूप से साथ था, पिता जी के ....साथ मेरी माता जी नौकरी पर साथ रहती थी और मैं अपनी ....दादी दादा जी के साथ रहता था, माँ कुछ समय पिताजी के साथ रह कर हमारे दादा जी के पास पुनः आजाती, हमें हमारे दादा जी ने जो प्यार, जो संस्कार दिए .....आज हम उनके ऋणि है,आज मेरे पास मेरी माँ ,पिता कोई नहीं पर ....आज भी मुझे लगता है कि वह हमें हमारे बीच .....संस्कारों के रूप मे उपस्थित .....हो, क्यों कि कोई भी कार्य के करने से पहिले मुझे दादा,दादी,माँ और पिता जी के दिये हुए संस्कार याद आजाते है।अरे आप दोनोँ तो खाना खाने के बजाय पता नहीं क्या क्या सोचने लगे?दीपा मुझे और रघु को घूरते हुए प्यार से डांटती बोली।अरे रघु यार पहिले खाना खाओ ,फिर हम सब मिलकर तेरी समस्या का समाधान ख़ोजते है।मेने रघु को आश्वाशन देकर समझाया।वह वहुत सम्बेदनशील हो गया था,मेरे समझाने पर वह खाना खाने लगा हमारे खाना खाने के बाद दीपा ने भी खाना खाया और फटाफट झूण्ठे बर्तनों को साफ करने के बाद, वह भी हम-दोनों के बीच आकर एक कुर्सी पर बैठ गई।हम और दीपा समझ चुके थे कि रघु की क्या समश्या है।अतः दीपा ने सुझाव दिया कि रघु के बेटे सानूं को समझाया जाए,उसके बाद उसकी पत्नी को भी समझाकर स्त्रियों के कर्तब्यों का ज्ञान कराया जाएगा तो जरूर उसे अपने आप अपने कर्तब्यों के प्रति जागरूकता बढ़ेगी ,तब इस समश्या का समाधान स्वयं हो जाएगा।            अतः हम लोगों को दीपा का सुझाब भा गया अब हम उन दोनों के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे,और दोपहर दो बजे के करीब दोनों पति पत्नी बापिस आये,दोनो ही बढ़िया मूड में थे दोनो गीत गुनगुनाते हुए एक दूसरे का हाथ थामे मस्ती मैं चलते हुये ड्राइंगरूम में आये और रघु से सानू की बीबी जो बकील थी बोली।डैडी आपने खाने में क्या बनाया है,हमे जोर की वहुत भूख लग रही है।रघु भौचक्का सा दीपा का मुँह ताकने लगा। दर असल हम सब को उन दोनों से इस तरह के प्रश्न की कोई उम्मीद ही नहीं थी।मैं भी वहू के इस प्रश्न का जबाब तत्कालिक नही दे सका।लेकिन दीपा कुछ देर बाद वहुत ही मधुर आबाज में बोली। बेटी .....तुम्हारे डैडी पर तो चाय भी ....बनानी नहीं आती, और तुम हो कि खाने की ..... बात कर रही हो।अभी दीपा अपनी बात पूरी भी नही कर पाई थी कि रघु की पुत्र वधु ने अपने एक बकालती दांव पेंच दीपा पर ही आजमाने शुरू कर दिए।वह एक दम से बोली।कोई बात नहीं आंटी डैडी पर बनाना नही आता है तो, कोई बात नहीं, पर ..    आप को तो भी ध्यान रखना चाहिए था कि घर में एक वहू और बेटे भी हैं....,कम से कम आप तो....खाना बना सकती थीं हमारें लिए।उसकी इस धृष्टता पर मुझे भी क्रोध आ रहा था, अतः मैं कुछ ऐसा कहना चाहता था.... कि वह कभी भूल न पाए, किन्तु दीपा ने उसे हंस कर जबाब दिया।बहूजी ,आपने अपनी .....मम्मी डैडी से बस यहीं.... सीखा की कोई मेहमान .....आये और उसी से काम.... कराया जाए।रघु की पुत्र बधू इस प्रत्योत्तर से निरुत्तर हो चुकी थी।अब बोलने की बारी रघु के बेटे सानू की थी,वह अपनी पत्नी की वेइज्जती वर्दाश्त नही कर पाया अतः वह शीघ्र बोला।आँटी आप तो मेहमान हैं ,.....  आपको मेहमानों की...... ही तरह ब्यबहार ....करना चाहिए।

'वाह  ! बेटा वाह ! ' क्या बात कही है।रघु तडफ़ कर बोला।कहानी का शेष भाग अंक 02 में पढ़ें।Written By H.K. JOSHI