डायरी - 06 अगस्त 2025
* बादल पानी कहां से लाते हैं *
एक बालक के लिए बचपन में सर्वस्व मां ही होती हैं। चोट लग गई,तो मां ने चोट पर फूंक मार दी,हो गया सबसे बड़ा इलाज,दर्द गायब।बुखार आ गया, मां ने माथे पर फूंक मार दी, थोड़ी ही देर में बुखार गायब।किसी सम वयस्क दोस्त ने दिल दुखा दिया,तो मां से शिकायत कर दी,विश्वास हो गया,लो अब तो शामत आ गई उस दोस्त की।कोई जिज्ञासा है, मां सभी का उत्तर जानती हैं; उनसे पूछ लिया, उन्होने बता दिया यानी अटल सत्य।
एक बार मेरे 5 वर्षीय दौहित्र ने मुझसे कुछ पूछा।मैं उसको उसे समझाने लायक भाषा में बताने के लिए थोड़ी देर सोचने लगा।उसने कहा रहने दो नाना जी,मैं शाम को ममा से पूछ लूंगा।मेरी ममा सब जानती है।
मां के प्रति हर बालक का ऐसा ही विश्वास होता है, यह अन्यत्र दुर्लभ है।
मेरे साथ भी यही बात थी।आज 74 वर्ष की उम्र में स्मरण आ रहा है,जब मैं पांचेक बरस का रहा होऊंगा तब मैने बरसात के दिनों में अम्मा से एक प्रश्न पूछा था कि बादल पानी कहां से लाते हैं।आप भी हँस रहे होंगे और सच में मुझे भी हँसी आ रही है कि आज इस उम्र के लगभग सभी बच्चे इस प्रश्न का वैज्ञानिक उत्तर भलीभांति जानते है;मैं क्यों नहीं जानता था।
मेरी अम्मा कोई वैज्ञानिक,भूगोल वेत्ता या मौसम विज्ञानी तो थीं नहीं,स्कूली शिक्षा भी ग्रहण नहीं की थी उन्होंने पर उन्हें ज्ञान था,समझ थी और सबसे बड़ी बात मेरी मां थीं,इसलिए मेरे लिए वह सब कुछ जानती थीं।उन्होंने निसंकोच,सहज भाव से विस्तृत उत्तर दिया- "सूरज भगवान की अज्ञा से बदरा समुन्दर से पानी भर ले आउत है उर खूब ऊपर जायकें इंद्र देवता की अग्या सें पानी बरसाय देत हैं।"अम्मा की कोई बात असत्य नहीं होती सो मैंने मान लिया कि बदरा उड़ कर समुद्र के किनारे जाते होंगे और जैसे हम लौटे या बाल्टी में तालाब या नदी से जल भरते हैं,उसी तरह बदरा समुद्र से अपनी झोली में पानी भर लेते होंगे।मैं,हम लोग बादल तो अक्सर देखते ही थे ।यह भी अंदाज लगाते थे कि वे आसमान में इधर उधर उड़ते फिरते हैं।यह भी निश्चय होता था कि धवल बादल लगभग खाली होते हैं जबकि भूरे,गहरे भूरे बादल पानी भरे हुए होते हैं।सूरज दादा को तो रोज देखते थे पर आज अम्मा से दो नए अज्ञात किरदारों की जानकारी हुई - एक समुद्र दो इंद्र देव।
मेरे और अम्मा के इस संवाद के लगभग एक माह बाद आई दीवाली।दीपक जलाए,पूजा हुई,पटाखे फोड़े और सुस्वादु व्यंजन खाए।इस पूजा में आज कुछ कुछ समझने लायक ज्ञान हुआ लक्ष्मी जी,गणेश जी और सरस्वती जी का।... पटाखों का कार्यक्रम तो देर तक चला पर अम्मा का कहना मान के हम(मैं)जल्दी सो गए।
अगले दिन जब मैं सोकर उठा तो देखा कि लिपे - पुते आंगन में गोबर का छोटा सा ढेर लगा हुआ है।अम्मा बहुत व्यस्त थीं,नहीं पूछ पाया कि आंगन में यह गोबर क्यों रखा है।
अभी मैं आंगन में ही था कि थोड़ी ही देर में अम्मा और छोटी काकी नहा कर आ गईं।दोनों ने गोबर का एक चबूतरा जैसा बनाया।उस पर एक पहाड़ बनाया।कुछ छोटी बड़ी गायें बनाई,एक नदी बनाई और न जाने क्या क्या।मैं आँखें फाड़ फाड़ कर सब देखता रहा।अम्मा से या काकी से कुछ पूछने की कोशिश करता तो नसीहत भरा उत्तर मिलता - "रुक जा, पहलें गोधन तौ पसर जान दे।"मैं दम साध कर बैठ जाता।
अम्मा,काकी के गोधन पसर गए।दोनों मुझे बिना कुछ बताए चली भी गईं।उदास मैं भी बाहर की तरफ जाने लगा ,तभी देखा कि अम्मा और काकी पसरौट पर बैठ कर अपने हाथ धो रही हैं।उन्होंने पहले पानी से हाथ धोए,फिर खोटे से(नदी की जलोढ मिट्टी से)और अंत में बेसन(चने की दाल का आटा)से।इसके पश्चात पूरे हाथों में सरसों का तेल चुपड़ा ।(बड़े होने पर यह समझ में आया कि गोबर की गंध हटाने और हाथों को जीवाणु व कीटाणु रहित करने के लिए उन्होंने ऐसा किया था।उनका तो हर साल का अनुभव जो था।)नमन उस समय के ऐसे अद्भुत ज्ञान को।
शाम को अम्मा जब उन गोधन महाराज की खाली पड़ी नदी में मांड़ (चावल का उबला पानी)प्रवाहित आईं तो मैं उनके पैरों में लिपट गया - "भली अम्मा,यह बता दो कि यह क्या बना है?"
अम्मा बड़े चाव से एक एक चीज बता रही हैं और मैं बड़ी लगन से सुन रहा हूँ - " देख , ज तौ है बिरिज की धरती(चबूतरा) और जे हैं गिर्राज महाराज (पहाड़)और जे बह रही हैं जमुना(माड़ वाली नदी)मैया। जे गैयाँ हैं, जे ग्वाल,बाल। जे जो छोटी-छोटी पुतरियां, बैलन की जोड़ी के संगें हल चलाउत भउ किसान, चकिया चलाउत भई और खाना बनाउत भई फिर खेतन पै कलेऊ ले जात भई जनी ,खेलत कूदत भये लरका बच्चा बने हैं न, जे हम,तुम सब हैं।...जे किसिन कन्हैया हैं एक हाथ में वंशी लहैं हैं। ज कोने में इंद्र भगवान बने हैं।एक बेर(बार)इंद्र देवता कुपित हुइ गए ,सो उन्होंने खिसियाय कें बृज में मुसलाधार बर्षा कर दई , सिब जने बहुत डिराय गए ।तब किसिन भगवान ने अपई छिनगुन उँगरिया पै पहाड़ उठाय लओ उर सिबसें कही कि जई के नीचे आय जाउ सिब जने। ऐसें भगवन जी ने सिबकी रच्छा करी। तभई से ज पहाड़ गिर्राज भगवान की जा पूजा होत है।आज संजा के दद्दा के संगे तुम्हऊ पूजा करियो।"
गोवर्धन पूजा के इस रूप में क्षेत्र के अनुसार थोड़ा बहुत फेर - बदल भी मिलता है।
इस प्रकार इस गोवर्धन पूजा के माध्यम से जाने अनजाने में अम्मा ने मुझे दो और भी देवों का परिचय करा दिया - एक गिरिराज महाराज दो योगीराज कृष्ण।
अम्मा ने जब बताया था कि बादल समुद्र से पानी लाकर बरसाते हैं।उसी समय एक बात और बताई थी।क्रम बनाए रखने के लिए वहां उसका जिक्र नहीं किया था।अम्मा ने बताया था कि आज कल कभी ज्यादा पानी बरसता है जिससे अपने खेत की मेड़ें फूट जाती हैं,तो कभी कभी बहुत कम बरसता है जिससे सूखा पड़ जाता है।पहले ऐसा नहीं था।" पहलें आसमान बहुत नीचो हतौ।गांव के बूढ़े डुकरा , डुकरियां अपने अपने दुआरें बैठ के भगवान जी से बातें करत रहात ते। सो जरूरत परत ती तब वे भगवान जी से कह कैं पानी बरसवाय लेत ते।आसमान पै बदरा खूब नीचे इतै,उतै दौरत रहात ते।सो जब कबहूँ भगवान जी बदरन से ढक जात ते या जब भगवान जी कहूं इतै,उतै चले जात ते तौ डुकरा , डुकरियां खुदई बांस से बदरन में टुक्का करकें पानी बरसाय लेत ते।"
अम्मा ने यह भी बताया था कि आसमान में दाएं तरफ स्वर्ग है और बाएं तरफ नरक है।संसार में जो लोग अच्छे काम करते हैं अंत समय में उनको भगवान जी के दूत(देवदूत)रथ पर बैठार कर स्वर्ग ले जाते है और जो लोग बुरे काम करते हैं,पाप करते हैं उन्हें जमराज जी के जम (दूत) भैंसा पर बांध कर नरक ले जाते हैं।क्या अम्मा की बातें निरी कल्पना,कपोल कल्पना थीं? नहीं,इनमें आज भी सच्चाई है ।
बादलों की बात लें तो, विज्ञान सम्मत तथ्य यह है कि "बादलों में पानी समुद्र, झील, तालाब और नदियों के पानी से ही आता है। सूरज की गर्मी से यह पानी वाष्पित होकर हवा में ऊपर उठता है, और फिर संघनित होकर बादल बनाता है।"अम्मा ने इसी तथ्य का मानवीकरण कर दिया।उनके बदरा सूरज जी के कहने पर समुन्दर (यहां समुद्र,झील नदियां )पर जाते हैं और अपनी झोली में पानी भर लाते है।
"आसमान नीचा था,वृद्ध लोग ईश्वर से बातें करते रहते थे" इस कथन में मुझे तो लगता है कि मनुष्य और ईश्वर के सामीप्य भाव का प्रकटीकरण है।"भक्ति के नौ प्रकार कहे गए हैं, जिन्हें नवधा भक्ति कहा जाता है।श्रीमद्भागवत में ये नौ प्रकार श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन के रूप में वर्णित हैं।" इसका आशय है कि अम्मा के कथन में भी सख्य भक्ति की बात है।ऐसी सख्य भक्ति जिसमें भक्ति के दो अन्य रूप - श्रवण और आत्म निवेदन भी उपस्थित हैं।
मां और बालक के ऐसे संवाद हमारी परम्पराओं, रीति- रिवाजों,आस्थाओं - मान्यताओं ,हमारे आचार - विचारों के सशक्त संवाहक हैं।इन्हीं से हमारी संस्कृति नवीन को भी आत्मसात कर सतत प्रवाहिनी बनी रहती हैं।
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