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अध्याय 3 – पहला सुराग
सुबह का मौसम ताज़गी भरा था, लेकिन आरव के चेहरे पर थकान साफ़ दिख रही थी। पिछली रात की धमकी उसकी सोच पर भारी थी। वह जानता था कि यह मामला साधारण हत्या नहीं है। किसी बड़ी ताकत ने उसे चुप कराने की कोशिश की है, और अब पीछे हटना उसके लिए संभव नहीं था।
आरव ने दफ़्तर जाने की बजाय सीधे पुराने बाज़ार की ओर रुख़ किया। वही जगह, जहाँ हत्या हुई थी। उसकी नज़र उस गली की दीवारों पर घूमी—मिट्टी के धब्बे, खून के निशान और लोगों की जिज्ञासु निगाहें। पुलिस की पीली पट्टी अब हट चुकी थी, लेकिन उस जगह की खामोशी अब भी दहशत पैदा कर रही थी।
गली में घूमते-घूमते उसकी नज़र एक छोटी सी दुकान पर पड़ी। “काका पान भंडार”—पुरानी तख्ती पर लिखा हुआ नाम। आरव ने अंदर जाकर बूढ़े दुकानदार से पूछा –
“काका, कल रात यहाँ कुछ देखा आपने?”
काका ने घबराकर इधर-उधर देखा और धीरे से बोला –
“बेटा, मैंने कुछ नहीं देखा। बस इतनी आवाज़ सुनी कि कोई भाग रहा था… फिर अचानक धड़ाम की आवाज़ आई। उसके बाद तो पुलिस ही आ गई।”
आरव ने सोचा, शायद यह बूढ़ा ज़्यादा बताना नहीं चाहता। उसने ध्यान से आस-पास नज़र डाली। तभी उसकी नज़र गली के कोने पर पड़े एक छोटे से कांच के टुकड़े पर पड़ी। उसने उठाया—वह किसी चश्मे का हिस्सा लग रहा था।
“क्या यह हत्यारे का हो सकता है?” – उसने मन ही मन सोचा।
आरव ने टुकड़े को सावधानी से जेब में रख लिया।
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उसी समय उसका फोन बजा। कॉल रजत का था।
“कहाँ है तू? दफ्तर में सब तुझसे रिपोर्ट मांग रहे हैं।”
आरव ने कहा –
“रिपोर्ट बाद में दूँगा। पहले मुझे कुछ और खोजना है।”
रजत ने हँसते हुए कहा –
“तेरे यही एडवेंचर एक दिन तुझे मुश्किल में डाल देंगे।”
आरव ने कॉल काट दिया। उसे अंदाज़ा था कि उसका दोस्त उसे समझ नहीं पाएगा।
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आरव ने अगला कदम पुलिस थाने की ओर बढ़ाया। वहाँ उसने कांस्टेबल से उस डायरी के बारे में पूछने की कोशिश की। लेकिन इस बार उसे जवाब मिला –
“देख भाई, अब ज़्यादा मत कुरेद। ऊपर से सख्त हिदायत है कि केस की कोई भी जानकारी बाहर न जाए। समझा?”
आरव ने महसूस किया कि पुलिस खुद दबाव में है। मगर सच ढूँढने का उसका इरादा और पक्का हो गया।
वह बाहर निकला और अपने लैपटॉप पर पुराने रिकॉर्ड्स खंगालने लगा। हत्या से जुड़े की-वर्ड्स, “सिद्धार्थ” नाम, और पिछले पाँच सालों के राजनीतिक स्कैंडल्स।
अचानक उसे एक खबर मिली—“सिद्धार्थ वर्मा: रहस्यमयी कारोबारी”।
यह नाम पढ़ते ही उसका दिल तेज़ धड़कने लगा।
सिद्धार्थ वर्मा एक बिज़नेसमैन था, जिसने कुछ साल पहले अचानक ही खूब दौलत कमा ली थी। लेकिन उसके बारे में अफवाहें थीं कि वह ग़लत धंधों से जुड़ा है—जमीन की डील, हथियारों की सप्लाई और राजनीतिक फंडिंग तक।
लेकिन अजीब बात यह थी कि पिछले दो साल से उसका कोई अता-पता नहीं था। मीडिया ने धीरे-धीरे उसका नाम लेना भी बंद कर दिया।
“क्या हत्या में उसका हाथ है? या ये हत्या उसी से जुड़ी चेतावनी है?” – आरव ने सोचा।
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शाम को जब वह घर लौटा, तो उसके कमरे का दरवाज़ा हल्का सा खुला मिला। उसका दिल जोर से धड़का। उसने धीरे से दरवाज़ा खोला—कमरे का सारा सामान बिखरा पड़ा था। अलमारी खुली हुई थी, किताबें ज़मीन पर पड़ी थीं, और उसका लैपटॉप चालू हालत में पड़ा था।
आरव समझ गया कि कोई उसकी तलाश में आया था।
लेकिन सबसे चौंकाने वाली बात यह थी कि उसकी जेब से गायब कांच का टुकड़ा अब टेबल पर रखा था।
किसी ने कमरे की तलाशी ली, और फिर यह टुकड़ा वापस वहीं छोड़ दिया।
इसके साथ ही एक कागज़ भी रखा था, जिस पर लिखा था –
“तू जितना सच के करीब जाएगा, उतना मौत भी करीब आएगी।”
आरव ने कागज़ को हाथ में लेकर पढ़ा और उसकी आँखों में दृढ़ता आ गई।
“अब चाहे जो हो, मैं इस खेल का सच जानकर रहूँगा।”
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उस रात उसने अपना मोबाइल बंद कर दिया और कागज़ के टुकड़े को गौर से देखा। उसके किनारे पर छोटे-छोटे अक्षरों में “VisionCraft – Made in Germany” लिखा था।
“मतलब यह कोई साधारण चश्मा नहीं था। शायद महँगा और खास डिजाइन का। यानी हत्यारा साधारण इंसान नहीं… कोई बड़ा खिलाड़ी है।”
आरव की आँखों में चमक आ गई।
यह था उसका पहला असली सुराग।
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