Premanand Ji - 1 in Hindi Biography by mood Writer books and stories PDF | प्रेमानंद जी : राधा-कृष्ण लीला के रसिक साधक - 1

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प्रेमानंद जी : राधा-कृष्ण लीला के रसिक साधक - 1


भाग 1 : प्रारम्भिक जीवन और आध्यात्मिक झुकाव

वृंदावन की पावन गंध, राधे-राधे की गूँज और कृष्ण नाम की रसधारा… इन्हीं भावों के बीच प्रेमानंद जी महाराज का जीवन आरंभ हुआ। उनका जन्म सामान्य परिवार में हुआ, लेकिन यह सामान्यता केवल बाहरी थी। भीतर से उनका व्यक्तित्व जैसे किसी विशेष उद्देश्य के लिए गढ़ा गया हो। बहुत छोटी आयु से ही उनके मुख पर भक्ति का तेज और आँखों में कृष्ण प्रेम की झलक देखी जा सकती थी।

1. बचपन का वात्सल्य और धार्मिक संस्कार

प्रेमानंद जी का जन्म उस समय हुआ जब घर-घर में धार्मिकता अभी भी संस्कृति का हिस्सा थी। उनका परिवार साधारण होते हुए भी गहराई से धर्मपरायण था। घर के बड़े-बुजुर्ग प्रातःकालीन पूजा-पाठ, संध्या-दीप और नाम-स्मरण को जीवन का अभिन्न अंग मानते थे। जब छोटे-छोटे बच्चों को कहानियाँ सुनाई जातीं, तो अन्य बच्चे जहाँ वीर-योद्धाओं या राजाओं की कहानियों में रुचि लेते, वहीं बालक प्रेमानंद की आँखें केवल कृष्ण-लीला सुनते समय चमक उठतीं।

उनकी दादी उन्हें सोने से पहले श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की कथा, कंस वध और गोवर्धन पूजा की कहानियाँ सुनाती थीं। छोटी आयु का वह बालक जब इन कथाओं को सुनता, तो मानो पूरी लीला को अपनी आँखों के सामने घटित होते देखता। उसकी मासूम आँखों में कभी गोपालनंदन कान्हा की मुस्कान तैरती, तो कभी राधा जी का माधुर्य।

2. खेलों से अधिक भजन की लगन

जब गली-मोहल्ले के बच्चे गेंद खेलते, कबड्डी में शोर मचाते, तब प्रेमानंद जी का हृदय कहीं और खिंच जाता। उन्हें खेल में आनंद नहीं आता, बल्कि हरियाली के बीच बैठकर “राधे-राधे” गुनगुनाना प्रिय लगता। मित्र उनसे पूछते—
“तू हमारे साथ क्यों नहीं खेलता?”

और बालक मुस्कुरा कर कहता—
“मुझे तो कृष्ण की बांसुरी की धुन सुननी है, तुम्हारे खेल में मन नहीं लगता।”

उसकी यह बातें बच्चों को चौंकातीं, पर उसके हृदय की तृप्ति केवल नाम-जप में थी।

3. पहला आत्मिक स्पर्श

कहा जाता है कि छोटी आयु में ही उन्हें पहला दिव्य अनुभव हुआ। एक दिन गाँव के मंदिर में जन्माष्टमी का आयोजन था। रात बारह बजे नंदोत्सव का दृश्य देखते ही उनकी आँखें नम हो गईं। वे बाल स्वर में लगातार बोलते रहे –
“राधे-राधे… राधे-राधे…”

वहाँ उपस्थित एक वृद्ध संत ने उनके सिर पर हाथ रखकर कहा—
“बेटा, तेरे मुख से यह नाम ऐसे झरता है जैसे झरने से जल बहता है। तू जन्म से ही राधा-कृष्ण का दास है।”

उस दिन से बालक प्रेमानंद का हृदय और भी गहराई से भक्ति की ओर झुक गया।

4. परिवार और गाँव का प्रभाव

उनके गाँव में भजन-कीर्तन का माहौल प्रबल था। मंदिरों में नियमित संकीर्तन होते। बालक प्रेमानंद घंटों खड़े होकर भजन सुनते रहते।
लोग उन्हें देखकर कहते—
“यह बच्चा साधारण नहीं है, इसे तो भगवान ने भक्ति फैलाने के लिए भेजा है।”

गाँव की औरतें जब तुलसी चौरा पर दीप जलातीं और ‘राधे-राधे’ गातीं, तो बालक उनके पीछे-पीछे भक्ति-भाव से गुनगुनाता। यह उसकी आत्मा का स्वभाव बन गया था।

5. भीतरी परिवर्तन

धीरे-धीरे उम्र बढ़ती गई, लेकिन मन की सरलता और भक्ति की गहराई भी साथ बढ़ती गई। जहाँ अन्य किशोर सांसारिक सपनों में उलझे रहते, वहीं प्रेमानंद जी का मन कृष्ण-प्रेम में तैरता। उन्हें पुस्तकों से अधिक ग्रंथ, भागवत कथा और संतों की वाणी प्रिय थी।

उन्होंने पहली बार भागवत कथा सुनी तो उनकी आत्मा जैसे जाग उठी। कथा का हर श्लोक, हर प्रसंग उन्हें भीतर तक भिगो देता। कथा पूरी होने के बाद भी वे कई दिनों तक उसी रस में डूबे रहते।

6. साधना की ओर पहला कदम

किशोर अवस्था में उन्होंने अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण संकल्प लिया – “नाम-स्मरण ही मेरा मार्ग है।”
वे प्रातः सूर्योदय से पहले उठते और घर के आँगन में बैठकर “राधे-राधे” का जप करते। धीरे-धीरे उनका यह नियम इतना दृढ़ हो गया कि दिनभर उनके होंठों पर केवल एक ही नाम रहता – राधे-राधे।

गाँव के लोग कहते—
“देखो, यह बालक साधु हो जाएगा। इसके मुख पर जो नाम है, वही इसका जीवन है।”

7. संतों का सान्निध्य

समय बीता और उन्हें गाँव में आने वाले संतों का सान्निध्य मिलने लगा। एक संत ने उनसे कहा—
“बेटा, जब-जब नाम की गूँज किसी के भीतर से उठती है, तो समझ लो भगवान स्वयं वहाँ बस गए।”

यह वचन सुनकर उनके मन में और भी दृढ़ता आ गई। अब उनके जीवन का एक ही ध्येय था – नाम का प्रचार, भक्ति का प्रसार और राधा-कृष्ण की सेवा।

इस प्रकार बाल्यकाल से ही प्रेमानंद जी का जीवन साधना की दिशा में बढ़ता गया। उनके लिए भक्ति कोई बाहरी अभ्यास नहीं थी, बल्कि जन्मजात स्वभाव था। लोग उन्हें देखते और कहते—
“यह बालक साधारण नहीं, राधे-राधे नाम का जीवित स्वरूप है।”