"जब इम्तिहान भी रिश्तों की नींव को मज़बूत करते हैं...."
कुछ रिश्ते वक़्त मांगते हैं,
कुछ रिश्ते सब्र….
और कुछ रिश्ते -- इम्तिहान।
अनंत और शानवी का रिश्ता
अब एक ऐसी ही परीक्षा के दौर से गुजर रहा था,
जहां दोनों एक-दूसरे के बेहद करीब थे,
पर फिर भी….
कुछ अधूरा था।
उस रात की बात है....
शानवी ने कहा --
“अनंत, क्या तुम्हें कभी डर नहीं लगता?
कि हम इतने अलग हैं,
हमारी ज़िंदगियाँ दो कोनों से शुरू हुई हैं,
और कोई गारंटी नहीं कि ये एक ही दिशा में चलेंगी.…”
मैं चुप रहा कुछ देर।
फिर जवाब दिया --
“डर तो है, शानवी।
लेकिन उस डर से कहीं ज़्यादा
मुझे तुम्हारे साथ होने की उम्मीद है।”
शानवी के लिए ये सफर आसान नहीं था।
वो एक जिम्मेदार बेटी थी,
एक मध्यमवर्गीय परिवार से,
जहां सपनों को अक्सर “व्यावहारिकता” की दीवारों में बंद कर दिया जाता है।
उसके पापा की तबीयत अब भी स्थिर नहीं थी।
घर की आर्थिक स्थिति भी डगमगाने लगी थी।
वो खुद को मजबूत दिखाने की कोशिश करती थी,
लेकिन मैं उसकी आंखों में
कभी-कभी टूटे सपनों की परछाईं देखता था।
एक दिन उसने कहा --..
“अनंत…. क्या होगा अगर मैं कभी लिखना ही छोड़ दूं?
क्या तब भी तुम मेरे साथ रहोगे?”
मैंने बिना सोचे लिखा --
“अगर तुम एक शब्द भी न लिखो,
तब भी मैं तुम्हारे पास रहूंगा….
क्योंकि मेरा रिश्ता तुम्हारे शब्दों से नहीं -- तुमसे है।”
लेकिन जिंदगी सिर्फ जज़्बात से नहीं चलती।
और हमें इसका सामना जल्द ही करना पड़ा।
एक दिन….
शानवी का कॉल आया --
कांपती आवाज़ में बोली --
“अनंत…. शायद अब हमें कम बात करनी चाहिए।”
मैं सन्न रह गया।
आवाज़ में जो डर था, वो सिर्फ मेरा नहीं था -- उसका भी था।
“क्यों?” मैंने पूछा।
“क्योंकि.…”
वो रुकी, फिर बोली --
“मेरे घर में अब मेरी शादी की बातें हो रही हैं।
मुझे नहीं पता मैं क्या करूं।
मैं किसी से लड़ नहीं सकती….
मैं तुम्हारे लिए सब कुछ छोड़ नहीं सकती….”
उस पल, मेरी पूरी दुनिया थम गई।
लेकिन मैंने खुद को मजबूत किया।
“शानवी.… अगर तुम चाहो,
तो मैं तुम्हारे घरवालों से बात कर सकता हूं।
शायद उन्हें समझा सकूं कि
जो रिश्ता हमने बनाया है,
वो किसी भी रिश्ते से कम नहीं.…”
उसने कहा --
“नहीं अनंत, अभी नहीं।
मैं खुद बहुत उलझी हूं…
प्लीज़ मुझे थोड़ा वक्त दो.…”
वो “थोड़ा वक्त” एक महीना बन गया।
हमारी बातें रुक गईं।
उसका स्टेटस बदल गया -- “Offline”
उसकी कविताएं, उसकी तस्वीरें…. सब जैसे किसी गहरे अंधेरे में डूब गईं।
मैं इंतज़ार करता रहा।
हर सुबह उठकर मोबाइल देखता,
हर रात फिर वही खामोशी ओढ़ कर सो जाता।
फिर एक दिन….
एक अनजान नंबर से वॉइस कॉल आई।
मैंने उठाया --
और उधर से वही जानी-पहचानी आवाज़….
“अनंत….”
वो रो रही थी।
“मैं नहीं लड़ सकी.… मेरी सगाई हो गई है।”
मेरे होंठ सिले रहे।
वो कहती रही --
“मैंने कोशिश की थी….
लेकिन मम्मी-पापा ने कहा --
‘एक लेखक? एक कवि? एक प्रकाशक? क्या करेगा ज़िंदगी में?’
मैं हार गई, अनंत….”
उस दिन मैंने पहली बार कुछ नहीं कहा।
बस उसकी सांसों की टूटन को सुना।
और फिर बस इतना बोला --
“तुम हार नहीं गई हो, शानवी….
तुम सिर्फ उस दुनिया की कैदी बन गई हो
जिसने हमें कभी समझा ही नहीं।”
उसके बाद.… मैंने लिखा --
"तेरे बिना अब भी जी रहा हूं,
क्योंकि तुझे खोना नहीं है..
मैं मोहब्बत हूं, मुनाफा नहीं,
जो हालातों से समझौता कर लूं।"
आज भी.....
मेरी डायरी उसी नाम से शुरू होती है -- “शानवी”
और आख़िरी लाइन भी उसी से खत्म होती है।
मैं नहीं जानता
वो कभी लौटेगी या नहीं।
शायद लौटे, शायद न लौटे।
पर मैं जानता हूं….
ये प्रेम अधूरा होकर भी पूरा है।
क्योंकि मैं उससे जुड़ा हूं --
बिना किसी शर्त, बिना किसी उम्मीद के।
दोस्तों…. ये इम्तिहान था --
जिसने मेरे प्यार को हार नहीं दी,
बल्कि उसे एक नई ऊंचाई दी।
बस इतना ही कहूंगा दोस्तों कि अगर किसी से प्यार करना तो उसके लिए लड़ना, उसे पाने के लिए दिन रात मेहनत करके एक कामयाब इंसान बनना।
मेरा प्यार ग़रीबी और लाचारी की भेंट चढ़ गया, मै उसके लिए लड़ नहीं पाया और उसे खो दिया, अब मेरे साथ दर्द और ग़म हमेशा साथ चलते हैं।
सिर्फ एक ही ख़्याल आता हैं कि वो कैसी होगी, खुश तो होगी, मुझे भूल तो नहीं गई होगी।
काश मैं उसे अपना बना पाता, काश .....
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