संध्या का धुंधलका फैल चुका था। गाँव की संकरी गलियों में पीली रोशनी वाली टिमटिमाती लाइटें अजीब-सी खामोशी बिखेर रही थीं। आर्या अपनी किताबों में डूबी बैठी थी, मगर मन कहीं और भटक रहा था। दिल के किसी कोने में एक अनकही हलचल उसे बेचैन कर रही थी।
आर्या का जीवन सरल था — कॉलेज, किताबें और अपने छोटे-से परिवार की जिम्मेदारियाँ। लेकिन कुछ हफ़्तों से वह महसूस कर रही थी कि कोई अनजानी निगाहें उसके पीछे-पीछे चलती हैं। जब भी वह कॉलेज से लौटती, ऐसा लगता जैसे कोई साया उसके आसपास मंडरा रहा हो।
एक शाम, जब हवा में हल्की ठंडक थी, आर्या ने महसूस किया कि कोई उसकी गली के मोड़ पर खड़ा है। उसने झट से मुड़कर देखा, पर वहाँ कोई नहीं था। दिल की धड़कन तेज़ हो गई। उसने खुद को समझाया, “शायद वहम है।”
लेकिन यह वहम नहीं था। उसी गली के अंधेरे कोने में कोई खड़ा था—रूद्र। वह कॉलेज का ही छात्र था, पर उसकी चुप्पी और गहरी आँखों में छिपा रहस्य किसी को समझ नहीं आता था।
रूद्र ने हमेशा आर्या को दूर से देखा था। उसे पता भी नहीं चला कि कब उसकी खामोश निगाहों ने आर्या के चेहरे की मासूमियत को अपने दिल में बसा लिया। वह सामने आकर कुछ कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। बस, साए की तरह उसके साथ चलता रहा।
आर्या की सहेली ने एक दिन मज़ाक में कहा, “लगता है कोई है जो तुझसे बहुत छुपकर प्यार करता है।” आर्या हँस तो दी, लेकिन उसके मन में कहीं यह बात चुभ गई। क्या सच में कोई है?
दिन बीतते गए। आर्या के दिल में अब एक अनजाना डर और जिज्ञासा साथ-साथ बढ़ने लगी। उसने तय किया कि अगर सच में कोई है, तो वह उस साए से सामना ज़रूर करेगी।
एक रात, जब आसमान पर बादल छाए थे और सड़कें लगभग सुनसान थीं, आर्या कॉलेज से लौट रही थी। जैसे ही वह मोड़ पर पहुँची, उसे वही साया महसूस हुआ। इस बार उसने साहस जुटाया और ज़ोर से कहा, “कौन है वहाँ? बाहर आओ!”
कुछ क्षण की खामोशी के बाद अंधेरे से एक आकृति बाहर आई। वह रूद्र था। आर्या की आँखें चौड़ी हो गईं।
“तुम?” उसने हैरानी से कहा।
रूद्र की नज़रें झुकी हुई थीं। आवाज़ धीमी और काँपती हुई, “हाँ… मैं हूँ। मुझे माफ़ करना आर्या… मैं हमेशा तुम्हें दूर से देखता रहा। यह गलत था, लेकिन… मैं अपने दिल की बात कह नहीं पाया।”
आर्या ने सख़्त लहजे में पूछा, “इसका मतलब? इतने दिनों से तुम मेरा पीछा कर रहे थे?”
रूद्र ने गहरी साँस ली, “हाँ… पर सिर्फ़ देखने तक। मैंने कभी कोई गलत इरादा नहीं रखा। बस… तुम्हें देखकर लगता था कि मेरी अधूरी ज़िंदगी को कोई रोशनी मिल गई है। लेकिन मैं इतना कायर हूँ कि सामने आकर कुछ कह नहीं सका।”
आर्या के दिल में गुस्सा और हैरानी दोनों थे, मगर रूद्र की आँखों में झलकती सच्चाई ने उसे चुप कर दिया। वह वहाँ से बिना कुछ कहे अपने घर चली गई।
उस रात आर्या को नींद नहीं आई। उसके मन में सवाल उठते रहे — “क्या वह सच कह रहा था? क्या उसकी खामोशी में वाकई प्यार छिपा था?”
अगले दिन कॉलेज में रूद्र नहीं आया। फिर दूसरा दिन भी बीत गया। आर्या को अजीब बेचैनी होने लगी। क्या वह सिर्फ़ डरकर दूर हो गया? या कहीं और चला गया?
तीसरे दिन, लाइब्रेरी में किताबें लौटाते हुए उसे अचानक किसी ने धीरे से पुकारा — “आर्या…”
वह मुड़ी। सामने रूद्र था। उसकी आँखों में इस बार झिझक कम और साहस ज्यादा था।
“मुझे तुमसे सिर्फ़ एक सच कहना है,” रूद्र ने धीमी आवाज़ में कहा, “मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि तुम्हें बता पाऊँगा। लेकिन कल रात तुम्हें देखकर लगा, छुपाना अब गुनाह होगा। आर्या… मैं तुमसे प्यार करता हूँ।”
आर्या कुछ पल चुप रही। उसकी आँखों में हल्की नमी थी। उसने धीरे से कहा, “तुम्हारा तरीका गलत था, लेकिन तुम्हारे शब्दों में सच्चाई है। शायद… प्यार सच में साए की तरह होता है — चुपचाप हमारे साथ चलता है, जब तक कि हम उसे पहचान न लें।”
रूद्र की आँखों में चमक आ गई। आर्या ने हल्की मुस्कान दी और आगे बढ़ गई। लेकिन इस बार उसके कदमों में कोई डर नहीं था… बल्कि दिल में एक अनजानी गर्माहट थी।