atmnirbhar in Hindi Motivational Stories by Deepak Bundela Arymoulik books and stories PDF | आत्मनिर्भर: एक व्यंग

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आत्मनिर्भर: एक व्यंग

आत्मनिर्भर : एक व्यंग्य

देश में आत्मनिर्भरता की हवा चल रही है। कोई कह रहा है अपने पैर पर खड़े हो जाओ, कोई कह रहा है ‘घर की मुर्गी दाल बराबर’ मत समझो और कोई बता रहा है कि अब विदेशी चीज़ों का मोह त्यागकर स्वदेशी अपनाओ।

लेकिन इस सबके बीच, आत्मनिर्भरता का सबसे मजेदार नमूना वे लोग हैं जो दिन-रात आत्मनिर्भरता का मजाक उड़ाने में ही आत्मनिर्भर हैं।

ये वही लोग हैं जिनकी सुबह माँ के हाथ की चाय से होती है और रात सरकारी टीवी पर मुफ्त की बहस देखकर ख़त्म होती है।

जिन्हें नौकरी नहीं करनी क्योंकि पापा की पेंशन है,

जिन्हें खेत में हल नहीं चलाना क्योंकि राशन कार्ड से गेहूँ-चावल मिलता है,

जिन्हें बिजली का बिल भरना नहीं क्योंकि “सब्सिडी” है,

और जिन्हें सोचना नहीं क्योंकि सरकार ने सोचने के लिए प्रवक्ता भेज रखे हैं।

इन महानुभावों का आत्मनिर्भरता पर व्याख्यान सुनना वैसा ही है जैसे कोई आदमी दूसरों को डायटिंग की सलाह दे और खुद रसगुल्ले से मुँह में कुल्ला कर रहा हो।

सच पूछिए तो ये लोग ‘आत्मनिर्भर’ शब्द के जीवित विरोधाभास हैं।

घर में बैठे-बैठे मोबाइल चार्जर तक माँ से माँगना पड़े, और फिर सोशल मीडिया पर लंबा चौड़ा पोस्ट लिख दिया जाए – “ये आत्मनिर्भरता केवल एक सपना है।”

असल में आत्मनिर्भरता इन लोगों के लिए कभी रही ही नहीं। इनके लिए आत्मनिर्भरता का मतलब है –

पढ़ाई – ट्यूशन वाले मास्टर जी पर निर्भर।

नौकरी – रिश्तेदारों की सिफारिश पर निर्भर।

घर चलाना – सरकारी स्कीम पर निर्भर।

ख्यालात – व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी पर निर्भर।

और जब बात आती है खुद के पैर पर खड़े होने की, तो ये लोग तुरंत सोफे पर पसर जाते हैं और कहते हैं – “अरे छोड़ो, ये सब दिखावा है।”

दरअसल, आत्मनिर्भर होना कठिन काम है।
उसके लिए मेहनत चाहिए, जिम्मेदारी चाहिए, और सबसे ज्यादा चाहिए आलस्य छोड़ने का साहस।
अब ये सब छोड़कर अगर केवल मजाक उड़ाना ही आत्मनिर्भरता है, तो निःसंदेह ये लोग इस कला में शत-प्रतिशत आत्मनिर्भर हैं।

आत्मनिर्भरता : एक बातचीत का व्यंग्य

दृश्य – दो दोस्त पार्क की बेंच पर बैठे हैं। एक के हाथ में चाय का कप है, दूसरा मोबाइल में व्यस्त है।

राकेश – (चाय का सिप लेते हुए) अरे यार सुरेश, ये आत्मनिर्भरता-वात्मनिर्भरता सब बकवास है। सरकार बस लोगों को बहलाने के लिए नारे देती रहती है।

सुरेश – अच्छा! और ये चाय तूने खुद बनाई है?

राकेश – (हँसकर) अरे नहीं-नहीं, माँ ने दी है। लेकिन इसमें आत्मनिर्भरता कहाँ आती है? माँ का काम ही है ये।

सुरेश – और कप धोने का काम?

राकेश – (झेंपते हुए) वो तो बर्तनवाली बाई करेगी।

सुरेश – हाहाहा! मतलब तू चाय पीने में आत्मनिर्भर है, बाकी सब दूसरों पर।

राकेश – अरे छोड़, आत्मनिर्भरता असल में होती ही नहीं। सोच, अगर सरकार मुफ्त राशन न दे तो गरीब लोग जी ही न पाएँ।

सुरेश – हाँ, और अगर तुझे पापा की पेंशन न मिले तो तेरा पेट्रोल कहाँ से आएगा?

राकेश – (थोड़ा झुंझलाकर) अरे वो तो अलग बात है। पापा ने जीवनभर नौकरी की है, तो अब पेंशन उनका हक़ है।

सुरेश – और तेरा मोबाइल?

राकेश – भैया ने दिला दिया था।

सुरेश – इंटरनेट?

राकेश – जियो का रिचार्ज पापा करवा देते हैं।

सुरेश – (जोर से हँसकर) वाह रे आत्मनिर्भर! चाय माँ से, कप बाई से, मोबाइल भैया से, इंटरनेट पापा से… और ज्ञान?

राकेश – (गर्व से) ज्ञान तो मुझे व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी से मुफ्त में मिलता है।

सुरेश – तो फिर भाई, तू तो आत्मनिर्भरता का ज्वलंत उदाहरण है।
तू खुद कुछ नहीं करता, सब तेरे लिए कोई न कोई कर देता है।

राकेश – (थोड़ा दार्शनिक अंदाज़ में) देख सुरेश, आत्मनिर्भरता केवल किताबों में अच्छी लगती है। असल जिंदगी में सबको किसी-न-किसी पर निर्भर रहना ही पड़ता है।

सुरेश – (मुस्कुराकर) बिल्कुल! फर्क बस इतना है कि कुछ लोग ज़रूरत में निर्भर होते हैं, और कुछ लोग आदत में। तू दूसरी वाली कैटेगरी में आता है।

राकेश – (आँखें तरेरते हुए) और तू बड़ा आत्मनिर्भर है क्या?

सुरेश – कोशिश करता हूँ। कम से कम अपनी चाय तो खुद बनाता हूँ। और कप भी खुद धोता हूँ।

राकेश – (हँसते हुए) अरे भाई, तुझे देखकर लगता है तू आत्मनिर्भरता में पीएचडी कर रहा है।

सुरेश – और तुझे देखकर लगता है कि आत्मनिर्भरता का मजाक उड़ाने में तू प्रोफेसर है।

राकेश – (खुश होकर) हाँ, इस मामले में मैं पूरी तरह आत्मनिर्भर हूँ। 

यही आत्मनिर्भरता के सत्य की तस्वीर हैं अधिकतर आज भी ऐसे युवा हैं जो इस मानसिकता में जी रहें हैं...

निष्कर्ष

कहने को हर कोई आत्मनिर्भरता का मजाक उड़ा सकता है,
लेकिन असली आत्मनिर्भर वही है,
जो कम-से-कम अपने जीवन की छोटी-छोटी जिम्मेदारियाँ खुद निभाता है।

बाकी जो हर चीज़ दूसरों पर छोड़कर “आत्मनिर्भरता फेल है” का नारा लगाते हैं,
वो बस आलस्य और आश्रित मानसिकता के आत्मनिर्भर उदाहरण हैं।

डिक्लेमर-
यह व्यंग्य केवल हँसी-मज़ाक और सोचने पर मजबूर करने के लिए लिखा गया है।
किसी भी पात्र से अगर आपको अपनी झलक दिख जाए तो कृपया लेखक को दोष न दें –
इसका मतलब है कि आपके भीतर भी व्यंग्य का थोड़ा-बहुत नमक मौजूद है।

इसमें कही गई बातें किसी खास व्यक्ति, संस्था या सरकार पर टिप्पणी नहीं हैं,
बल्कि हमारी रोज़मर्रा की आदतों पर हल्का-फुल्का कटाक्ष हैं।
अगर फिर भी किसी को बुरा लगे तो कृपया इसे “आत्मनिर्भर होकर” इग्नोर करें। 😄