गरीबी को हराने के बाद हर परिवार चाहता है कि उसके सदस्य एक अच्छी जिंदगी जिएं। परिवार का मुखिया वह सब जद्दोजहद करता है ताकि उसके बच्चे अच्छी शिक्षा, अच्छा भोजन और जीवन की हर वह सुविधा पा सकें, जिसके वे हकदार हैं।
ऐसी ही एक कहानी मैं अपने परिवार की बताने जा रहा हूं, जिसका एक हिस्सा मैं भी हूं। जरूरी नहीं कि परिवार का मुखिया हमेशा पुरुष ही हो, मेरी इस कहानी की मुख्य किरदार मेरी दादी मां हैं।
यह कहानी उस समय की है जब गांव-कस्बों की महिलाएं रोज़गार के लिए बाहर नहीं जाती थीं। उस दौर में कमाई का पूरा बोझ घर के पुरुषों पर ही होता था। मेरे दादा जी पेशे से एक शिक्षक थे। उनकी ख्याति गांव-गांव तक फैली हुई थी। मैंने अपने आंखों से उनका व्यक्तित्व देखा भी है और दादी मां से उनकी कई कहानियां सुनी हैं। उन्होंने बताया था कि उस समय जीवन कितना कठिन था। कई बार ऐसा होता था कि परिवार को दिन में तीन वक्त का खाना भी नसीब नहीं होता था।
इन्हीं परिस्थितियों में हमारे बड़े पापा का जन्म हुआ। घर में जब भी कोई बच्चा जन्म लेता था, पूरा परिवार खुशियों में डूब जाता था। धीरे-धीरे दादा-दादी के पाँच संतान हुए—तीन बेटे और दो बेटियां।
दादा जी के निरंतर प्रयासों और दादी मां के नेतृत्व से परिवार आगे बढ़ता रहा। समय के साथ परिवार की आर्थिक स्थिति सुधरी और हम लोग गांव के धनी परिवारों में गिने जाने लगे। सभी चाचाओं और बुआओं की शादियाँ हुईं और परिवार में खुशहाली आने लगी।
परिवार में अक्सर सबसे बड़े बेटे को ज्यादा सम्मान और जिम्मेदारी दी जाती है। माना जाता है कि वही घर की उन्नति में सहयोग करेगा। लेकिन हमारे मामले में ऐसा नहीं हुआ। बड़े पापा भावनात्मक रूप से स्वार्थी निकले। उनकी पुलिस की नौकरी पक्की हो चुकी थी, फिर भी उन्होंने परिवार की जिम्मेदारियों में कोई खास सहयोग नहीं दिया। एक समय ऐसा आया जब परिवार को कुछ संकट का सामना करना पड़ा। उस वक्त उन्होंने पत्नी और बच्चों के साथ घर छोड़कर किसी सुरक्षित स्थान पर अपना जीवन बिताना शुरू कर दिया। परिवार के नाम पर वे केवल अपनी पत्नी और बच्चों तक ही सीमित रह गए। कहते हैं न—आप परिवार को छोड़ सकते हैं, पर परिवार आपको कभी नहीं छोड़ता—यही स्थिति वर्षों तक चलती रही।
बीच वाले चाचा विचारों से अच्छे इंसान थे। वे चाहते थे कि परिवार सही तरीके से चले, लेकिन शराब की लत ने उनका सम्मान और प्रभाव दोनों खत्म कर दिया। उनकी कई बातें मुझे भी सही लगती थीं, लेकिन परिवार के लोग उन्हें गंभीरता से नहीं लेते थे।
मेरे पिता जी परिवार के सबसे छोटे बेटे हैं और मैं उनका सबसे छोटा बेटा। कहते हैं न—छोटे बेटे के हिस्से में मां आती है।
समय के साथ परिवार में बिखराव शुरू हो गया। तीनों भाइयों के बीच का प्रेम खो गया। सबने अपनी-अपनी पत्नियों और बच्चों को ही परिवार मान लिया। ऐसे हालात में सबसे ज्यादा मुश्किल में बूढ़े मां-बाप फंस जाते हैं।
शुरुआत में दादा-दादी की देखभाल की जिम्मेदारी बड़े पापा की पत्नी को दी गई, लेकिन वह इसे निभा न सकीं। दादी मां ने उनके साथ रहना अस्वीकार कर दिया। मजबूरी में उन्होंने अपनी बूढ़ी हालत में खुद और दादाजी के लिए भोजन की व्यवस्था करनी शुरू की।
अगर इंसान का जमीर जिंदा है तो वह किसी पशु को भी कष्ट में नहीं देख सकता, फिर यहां तो बात मेरे दादा-दादी की थी।
मेरे पिता स्वभाव से अत्यंत विनम्र हैं और मेरी मां दृढ़ निश्चयी। उन्होंने यह प्रतिज्ञा ली कि आजीवन वे अपने माता-पिता की सेवा करेंगे। पिछले 20 वर्षों से उन्होंने इस वचन को निभाया है और कभी उनका साथ नहीं छोड़ा। इसी दौरान दादाजी का देहांत हो गया।
आज मेरी दादी मां जीवित हैं, लेकिन अपनी चेतना खो चुकी हैं। अब वे परिवार के किसी सदस्य को पहचानती नहीं। केवल एक आवाज उन्हें संतोष देती है—मेरी मां की आवाज। मैं यह सब इसलिए जानता हूं क्योंकि मैं दादी मां के बहुत करीब रहा हूं। आज भले ही वे मुझे पहचान न पाती हों, लेकिन जब भी मैं घर जाता हूं, उनके पास बैठकर समय बिताना मुझे सबसे अच्छा लगता है।
मैंने देखा है लोगों को अपनों से चेहरा छुपाते हुए—
यह उनकी नाकामयाबी को दर्शाता है शायद।
मैंने तो सीखा है कि अन्न के एक-एक दाने का कर्ज चुकाना पड़ता है,
तो फिर मैं उन्हें कैसे छोड़ दूं जो मेरी सृजनकर्ता हैं?
--- 🖋️रितिक