कच्ची मिट्टी की दीवारों, बाँस की टाटी और खपरैल की छत के नीचे एक छोटा सा घर था। बरसात की रातों में जब पानी की बूँदें छत पर गिरती थीं, तो लगता था जैसे थकान खुद आकर बैठ गई हो | उस घर के सामने एक पतली, संकरी पगडंडी थी, जो कहीं दूर नहीं जाती थी - - बस हर दिन खेतों की ओर लौट आती थी |
उसी रास्ते पर किशोर हर सुबह निकलता था — एक किसान। नहीं... दरअसल, वो एक पूरा भूगोल था। उसके पास कुल मिलाकर तीस डिसमिल ज़मीन थी और पाँच ज़िंदगियाँ, जिन्हें वह रोटी, छांव और भविष्य देने की कोशिश करता रहा |
किशोर की ज़िंदगी में "ऋण" कोई साधारण शब्द नहीं था, वह तो एक पूरी भाषा थी ..जिसमें हर सवाल का जवाब किसी दूसरे की मुहर में छिपा होता था। हर मौसम की शुरुआत एक ही चिंता से होती: बीज कहाँ से आएँगे? खाद किससे लूँ? और ब्याज... वह तो जैसे हर बरसात के बाद खर-पतवार की तरह खेतों में उग आता था - चुपचाप, मगर स्थायी |
हर सुबह किशोर की पत्नी सूखी रोटियाँ सेंकती, एक पुरानी धोती में बाँधती और किशोर उसे लेकर खेत की ओर निकल जाता |वह खेत जहाँ वह सिर्फ़ मेहनत नहीं, संभावनाएँ बोता था। उसकी एड़ियों में बिवाइयाँ नहीं, समय की परतें जमा थीं | हर जोत में वह एक सपना रोपता था - कि शायद अगली फसल चूल्हे की आँच लौटा लाए |
इस बार वह कुछ ज़्यादा ही गंभीर था, कम बोलता, ज़्यादा करता। पिछली बार की उधारी जो अब ब्याज के बोझ से दोगुनी हो चुकी थी, उसे हर हाल में चुकाना था |शाम को लौटते हुए कभी-कभी उसके चेहरे पर एक टूटी-सी मगर सच्ची मुस्कान आ जाती | एक शाम उसने पत्नी से कहा, “इस बार अच्छी फसल होगी।” उसकी आँखों में ईश्वर की एक अनगढ़-सी परछाई थी |
अगले दिन जब वह खेत पहुँचा और रोटियों की पोटली खोली, तो साथ में एक अजीब-सा यक़ीन भी खोला। उसे लगा - ईश्वर ज़रूर आएगा... इस बार आएगा |
लेकिन बारिश नहीं हुई। एक रात, फिर दूसरी... फिर सात, फिर दस | एक भी बूँद नहीं | उसकी प्रार्थनाएँ अब मंत्र नहीं रह गई थीं — माँग बन गई थीं | रात को वह रोटी का एक कोना अलग रख देता और कहता, “खा लेना प्रभु, पर इस बार कुछ कर देना |” लेकिन ईश्वर नहीं आया | और जब सारी फसल झुलस गई, तो किशोर ने भी खेत जाना बंद कर दिया। अब वह घर के बाहर चुप्पी ओढ़कर बैठा रहता - जैसे कोई तारीख़ अपने नाम के आगे 'अंत' जोड़ चुकी हो |
और फिर वही हुआ, जो हर बार एक किसान के साथ होता है... सामूहिक मौन। सुबह कुछ लोग ब्याज लेने आए। दरवाज़ा खोला, तो पाँच लाशें पड़ी थीं |
गाँव के चौराहे पर भीड़ जुटी। समाचार चैनलों की बड़ी-बड़ी हेडलाइनों में सिर्फ एक शब्द उछल रहा था — “आत्महत्या” |किसी ने संवेदना जताई, किसी ने ट्विटर पर ट्रेंड चलाया...#JusticeForFarmer। और किसी ने चाय की चुस्की लेते हुए उसे “कमज़ोर” कह दिया |
लेकिन किसी को नहीं पता चला कि उस मौत का असली कारण क्या था - सिवाय उस रस्सी के, जो अब भी झूल रही थी, गवाह की तरह।
उस रस्सी को मालूम था कि किशोर के जबड़े में फँसा रह गया था...
दो मन गेहूँ जितना ब्याज