कुछ साल पहले मैंने कैदियों को नज़रिया और आत्मसम्मान विकसित करने के तरीके सिखाने का एक कार्यक्रम चला रहा था। उस दौरान मैंने कुछ हफ्तों में ही इतना कुछ सीखा, जितना कि मैं सालों में नहीं सीख सका था। दो सप्ताह तक मेरे कार्यक्रम में भाग लेने के बाद एक कैदी ने मुझे रोक कर कहा, "शिव, मैं कुछ ही हफ्तों में जेल से रिहा होने वाला हूँ।” मैंने उससे पूछा कि उसने "नज़रिया बनाओ कार्यक्रम" से क्या सीखा? वह कुछ देर सोचता रहा। उसके बाद उसने कहा कि वह अब अपने बारे में अच्छा महसूस कर रहा है। मैंने कहा, "मेरे लिए इस 'अच्छा शब्द का कोई मायने नहीं है। मुझे यह बतलाओ कि तुम्हारे व्यवहार में खास बदलाव क्या आया है?" दरअसल मेरा मानना है कि यदि सीखने वाले के व्यवहार में बदलाव न आए, तो यह नहीं माना जा सकता कि उसने वास्तव में सीखा है। उस कैदी ने मुझसे कहा कि अब वह हर रोजबाइबिल (Bible) पढ़ता है। तब मैंने उससे पूछा कि बाइबिल पढ़ने का उस पर क्या असर पड़ा है? उसने जवाब दिया कि अब वह खुदको खुद अपने साथ, और दूसरों के साथ बेहतर महसूस करता है। ऐसा उसने पहले कभी महसूस नहीं किया था। मैंने उससे कहा, "यह तो ठीक बात है, लेकिन सबसे जरूरी यह है कि जेल से छूटने के बाद तुम क्या करोगे?” उसने मुझसे कहा कि वह समाज का एक जिम्मेदार सदस्य बनने की कोशिश करेगा।" मैंने अपना सवाल दुहराया, ती उसने फिर वही जवाब दिया। मैंने उससे एक बार फिर पूछा, "जेल से छूटनेके बाद तुम क्या करोगे?" जाहिर सी बात हैकि मैं किसी अलग जवाब की उम्मीद कर रहा था। लेकिन इस बारउसने गुस्से से भरी हुई आवाज़ में जवाब दिया, "मैं समाज का एक जिम्मेदार सदस्य बनूँगा।" तब मैंने उसे बताया कि उसके पहले
के जवाब, और इस बार के जवाब में एक शब्द का अंतर था। पहले उसने कहा था, मैं... बनने की कोशिश करूँगा, पर इस बार उसने कहा है कि "मैं बनूँगा।" इन दोनों जवाबों में 'कोशिश शब्द का फर्क था। हम कोई काम करते हैं, या नहीं करते हैं। वह "कोशिश" शब्द उसकी जेल वापसी के लिए दरवाजों को खुला रखता । हमारी बातचीत सुन रहे एक दूसरे कैदी ने मुझसे पूछा, "शिव, क्या तुम्हें यह सब करने के लिए क्या मिलते हैं?" मैंने उससे कहा कि मुझे यहाँ पर जो भावनात्मक संतुष्टि मिल रही है,वह पैसे से ज्यादा कीमती है। तब उसने पूछा, "तुम यहाँ क्यों आते हो?" मैंने कहा, "मैं अपने स्वार्थ की वजह से आता हूँ। मैं इस दुनिया को जीने के लिए एक बेहतर जगह बनाना चाहता हूँ ।” इस तरह की आत्मसंतुष्टि लाभदायक होती है। संक्षेप में कहा जाए तो हम व्यवस्था मेंजो लगाते हैं, हमको हमेशा उसका पुरस्कार (reward) भी मिलता है, और कई बार तो वह हमारे लगाए गए से बहुत ज़्यादा होता है। लेकिन हमको लगाते समय बदले में कुछ पाने की इच्छा नहीं रखनी चाहिए। एक और कैदी ने कहा, "लोग जो करते हैं, वह उनका निजी मामला है। अगर कोई नशीली दवाएँ लेता है, तो इससे तुम्हारा क्या लेना-देना है? तुम उन्हें उनके हाल पर क्यों नहींछोड़ देते हो?" मैंने जवाब दिया, "मेरे दोस्त, हालाँकि मैं तुमसे सहमत नहीं हूँ,फिर भी मैं तुम्हारी यह बात मान लूँगा, कि उससे मेरा कुछ लेना-देना नहीं है, लेकिन क्या तुम मुझे यह गारंटी दे सकते हो कि जब भी कोई नशीली दवाएँ खा कर कार चलाएगा, तो उसकी कार केवल पेड़ से टकराएगी?" तुम इसकी गारंटी दो, तो मैं तुम्हारी बात मना लूँगा। अगर तुम यह गारंटी नहीं दे सकते कि उस कार से टकरा कर तुम, मैं, या हमारे बच्चे मौत के शिकार नहीं बनेंगे, तो फिर मेरा यकीन करो कि उस बात से मेरा संबंध है। मुझे उस आदमी को सड़क से दूर रखना होगा।
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~ three sisters ~