." रात के लगभग साढ़े बारह बजे थे। दिल्ली से लखनऊ जाने वाली आख़िरी पैसेंजर ट्रेन खाली-सी पड़ी थी। ज़्यादातर डिब्बे अँधेरे और वीरान थे। उसी ट्रेन में सफ़र कर रहा था विक्रम, जो नौकरी के सिलसिले में देर से स्टेशन पहुँचा था " ।
" विक्रम जब डिब्बे में बैठा, तो उसे यह अजीब लगा कि पूरी ट्रेन में केवल वही अकेला है। खिड़कियों से बाहर धुँध छाई थी, और हवा में सन्नाटा घुला हुआ था। ट्रेन धीरे-धीरे चल पड़ी " ।
" कुछ मिनट बाद अचानक उसने देखा कि सामने की बेंच पर एक बूढ़ी औरत बैठी है। विक्रम हैरान हुआ—अभी तक तो वहाँ कोई नहीं था। औरत ने सफेद साड़ी पहनी हुई थी और उसका चेहरा घूँघट से ढका था। उसने धीमी, काँपती आवाज़ में पूछा—
“ बेटा… समय क्या हुआ है? " ”
" विक्रम ने घबराते हुए जवाब दिया, “बारह बजकर चालीस।” "
" औरत हल्की हँसी हँसी और बोली " —
“ " ठीक है… आधी रात हो गई " । ”
*
" उसकी आवाज़ सुनकर विक्रम के रोंगटे खड़े हो गए। ट्रेन तेज़ी से अँधेरे जंगलों के बीच से निकल रही थी। अचानक विक्रम को खिड़की में अजीब-सी परछाइयाँ दिखने लगीं—जैसे कोई लोग ट्रेन के साथ-साथ दौड़ रहे हों। लेकिन यह कैसे हो सकता था? ट्रेन तेज़ रफ्तार से चल रही थी। "
" विक्रम ने आँखें मलकर देखा, और उसका खून जम गया। खिड़की के बाहर दर्जनों बिना चेहरे वाले लोग ट्रेन के बराबर भाग रहे थे। उनके हाथ लंबे और हड्डियों जैसे पतले थे। "
" वह चीखने ही वाला था कि बूढ़ी औरत ने घूँघट हटाया। विक्रम की साँस अटक गई—उसका चेहरा बिल्कुल काला था, आँखों की जगह खाली गड्ढे थे, और मुँह कानों तक फटा हुआ था। "
" वह औरत हँसते हुए बोली " —
" “इस ट्रेन से जो चढ़ता है… वह कभी अपने स्टेशन तक नहीं पहुँचता " ।”
" विक्रम पसीने से भीग गया। उसने उठकर दूसरे डिब्बे में भागने की कोशिश की। लेकिन जैसे ही दरवाज़ा खोला—सारे डिब्बे लाशों से भरे पड़े थे। हर लाश की आँखें खुली हुई थीं और सभी विक्रम को घूर रही थीं " ।
" वह लड़खड़ाता हुआ वापस अपनी सीट पर गिरा। ट्रेन की रफ्तार बढ़ती जा रही थी। बाहर अँधेरे में सिर्फ़ धुंध और अजीब आवाज़ें थीं। तभी अचानक ट्रेन रुकी " ।
" विक्रम ने खिड़की से बाहर झाँका। वहाँ कोई स्टेशन नहीं था—सिर्फ़ एक पुराना कब्रिस्तान। पटरियों के दोनों ओर कब्रें दिखाई दे रही थीं। "
" उसने काँपते हुए पूछा, “ये कहाँ आ गए? ”
बूढ़ी औरत पास आकर फुसफुसाई—
“यही तेरी मंज़िल है।”
इसके बाद दरवाज़ा अपने आप खुला और बाहर से वे बिना चेहरे वाले लोग अंदर घुस आए। उन्होंने विक्रम को पकड़कर बाहर खींच लिया। उसकी चीखें रात के सन्नाटे में गूँज उठीं।
अगली सुबह ट्रेन लखनऊ स्टेशन पहुँची। डिब्बे पूरी तरह खाली थे। टीटी को सिर्फ़ एक पुराना बैग मिला, जिस पर लिखा था—
“ विक्रम ”।
लेकिन विक्रम का कहीं कोई पता नहीं चला।
लोग कहते हैं, आधी रात को चलने वाली उस आख़िरी ट्रेन में कभी सफर मत करना। क्योंकि उस ट्रेन में बैठने वाले… कभी अपने गंतव्य तक नहीं पहुँचते।