Abuse of the public in Hindi Short Stories by Mini Kumari books and stories PDF | जनता के प्रति दुर्व्यवहार

Featured Books
Categories
Share

जनता के प्रति दुर्व्यवहार

जनता के प्रति दुर्व्यवहार 

ब्रिगेडियर (सेवानिवृत्त) बी.एन. शर्मा ने अपनी पुस्‍तक ‘इंडिया बिट्रेड’ में एक किस्सा सुनाया, जो काफी परेशान करने वाला है। (बी.एन.एस./2-4) लेखक तब एक युवा, मेरठ के गांधी आश्रम में रहता था, जहाँ उसके चाचा महासचिव थे। नेहरू को सन् 1937 के प्रांतीय विधानसभा चुनावों के लिए एक भाषण देने को मेरठ के टाउन हॉल में आना था। मेरठ पहुँचने पर वे व्यवस्थाओं को लेकर बेहद नाराज हुए। व्यवस्थाओं के लिए जिम्मेदार व्यक्ति नेहरू के सामने हाथ जोड़े खड़ा था और उनसे वापस न जाने की गुजारिश कर रहा था। इसके बावजूद नेहरू ने हजारों की भीड़ के सामने अपने सामने झुककर खड़े उस व्यक्ति को लात मार दी और मारते ही रहे। हर कोई पूरी तरह से हैरान व परेशान था। तब कृपलानी ने नेहरू को पकड़कर अलग किया। इस वाकए ने लेखक के युवा मन पर गहरी छाप छोड़ी। लेखक लिखता है कि नेहरू काफी घमंडी थे और वे अपने गुस्से का सार्वजनिक रूप से इजहार करने में हिककिचाते नहीं थे। शायद नेहरू गुस्सा होने और गुस्से का प्रदर्शन करने काे राजसी मानते थे; गुस्से और अधीरता का सार्वजनिक प्रदर्शन करते थे। 

सीता राम गोयल (एस.आर.जी.) सन् 1935 की एक घटना का वर्णन करते हैं, जब नेहरू चाँदनी चौक से सटे गांधी मैदान में एक सार्वजनिक सभा को संबोधित करने आए थे (गोयल तब सातवीं कक्षा के छात्र थे)— “पं. नेहरू के मंच पर आते ही मैदान तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज गया। उन्होंने हाथ जोड़कर लोगों का अभिवादन किया और एक स्थानीय कांग्रेस नेता ने औपचारिक रूप से उनका परिचय करवाया। लेकिन उसके अगले ही क्षण मैंने जो देखा, मुझे अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हुआ। उस महान् व्यक्ति का चेहरा तमतमा गया। वह अपने दाईं तरफ मुड़े और माइक के नजदीक खड़े उसी नेता के मुँह पर एक तमाचा रसीद कर दिया। माइक नीचे गिर गया। पं. नेहरू के हाव-भाव और उनका चिल्लाना कुछ ऐसा था, जैसे कुछ बेहद खराब घटित हुआ हो! 

“इस बीच माइक एक बार फिर काम करने लगा और उनकी आवाज को चारों ओर सुना जा सकता था। वे (नेहरू) कह रहे थे, ‘दिल्ली की कांग्रेस के कार्यकर्ता कमीने हैं, जाहिल हैं, नामाकूल हैं। मैंने कितनी बार इनसे कहा है कि इंतजाम नहीं कर सकते तो मुझे बुलाया मत करो, पर ये सुनते ही नहीं हैं।’ 

“यह मेरे लिए एक बिलकुल नया अनुभव था। मैंने सार्वजनिक मंच पर ऐसा व्यवहार कभी नहीं देखा था। बेशक, वहाँ पर मौजूद अन्य वक्ता उनके बराबर के कद के नहीं थे। क्या यह बड़ों के व्यवहार करने का तरीका था? मैं सोच में पड़ गया। मैं एक ऐसे व्यक्ति को पसंद नहीं कर सकता था, जो एक ऐसे व्यक्ति पर न सिर्फ चिल्लाया था, बल्कि उसने उसे चाँटा भी मारा था, जो जीवन में उससे कहीं नीचे था और पलटवार करने की स्थिति में नहीं था, वह भी बिना किसी गलती के! युवावस्था में भी मैं गुंडों से बेहद नफरत करता था।” (एस.आर.जी./62-63) 

सन् 1942 में क्रिप्स मिशन की विफलता के बाद एक सार्वजनिक समारोह में दर्शकों द्वारा किए जा रहे हंगामे के प्रत्युत्तर में नेहरू ने जो कुछ चिल्लाकर कहा, उसे माइक पर सुना जा सकता था। जैसा कि सीता राम गोयल ने वर्णन किया है, जो खुद वहाँ पर मौजूद थे— “देखना चाहता हूँ इन कमीनों को मैं। बता देना चाहता हूँ इनको कि मैं कौन हूँ! इनकी ये गंदी हरकतें मैं कतई बरदाश्त नहीं कर सकता। मैं एक शानदार आदमी हूँ। इससे भी बुरा तो भीड़ छँट जाने के बाद हुआ। वे मंच से नीचे उतर आए और दरवाजे की तरफ जाने लगे, जहाँ मैं खड़ा था। कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने उनके चारों तरफ घेरा बना लिया था। लेकिन जैसे ही लोग उनके पाँव छूने के लिए आगे की तरफ आने लगे, उन्होंने कार्यकर्ताओं को एक तरफ धकेल दिया और कमान अपने हाथों में ले ली। वे अपने पास आने वाले लोगों को अपने दोनों हाथों से तमाचे और दोनों पैरों से लात मार रहे थे। वे फुल बूट्स पहने हुए थे। उनके कुछ प्रशंसकों को निश्चित ही गहरी चोट लगी होगी। मेरा मानना था कि उन्हें लोगों से ऐसा व्यवहार करने का कोई अधिकार नहीं था। आखिरकार, वे उनके प्रति अपना सम्मान व्यक्त करना चाह रहे थे और वह भी सिर्फ उस तरीके से, जो उनकी परंपरा ने उन्हें सिखाया था।” (एस.आर.जी./64) 

सीता राम गोयल ने एक अन्य चौंकाने वाले प्रकरण के बारे में लिखा—
 “वर्ष 1947 के अंत या प्रारंभिक 1948 के दिनों में मैं दिल्ली में ही था और मैं अमेरिका से पधारे अपने एक पत्रकार मित्र से मिलने चला गया। जैसाकि मैं पहले ही बता चुका हूँ, वह भारत के आजाद होने के तुरंत बाद कलकत्ता छोड़कर दिल्ली आ गए थे। कॉफी हाउस में उनके साथ बैठते ही वे बोले, ‘सीता, यह आदमी (नेहरू) खुद को समझता क्या है? भगवान्!’ मैंने उनसे पूछा, ‘कौन? क्या हुआ?’ उन्होंने मुझे नेहरू के निवास के नजदीक आमरण अनशन पर बैठे कुछ साधुओं की कहानी सुनाई, जो चाहते थे कि सरकार गौ-हत्या पर तुरंत रोक लगाए, क्योंकि गोमांस खाने वाले ब्रिटिश अब देश छोड़कर जा चुके हैं। मेरे मित्र ने कहा, ‘मैं वहाँ कुछ तसवीरें खींचने और एक खबर तैयार करने गया था। अमेरिकी नेता भारत की ऐसी खबरें बहुत पसंद करते हैं। लेकिन मैंने जो कुछ देखा, वह मेरे लिए बेहद डरावना था। जब मैं उनमें से एक साधु से बात कर रहा था, जिसे थोड़ी-बहुत अंग्रेजी आती थी, तभी वह व्यक्ति (नेहरू) अपनी बहन श्रीमती पंडित के साथ अपने घर से बाहर निकला। वे दोनों हिंदी में कुछ चिल्ला रहे थे। बेचारे साधु हतप्रभ रह गए और अपने स्थान से उठ खड़े हुए। उस आदमी ने हाथ जोड़कर आगे आए एक साधु को थप्पड़ मार दिया। उसकी बहन (विजयलक्ष्मी पंडित) ने भी ऐसा ही किया। वे कुछ ऐसा कह रहे थे, जो काफी कठोर लग रहा था। इसके बाद वे दोनों वापस मुड़े और जितनी तेजी से बाहर आए थे, उतनी ही तेजी से भीतर चले गए। साधुओं ने विरोध में एक शब्द भी नहीं कहा, यहाँ तक कि उनके वहाँ से चले जाने के बाद भी। उनके लिए यह एक बिल्कुल सामान्य बात थी।’ मैंने अपना मत रखा, ‘लेकिन पं. नेहरू के मामले में यह एक सामान्य बात है। वे अपने पूरे जीवन लोगों को मारते-पीटते ही रहे हैं।’ उन्होंने (अमेरिकी पत्रकार ने) अपनी बात खत्म की, ‘मुझे आपके देश का रिवाज नहीं पता। मेरे देश में अगर कोई राष्ट्रपति किसी नागरिक पर ऐसा चिल्लाए तो उसे अपने पद से हाथ धोना पड़ेगा। हम किसी की भी बात नहीं सुनते हैं, फिर चाहे वह जो कोई भी हो।’ ” (एस.आर.जी./65) 

नेहरू और गोमांस के मसले पर यहाँ ब्रूस रिडेल की ‘जे.एफ.के.’स फॉरगॉटन क्राइसिस : तिब्बत, द सी.आई.ए. ऐंड द साइनो-इंडियन वॉर’ से एक उद्‍धरण है— “राष्ट्रपति (आइजनहवर) ने उस मौके (नेहरू की अमेरिका यात्रा) के लिए बेहद सावधानीपूर्वक तैयारी की थी। उन्होंने व्हाइट हाउस और विदेश विभाग को खान-पान इत्यादि में नेहरू की पसंद-नापसंद का विशेष खयाल रखने के निर्देश दिए थे। यह बात सामने आई कि दुनिया के सबसे बड़े हिंदू राष्ट्र के प्रधानमंत्री को खाने में फिलेट मिग्नॉन (गोमांस से बना एक व्यंजन) पसंद है और वे यदा-कदा तब स्कॉच पीना भी पसंद करते हैं, जब निजी लोगों के साथ होते हैं। नेहरू की बेटी इंदिरा उनके साथ फार्म तक गईं और उन्होंने ही उनकी खान-पान की पसंद के बारे में बताया।” (बी.आर./एल. 164)