इतिहास के साथ ‘रचनात्मक’ होना (विकृत करना)
जबरदस्ती से की गई नेहरूवादी-मार्क्सवादी विकृतियाँ
पिछले उप-अध्याय/भूल में जिस चीज को उजागर किया गया है, उसे करने के बजाय संबंधित प्रतिष्ठान सिर्फ अपना सोचनेवाले बाबू-शिक्षाविदों के कब्जे में रहा और इसके साथ ही नेहरूवादियों, मार्क्सवादियों एवं समाजवादियों के भी, जिन्होंने शिक्षा का नौकरशाहीकरण कर दिया और मार्क्सवादी विश्व-दृष्टि एवं स्थापना की सुविधा के अनुकूल दिशा का अनुकरण सुनिश्चित किया गया। हमारे पास जो मौजूद हैं, वे सक्षम विद्वान् न होकर राजनीतिक पिछलग्गू हैं।
उपर्युक्त की बदौलत पश्चिम द्वारा लिखित इतिहास का पक्षपाती, विकृत संस्करण अभी भी प्रयोग में है। इसे समाप्त करने के बजाय हमारे ‘प्रकांड’ सरकारी इतिहासकारों ने बकवास का समर्थन किया। एक तरफ जहाँ अंग्रेजों ने भारतीय इतिहास को अपने उपनिवेशवादी मतलब के लिए विकृत किया, भारतीय वामपंथी-मार्क्सवादी इतिहासकार अपने वैचारिक मतलबों और अपने आकाओं को खुश करने के लिए इतिहास को और अधिक विकृत कर रहे हैं। इस संदर्भ में अरुण शौरी की पुस्तक ‘एमिनेंट हिस्टोरियंस : देयर टेक्नोलॉजी, देयर लाइन, देयर फ्रॉड’ (ए.एस.2) पढ़ने लायक है।
इन मतलबी, बेईमान नेहरूवादी, मार्क्सवादी शिक्षाविदों ने इतिहास-लेखन के पेशे का अत्यधिक अपकार किया है। इन्होंने जदुनाथ सरकार एवं आर.सी. मजूमदार जैसे प्रामाणिक लोगों को दरकिनार कर दिया और उन्हें गुमनामी में धकेल दिया। उन्होंने ऐसा क्यों किया? ऐसा करने का फायदा भी मिला। आप नेहरू की नजरों में चढ़ गए, जो खुद एक आंग्लवादी थे और बाद में उनके राजवंश की नजरों में भी। आपको अच्छेपद और कार्यभार मिले। जब तक आप नेहरूवादी-मार्क्सवादी-समाजवादी-नास्तिकवादी रेखा के घेरे में रहे, अकादमिक मध्यमता पदोन्नति और शानदार पदों को पाने में कोई रुकावट नहीं होगी। इतना ही नहीं, ब्रिटिश समर्थक होने या ब्रिटिशों के प्रति नरम होने के चलते आपको पश्चिम द्वारा अकादमिक असाइनमेंट, व्याख्यान, सेमिनार आदि के लिए आमंत्रित किया गया। इसके अलावा, आपके औसत लेखन को विदेशों में प्रकाशित किया गया और उसकी अच्छी समीक्षा भी की गई। आपको भारतीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार भी प्राप्त हुए। दूसरे शब्दों में, वास्तविक भारत के प्रति बेईमान, अव्यावसायिक और अपमानजनक होने का लाभ भी मिला। संदीप बालकृष्ण ने लिखा—
“रमेश चंद्र मजूमदार ने अपने 96 वर्ष के जीवन को पूरी तरह से दूरगामी और तीव्र स्वतंत्रता संग्राम के प्रति समर्पित कर दिया था—भारतवर्ष की असली महानता के वास्तविक इतिहास को फिर से खोजने और पुनःप्राप्त करने के लिए। इसका नतीजा हुआ करीब 30 संस्करणों की एक महान् कृति और इसके अलावा वास्तविक शोध-पत्रों, यहाँ तक कि समाचार-पत्रों के कई लोकप्रिय लेख भी। अगर किसी को एक शब्द में स्वतंत्रता के बाद के भारतीय इतिहास का वर्णन करना हो तो वह शब्द होगा—कृतघ्नता। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और उनके दोशद्रोही पिछलग्गुओं ने जिस प्रकार से इस प्रतिष्ठित इतिहासकार, विद्वान् और स्वतंत्रता सेनानी के कॅरियर को बरबाद किया, इसका इससे बेहतरीन उदाहरण देखने को नहीं मिल सकता।
“ ...ऐतिहासिक संस्थानों के राजनीतीकरण के बीज सबसे पहले तो तब बोए गए, जब राजनेताओं को विद्वानों/शैक्षणिक बोर्डों में नियुक्त किया गया; एक ऐसी जगह, जहाँ उनका कोई काम ही नहीं था। दूसरा, ऐतिहासिक सच्चाइयों को कुचलने की मिसाल कायम की गई, क्योंकि मजूमदार ने घोषणा कर दी थी कि वे स्वतंत्रता संग्राम में मोहनदास गांधी, मोतीलाल और जवाहरलाल की भूमिकाओं की गंभीरता से जाँच करेंगे। ऐसा सोचना भी एक निषेध था और ऐसा करने से अगर सबसे पहले तथा सबसे अधिक किसी का नाराज होना निश्चित था तो वह थे हमारे समाजवादी प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू। डॉ. एन.एस. राजाराम के शब्दों में, ‘मजूमदार का गुनाह क्या था? उन्होंने इतिहास को कांग्रेस के फायदे के लिए मोड़ने से इनकार कर दिया था।’ इसके परिणामस्वरूप अगले करीब 50 वर्षों के लिए एक ऐसा मंच तैयार हो गया, जिसके जरिए मार्क्सवादी कलम-घसीटियों के हाथों भारतीय इतिहास को विकृत किया जा सके, वह भी सभी स्तरों पर—विद्यालयों से लेकर विश्वविद्यालयों तक। और जब हम बात कर रहे हैं, यह काम तब भी जारी है।
“इतिहासकारों के वेश में बैठे हमारे मार्क्सवादी आशुलिपिक और कलम घसीटने वाले बिल्कुल उचित तरीके से किनारे पर पड़े रहते (जैसे यूरोप में प्रलय को नकारने वाले पड़े रहते हैं) यदि आर.सी. मजूमदार जैसे ईमानदार विद्वान् सिर्फ इसलिए बेइज्जत करके निकाल बाहर नहीं कर दिए गए होते, क्योंकि उन्होंने नेहरू का दास बनने से इनकार कर दिया था। इसके अलावा, इससे नेहरू कैसे व्यक्ति थे, यह भी स्पष्ट हो जाता है। उन्हें भारत के लंबे इतिहास के सबसे महत्त्वपूर्ण प्रकरणों में से एक के ईमानदार मूल्यांकन से खतरा महसूस हुआ। लेकिन चाहे जो हो जाए, सच सच ही रहता है—आर.सी. मजूमदार एक असुरक्षित तानाशाह के हाथों सताए जानेवाले सैकड़ों हिमालयी विद्वानों में से एक थे। लेकिन समय के साथ जवाहरलाल नेहरू को नहीं, बल्कि उन्हें एक नायक का दर्जाप्राप्त हुआ है और नेहरू की सच्ची विरासत है राहुल गांधी नाम का एक राष्ट्रीय मजाक! रक्त का सबूत होता है खानदान!” (यू.आर.एल.104)
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“अंग्रेजी भाषा के प्रति नेहरू का प्रेम और उनके वामपंथी झुकाव ने वामपंथी इतिहासकारों की एक ऐसी जमात को पैदा कर दिया, जिन्होंने भारतीय इतिहास को अंग्रेजी में दोबारा लिखा और इतिहास के साक्ष्यों को पूरी तरह से पलटकर रख दिया।”
—बी.एन. शर्मा (बी.एन.एस./246)
“उन्होंने (मार्क्सवादी-नकारनेवाले इतिहासकारों ने) भारत को एक ऐसी खाली जमीन बना दिया, जिस पर एक के बाद एक आक्रमणकारी आते गए। उन्होंने वर्तमान भारत को और तो और, हिंदू धर्म को भी एक चिड़ियाघर जैसा बना दिया है—विभिन्न और पृथक् नमूनों का एक झुंड। ‘भारत’ जैसी कोई चीज नहीं, सिर्फ एक भौगोलिक अभिव्यक्ति, सिर्फ अंग्रेजों की एक रचना, हिंदू धर्म जैसी कोई चीज नहीं, अरबों द्वारा महसूस किए गए वर्गीकरण का वर्णन करने के लिए प्रयोग किया गया एक शब्द, एकरूपता थोपने के लिए सांप्रदायिकतावादियों का सिर्फ एक आविष्कार—उनका रुख सिर्फ ऐसा रहा। उन्होंने ऐसा करने के लिए इतिहास के हिंदू दौर को गायब ही कर दिया; जैसाकि हम देख सकते हैं, इसलामिक दौर का महिमामंडन करने में पूरा जोर लगा दिया। उन्होंने प्राचीन भारत की सामाजिक प्रणाली को उत्पीड़न के प्रतीक के रूप में पेश किया है और अधिनायकवादी विचारधाराओं (जैसे—ईसाई, इसलाम और साम्यवाद) को समतावादी एवं न्यायपूर्ण बताकर पेश किया है।”
—अरुण शौरी (ए.एस.2/एक्स)
“वास्तव में, भारतीय इतिहास की वामपंथी छेड़छाड़ की सबसे बड़ी विशेषता रहा है उनका वह व्यवस्थित तरीका, जिसमें वे भारतीयों की कम-से-कम तीन पीढ़ियों का ब्रेनवॉश इस प्रकार से करने में कामयाब रहे हैं कि वे कालातीत, अखंड सांस्कृतिक और स्थानीय परंपराओं पर गर्व करने में इस हद तक शर्मिंदा महसूस करें कि छात्र एवं नए पाठक दोनों ही उससे घृणा करने लगें, आखिरकार उससे दूर हट जाएँ। यह विकृति हमारे नायकों, संतों, कवियों, दार्शनिकों और बाकी लोगों तक भी फैली हुई है। अपने आप से नफरत करने की प्रवृत्ति दुनिया के किसी और देश में इस स्तर तक पहुँचने में शायद ही सफल हुई हो, जितनी हमारे देश में हुई है।”
—संदीप बालकृष्ण (एस.बी.के./एल-2339)
(नेहरूवादी-मार्क्सवादी इतिहासकारों ने क्या किया) “...किसी विशेष क्रम में नहीं, इसके भारत में हुए किसी भी गलत काम के लिए ब्राह्मणों को बुरा बनाकर दिखाना शामिल है—प्राचीन अतीत से लेकर वर्तमान समय तक। और फिर, इसके बाद हिंदुओं पर मुसलमानों द्वारा किए गए अत्याचारों—नर-संहार, जबरन धर्मांतरण, बड़े पैमाने पर मंदिरों का विध्वंस और जजिया कर लगाकर, उन पर ‘धिम्मी’ का दर्जा थोपकर उन्हें आर्थिक रूप से कमजोर बनाने के लंबे और प्रचुर रिकॉर्ड को पूरी तरह से गायब करना है। इसके अलावा, उनका यह आख्यान भारत की उस सांस्कृतिक, सभ्यतागत और आर्थिक उत्कृष्टता को भी बेहद कम करके प्रदर्शित करती है, जो उसने मौर्यों, सुंगों, गुप्तों, सातवाहनों, चोलों, चालुक्यों, होयसलों और विजयनगर साम्राज्य जैसे हिंदू राजवंशों के समय में प्राप्त की थी।”
—संदीप बालकृष्ण (एस.बी.के./एल-2440)