Itihaas se Chhedchhad - 1 in Hindi Book Reviews by Mini Kumari books and stories PDF | इतिहास से छेड़छाड़.. - 1

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इतिहास से छेड़छाड़.. - 1

निषेधमात्रवाद क्या है?
“निषेधमात्रवाद का मतलब है—मानवता के खिलाफ ऐतिहासिक अपराधों को नकारना। यह ज्ञात तथ्यों की पुनर्व्याख्या नहीं है, बल्कि ज्ञात तथ्यों को पूरी तरह से नकारना है। ‘निषेधमात्रवाद’ शब्द को महत्ता तब से मिली है, जब से मानवता के विरुद्ध किए गए एक बड़े अपराध, वर्ष 1941-45 के दौरान नाजियों द्वारा यहूदियों के किए गए नर-संहार, जिसे सर्वनाश (holocaust) के रूप में भी जाना जाता है, को खारिज करने का प्रयास किया गया।”
 —कोनराड एल्स्ट (के.ई./3) 

निषेधमात्रवाद ऐतिहासिक तथ्यों या फिर रिकॉर्ड के नाजायज तरीके से जानते-बूझते विरूपित करना या फिर उसे नकारना है। भारत के संदर्भ में यह उन भयानक, नृशंस और अमानवीय अपराधों को नकारना और/या उन्हें हलका करके आँकना या जान-बूझकर उनकी गलत तरीके से व्याख्या करना और/या उन्हें सही साबित करने का प्रयास करना है, जो भारत पर हमला करके सैकड़ों वर्षों तक राज करने के दौरान मुसलमानों ने किए थे। हिंदुओं पर अत्याचार की वह सहस्राब्दी यहूदियों के नरसंहार से कहीं बदतर थी और इसे अभी तक पूरी तरह से कागज पर उतारना बाकी है। 

उन्होंने क्या किया? जैसाकि इतिहासकारों द्वारा वर्णित किया गया
 www.JewsNews.Co.il के मुताबिक (डब्‍ल्यू.आई-एच3)— 
“800 वर्षों से अधिक समय तक अरब, तुर्क, मुगल और अफगान हमलावर सेनाओं द्वारा भारत के हिंदुओं के किए गए नरसंहार से दुनिया अभी तक पूरी तरह से अनजान है।...भारत में हिंदुओं का सर्वनाश इससे भी कहीं अधिक व्यापक था। फर्क सिर्फ इतना था कि यह 800 वर्षों तक जारी रहा और इसका अंत वर्ष 1700 के अंत में उस समय तक नहीं हुआ, जब तक पंजाब के सिखों और हिंदू मराठा सेनाओं ने भारत के अन्य हिस्सों में जीवन एवं मतृ्यु के संघर्ष में इस क्रूर शासन को प्रभावी तरीके से परास्त नहीं कर दिया। 

“हमारे पास मौजूदा ऐतिहासिक समकालीन प्रत्यक्षदर्शियों के हवाले से दुनिया के सबसे बड़े सर्वनाश के विस्तृत साहित्यिक साक्ष्य उपलब्ध हैं। आक्रमणकारी सेनाओं के इतिहासकारों व जीवनीकारों और उनके बाद के भारतीय शासकों ने उसके बेहद विस्तृत अभिलेख छोड़े हैं कि उन्होंने दिन-प्रतिदिन में हिंदुओं के साथ कैसे-कैसे अत्याचार किए थे। 

“इन समकालीन अभिलेखों में किए गए अत्याचारों की डींग हाँकी गई है और उनका महिमामंडन किया गया है और इसके अलावा, दसियों लाख हिंदुओं के नरसंहार, हिंदू महिलाओं के सामूहिक बलात्कार तथा हजारों हिंदू/बौद्ध धार्मिक स्थलों एवं पुस्तकालयों के सर्वनाश को अच्छे से प्रलेखित किया गया है तथा यह दुनिया के सबसे बड़े सर्वनाश का सबसे बड़ा साक्ष्य है।... 

“फ्रांसवा गोतिए अपनी पुस्तक ‘रिराइटिगं इंडियन हिस्टरी’ में लिखते हैं— ‘मुसलमानों द्वारा भारत में किए गए नरसंहारों की इतिहास में बराबरी नहीं की जा सकती। वे नाजियों द्वारा यहूदियों के किए गए सर्वनाश से भी कहीं बड़े हैं; या फिर, तुर्कों द्वारा आर्मेनियाई लोगों के किए गए नरसंहार से भी बड़े—आक्रमणकारी स्पेनिश और पुर्तगालियों द्वारा दक्षिण अमेरिका की मूल आबादी के कत्लेआम से भी कहीं अधिक वृहद्।’...” 

“एलेन डेनियलो ने अपनी पुस्तक ‘हिस्टोइरे डी ल’ इंडे’ में लिखा है— ‘632 ई.डी. के आसपास मुसलमानों के पहली बार आना शुरू करने के बाद से भारत का इतिहास हत्याओं, नरसंहारों, लूटों और विनाशों की एक लंबी व नीरस शृंखला बन गया। जैसाकि होता आया है, यह उनके विश्वास के नाम पर, उनके एकमात्र ईश्वर के नाम पर एक ‘जेहाद’ था, जिसमें बर्बर लोगों ने पूरी-की-पूरी सभ्यताओं को मिटा दिया और पूरी जातियों का ही सफाया कर दिया।’ ” (डब्‍ल्यू.आई-एच3) 
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“थानेसर में काफिरों का इतना अधिक रक्त मिल गया था कि उसकी पूरी जल धारा का रंग ही बदल गया था और इसके पूरी तरह से पवित्र होने के बावजूद लोग उसे पीने में पूरी तरह से असमर्थ थे। सुल्तान अपने साथ लूट का इतना माल लिये लौटा, जिसे गिनना नामुमकिन है।” 
—उतबी का ‘तारीख-ए-यमिनी’ 
महमूद गजनवी का सचिव (डब्‍ल्यू.आई-एच1) 
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“इसलाम के हाथों अपनी जान गँवाने वाले हिंदुओं की संख्या का कोई आधिकारिक अनुमान नहीं है।...सबसे बड़ा नरसंहार महमूद गजनवी के हमले (1000 सी.ई.) के दौरान हुआ; मुहम्मद गोरी और उसके सेनापतियों के उत्तरी भारत पर वास्तविक जीत के दौरान (1192 सी.ई.) और फिर दिल्ली सल्तनत के समय में (1206-1526 सी.ई.)...प्रो. के.एस. लाल ने एक बार अनुमान लगाया था कि सल्तनत के शासनकाल के दौरान भारतीय जनसंख्या 5 करोड़ घट गई थी। ...” 
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“इन वास्तविक हत्याओं के अलावा लाखों हिंदुओं को गुलाम बनाकर गायब कर दिया गया। किसी भी मुसलमान आक्रांता के हमले के बाद बगदाद और समरकंद के गुलाम बाजार हिंदुओं से भर जाते थे। रास्ते में आने वाली कठिनाइयों के चलते गुलामों के मरने की पूरी संभावना रहती थी। उदाहरण के लिए, जब तैमूर लंग के शासनकाल (1398-99 सी.ई.) के दौरान एक बेहद ठंडी रात में मध्य एशिया को ले जाते समय लाखों हिंदू गुलामों की मौत हो जाने के बाद ‘हिंदू कोह’, भारतीय पर्वत का नाम बदलकर ‘हिंदू कुश’, ‘हिंदुओं का खात्मा’ रख दिया गया था। 
—कोनराड एल्स्ट (डब्‍ल्यू.आई-एच4) 
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“नौवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में अरबी भाषा में लिखने वाले अल-बिलाधुरी से शुरू करते हुए बीसवीं शताब्दी के चौथे दशक में अंग्रेजी भाषा में लिखने वाले सैयद मुहम्मद हसन तक आते हुए हमने 1200 से अधिक वर्षों में फैले हुए अस्सी इतिहासों का प्रमाण दिया है। हमारे प्रमाणों में इकसठ राजाओं, तिरसठ सैन्य कमांडरों और चौदह ऐसे सूफियों का उल्लेख किया गया है, जिन्होंने 1100 वर्षों की अवधि के दौरान 154 क्षेत्रों में छोटे-बड़े हिंदू मंदिरों को ध्वस्त किया, जो पश्चिम में खुरासान से लेकर पूर्व में त्रिपुरा तक और उत्तर में ट्रांसऑक्सियाना से लेकर दक्षिण में तमिलनाडु तक फैले थे। इनमें से अधिकांश मामलों में मंदिरों के विध्वंस के बाद उस स्थान पर मसजिदों, मदरसों और खानख्वाहों इत्यादि का निर्माण किया गया तथा ऐसा करने में ज्यादातर इन्हीं मंदिरों की सामग्री को प्रयोग में लाया गया। मुहम्मद के धर्म के इस पवित्र काम को करते हुए हर बार मूर्ति-ध्वंसक की भूमिका निभाने के लिए अल्लाह का शुक्रिया अदा किया गया।...” 
—सीता राम गोयल (एस.आर.जी.4बी/244) 
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“अमीर खुसरो (कवि) बड़ी प्रसन्नता के साथ इस बात का वर्णन करते हैं कि कैसे ब्राह्म‍णों के सिर नाचते हुए उनकी गरदनों से उनके पैरों में गिर जाते थे और साथ ही उन काफिरों के भी, जिन्हें मलिक गफूर ने चिदंबरम के मंदिरों की लूटमार के दौरान जिबह कर दिया था। फिरोज शाह तुगलक ने ब्राह्म‍णों के गले में गौमांस से भरे थैले बाँधकर उनसे काँगड़ा के अपने सैन्य शिविर में परेड करवाई।...” 
—सीता राम गोयल (एस.आर.जी.4बी/250) 
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“भारत पर इसलामी फतह शायद इतहास की सबसे खूनी कहानी है। यह एक निरुत्साहित करने वाली कहानी है, क्योंकि इसका स्पष्ट ज्ञान यह है कि सभ्यता एक अनमोल चीज है, जिसकी स्वतंत्रता, संस्कृति और शांति को किसी भी क्षण बाहर से आकर हमला करने वाले या फिर भीतर-ही-भीतर बढ़ रहे आक्रांताओं द्वारा उखाड़ फेंका जा सकता है।” 
—विल डूरंट (डब्‍ल्यू.डी.2/459) 
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आक्रमण के बाद के समय में वाराणसी, मथुरा, उज्जैन, महेश्वर...और द्वारका के प्राचीन शहरों में एक भी मंदिर पूर्ण और अक्षुण्ण नहीं बचा। यह बिल्कुल ऐसे है, जैसे पेरिस, रोम, फ्लोरेंस और ऑक्सफोर्ड में कोई सेना मार्च करती हुई जाए और उनके वास्तुशिल्प के खजाने को जमींदोज कर दे। यह विनाशवाद से भी परे का एक काम है; यह पूर्ण नकारात्मकता है, किसी भी सुसंस्कृत और सभ्य चीज के प्रति घृणा है।” 
—डेविड जे. जॉनसन (डी.जे./86) 
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“हिंदुओं के प्रार्थना-स्थलों के विध्वंस के इसलामिक मूर्ति भंजकों के कई साहित्यिक प्रमाण मौजूद हैं। इसमें सातवीं शताब्दी के पाँचवें दशक से लेकर अठारहवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों तक की लंबी अवधि शामिल है। यह उत्तर में ट्रांसऑक्सियाना से लेकर दक्षिण में तमिलनाडु तक और पश्चिम में अफगानिस्तान से लेकर पूर्व में असम तक के एक वृहद् स्थान को अपने में समेटे हुए है।...हालाँकि, आधुनिक समय में पुरातात्त्विक अन्वेषणों ने साहित्यिक विवरणों के भौतिक प्रमाण सामने लाकर रख दिए हैं। हिंदू संस्कृति का विशाल उद्गम स्थल वस्तुतः सनातन धर्म के सभी संप्रदायों—बौद्ध, जैन, शैव, शाक्त, वैष्णव और बाकी के मंदिरों व मठों के खँडहरों से अँटा पड़ा है।” 
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“लगभग सभी मध्यकालीन मुसलिम इतिहासकार अपने नायकों को हिंदू मूर्तियों और/या हिंदू मंदिरों के विध्वंस का श्रेय देते हैं। जो तसवीर उभरकर सामने आती है, उसमें निम्नलिखित कारक होते हैं, जो इस बात पर निर्भर करते हैं कि क्या मूर्ति-विध्वंसक हिंदुओं के प्रतिरोध के डर के चलते जल्दबाजी में था या फिर उसने निर्णायक जीत के बाद आराम से अपना काम किया— (1) अगर मूर्तियाँ कीमती धातुओं से निर्मित होती थीं तो उन्हें या तो क्षत-विक्षत कर दिया जाता था या फिर तोड़ दिया जाता था अथवा फिर उन्हें जला या पिघला दिया जाता था। (2) दीवारों और खंभों पर उकेरी गई मूर्तियों को विकृत कर दिया गया था या उन्हें खरोंचकर हटा दिया गया था या फाड़ दिया गया था। (3) पत्थर और घटिया धातु की बनी मूर्तियों या फिर उनके टुकड़ों को ले जाया जाता था। कई बार तो कई बैलगाड़ियों में भरकर, जिन्हें या तो (क) तख्त पर बैठे मुसलमान सुल्तान के महानगर की या फिर (ख) इसलाम के पवित्र शहरों, विशेष रूप से मक्का, मदीना और बगदाद की प्रमुख मसजिदों के बाहर फेंका जा सके। (4) कई ऐसे उदाहरण भी हैं, जिनमें इन मूर्तियों को या तो शौचालयों में बदल दिया गया या फिर कसाइयों को मांस बेचते समय उसका वजन करने में इस्तेमाल करने के लिए सौंप दिया गया। (5) मंदिरों और उसके आसपास के ब्राह्म‍णों तथा पवित्र व्यक्तियों पर हमला किया गया या फिर उन्हें मार डाला गया। (6) पूजा-पाठ में प्रयोग किए जाने वाले पवित्र ग्रंथों और शास्त्रों को अपवित्र किया गया तथा उन्हें फाड़ दिया गया या फिर जला डाला गया। (7) मंदिरों को क्षतिग्रस्त या नष्ट या ध्वस्त अथवा जला दिया गया या कुछ परिवर्तन करके मसजिदों में बदल दिया गया, या फिर कई मौकों पर तो मंदिरों की सामग्री का ही प्रयोग करके पूरी मसजिदों का निर्माण किया गया। (8) मंदिरों के स्थल पर ही गायों को काटा गया, ताकि हिंदू दोबारा उनका प्रयोग न करें।” “पुरालेख जैसे साहित्यिक स्रोत उस आनंद का प्रमाण प्रदान करते हैं, जो मुसलमानों ने इन ‘पवित्र कार्यों’ को देखते या सुनाते समय महसूस किया था। अमीर खुसरो के कुछ उद्धरण इस बात को और अधिक स्पष्टता प्रदान करेंगे। ...” 
—सीता राम गोयल (एस.आर.जी.4ए/17-18) 
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“टीपू सुल्तान को लेकर इतिहास के साथ काफी छेड़छाड़ की गई है, जो कई मायनों में दक्षिण का औरंगजेब है। टीपू सुल्तान पर एक पुस्तक (‘टीपू सुल्तान : द टायरेंट ऑफ मैसूर’, रेयर प्रकाशन, चेन्नई) के लेखक के रूप में मैं उस व्यक्ति को एक नायक, देशभक्त और स्वतंत्रता सेनानी के रूप में प्रस्तुत करने के निरंतर प्रयासों को देखकर हैरान व परेशान हूँ।...जहाँ तक हिंदुओं की बात है, तो सत्रह वर्ष लंबा उसका शासन मुख्य रूप से सैन्य और आर्थिक आतंक का कार्यकाल था। उसने पूरे शहरों को वास्तव में धराशायी कर दिया और वहाँ से आबादी का नामोनिशान ही मिटा दिया। उदाहरण के तौर पर, हम बर्बरता और बड़े पैमाने पर विनाश के बारे में जानने के लिए उसके कोडागु (कुर्ग) और मलाबार पर उसके द्वारा किए गए हमले को ले सकते हैं।...बार्थालाम्यू का एक अंश हमें इसकी एक झलक दिखाता है— ‘सबसे आगे 30,000 बर्बर लोगों की एक टोली, जो रास्ते में आने वाले सभी लोगों का कत्ल करती चलती है...उसके बाद फील्ड गन यूनिट...टीपू एक हाथी पर सवार था और उसके पीछे 30,000 सैनिकों की एक सेना चल रही थी। कालीकट में अधिकांश पुरुषों व महिलाओं को फाँसी पर लटका दिया गया था। सबसे पहले माँओं को लटकाया गया और बच्‍चों को उनकी गरदन से ही बाँधकर लटका दिया गया। उस बर्बर टीपू सुल्तान ने नग्न ईसाइयों और हिंदुओं को हाथियों के पैरों से बँधवा दिया और हाथियों को तब तक इधर-उधर घुमाया, जब तक कि उन असहाय पीड़ितों के शरीरों के टुकड़े-टुकड़े नहीं हो गए। मंदिरों और चर्चों को जलाने, अपवित्र करने तथा नष्ट करने का आदेश दिया गया था। ईसाई और हिंदू महिलाओं को मुसलमानों से शादी करने के लिए मजबूर किया गया तथा इसी तरह उनके पुरुषों को मुसलमान महिलाओं से शादी करने के लिए मजबूर किया गया। इसलाम अपनाने से इनकार करने वाले ईसाइयों को फौरन फाँसी पर लटकाकर मार डालने का आदेश दिया गया। इन अत्याचारों के बारे में मुझे खुद टीपू सुल्तान की सेना की कैद से भागे भुक्तभोगियों और पीड़ितों ने बताया, जो भागकर वरप्पुझा पहुँचे, जो कारमाइकल ईसाई मिशन का केंद्र है। मैंने खुद कई पीड़ितों को नावों से वरप्पुझा नदी पार करने में मदद की।’...टीपू सुल्तान ने सैयद अब्दुल दुलाई और उनके अधिकारी बुद्रुज जमान खाँ को लिखे पत्रों में खुद यह बात कही है— ‘पैगंबर मुहम्मद और अल्लाह के फजल से कालीकट में लगभग सभी हिंदू इसलाम में परिवर्तित हो गए हैं। सिर्फ कोचीन राज्य की सीमाओं पर अभी भी कुछ परिवर्तित नहीं हो सके हैं। मैं उन्हें भी बहुत जल्द परिवर्तित करने के लिए दृढ़ संकल्पित हूँ। मैं इसे जेहाद मानता हूँ।...’ ” 
—संदीप बालाकृष्ण (एस.बी.के./एल-2488-2528) 
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“डरे हुए हिंदू के लिए बचने का सिर्फ एक ही रास्ता है और वह है— चुप रहकर घृणा करते रहना। बहुत कम मुसलमानों को इस बात का अहसास है कि उन्होंने हिंदू मानस को कितनी गहरी चोट पहुँचाई है। इसका सबसे बड़ा कारण है कि धर्मयुद्ध में लड़ रहे ईसाइयों की तरह हिंदुओं ने ईंट का जवाब पत्थर से नहीं दिया। फिर मुसलमानों को बात का पता कैसे चलता? आपको याद है न, बाबरी मामले को लेकर कितना बवाल हुआ और शोर-शराबा मचा। इसके बावजूद एक भी हिंदू ने इस बात को नहीं उठाया है कि सिर्फ बँगलादेश में ही सन् 1990 में 62 मंदिरों को अपवित्र किया गया है; बाबरी घटना से सिर्फ दो वर्ष पहले हुई और 6 दिसंबर, 1992 के बाद तो यह संख्या न जाने कितनी ऊपर पहुँच चुकी है। तस्लीमा नसरीन ने भी यही लिखा है। पाकिस्तान में भी 178 मंदिरों के साथ ऐसा ही किया गया। भारत के भीतर अगर सिर्फ कश्मीर का ही उदाहरण लें तो करीब 27 मंदिरों को ध्वस्त किया जा चुका है।... अभी हाल ही में बामियान में बुद्ध की मूर्ति को ध्वस्त कर दिया गया।” 
—प्रफुल्ल गोराडिया, ‘हिंदू मसजिद’ (पी.जी./8.9) 

प्रफुल्ल गोराडिया की पुस्तक ‘हिंदू मसजिद’ (पी.जी.) कश्मीर में ध्वस्त किए गए हिंदू पूजा-स्थलों को सूचीबद्ध करती है—1986 में 46 (पी.जी./141-2) और 1990 के बाद से 90 (पी.जी./138-40)। इसके अलावा, यह पाकिस्तान में ध्वस्त किए गए कुल 59 हिंदू मंदिरों के प्रांतवार नामों को भी सूचीबद्ध करती है (पी.जी./143-5)।

सीता राम गोयल की पुस्तक ‘हिंदू टेंपल : व्हाट हैपन्ड टू देम’, वॉल्यूम-1, अध्याय-6 ‘लेट द म्यूट विटनेस स्पीक’ में ‘उन मुसलमान स्मारकों का राज्यवार और जिलेवार विवरण दिया गया है, जो मौके पर खड़े हैं और/या जिन्हें हिंदू मंदिरों की सामग्री के साथ बनाया गया है। यह 93 पन्नों (72-165) की एक लंबी सूची है, जिसमें सैकड़ों स्मारक शामिल हैं। (एस.आर.जी.4ए/41-165) 

भयानक नतीजे 
उपर्युक्त वर्णित मंदिरों के विध्वंस और सर्वनाश से भी कहीं अधिक विनाशकारी था— मुसलमान आक्रांताओं द्वारा भारत की अर्थव्यवस्था और समृद्धि के साथ-साथ इसकी भव्य शिक्षा‌ प्रणाली, विश्वविद्यालयों और ज्ञान की समृद्ध संस्कृति का विनाश तथा साथ ही बड़े स्तर पर किया गया इसके बुद्धिजीवी वर्ग का नरसंहार। 

गणित ही विज्ञान व इंजीनियरिंग का आधार है और गणित के बिना ये दोनों संभव ही नहीं हैं। भारत की हिंदू सभ्यता और ज्ञान की इसकी अंतर्निहित खोज ने गणित एवं खगोल-विज्ञान की प्रतिभाओं को जन्म दिया। भारत ने दुनिया को हिंदू (हिंदू-अरब गलत तरीके से कहा जाता है) अंक 0 से 9, स्थान-मान प्रणाली, दशमलव प्रणाली, त्रिकोणमिति, कलन और बहुत कुछ दिया (कृपया सी.के. राजू, रामप्रसाद सोघल और अन्य के वीडियो देखें)। पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है, पृथ्वी गोल है और चपटी नहीं है तथा ऐसे कई क्रांतिकारी विचार भारतीय गणितज्ञ और खगोलविद् इनके पश्चिम में सामने आने से कहीं पहले ही प्रस्तुत कर चुके थे। भारत की मजबूत अर्थव्यवस्था (1000 सी.ई. में वैश्विक जी.डी.पी. का 27 प्रतिशत (डब्‍ल्यू.ई.1)) तथा औद्योगिक एवं कृषि आधार, गणित एवं खगोल-विज्ञान में इसकी अद्वितीय शक्ति, इसकी विशाल शैक्षिक व्यवस्था और अद्वितीय ज्ञान, जाँच करने तथा कुछ नया करने की संस्कृति, जिसके लिए हिंदू संस्कृति को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है—जो मुसलिम-ईसाई निरंकुश हठधर्मिता से पूरी तरह से मुक्त है—के चलते भारत पश्चिम से कई सदियों पहले ही विज्ञान प्रौद्योगिक के क्षेत्र का अगुआ बन चुका होता, अगर मुसलमान आक्रमणकारियों ने भारत में अपने कदम न रखे होते। सच्‍चाई तो यह है कि ब्रिटेन की औद्योगिक क्रांति भी भारत की लूट से ही उन्नत हुई थी। (कृपया भूल#89 देखें) 

वी.एस. नायपॉल ने लिखा (डब्‍ल्यू.आई-एच1)— 
“आक्रमणों के बारे में सभी स्कूली पुस्तकों में बताया गया है। लेकिन मुझे नहीं लगता कि लोग इस बात को समझते हैं कि प्रत्येक आक्रमण, प्रत्येक युद्ध, प्रत्येक अभियान के साथ कत्लेआम भी आया था और हर बार वह था—देश के सबसे अधिक प्रतिभाशाली लोगों का कत्लेआम। इसलिए इन युद्धों के परिणामस्वरूप, बाकी सब चीजों के अलावा, देश में एक जबरदस्त बौद्धिक पतन को जन्म दिया...यह प्रकृति के कृत्य से होने वाली बरबादी नहीं, बल्कि मानव के हाथों से होने वाली बरबादी थी। यह देखना बेहद दर्दनाक है कि नगण्य भारतीयों ने अब इससे निबटना शुरू कर दिया है। ब्रिटिश साम्राज्यवाद से निबटना बेहद मुश्किल है। भारत और ब्रिटेन में यह एक बेहद सामान्य विषय है। वह विषय, जिसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं, वह है ब्रिटिशों से पहले भारत की लूट। 1000 ए.डी. के बाद जो कुछ हुआ, वह वास्तव में एक ऐसा घाव है, जिसका सामना करना लगभग असंभव है। कुछ घाव इतने बुरे होते हैं कि उनके बारे में लिखा भी नहीं जा सकता। आप वैसे दर्द से छिपकर ही उससे निबटते हैं। आप सच्‍चाई से मुँह मोड़ते हैं।...मैं यह कहना चाहता हूँ कि आप इतने बड़े घाव का इलाज नहीं कर सकते। उदाहरण के लिए, मुझे नहीं लगता कि पेरू के इंका या मेक्सिको के मूल निवासियों जैसे लोग स्पेनवासियों के हाथों मिली हार से उबर पाए हैं। दोनों ही जगहों पर सिर काट दिया गया था।...” 
“ ‘खंडित अतीत’ भारत की आपदाग्रस्त सहस्राब्दी का वर्णन करने का एक विनम्र तरीका है। सहस्राब्दी का प्रारंभ मुसलिम आक्रमणों और उत्तर की हिंदू-बौद्ध संस्कृति के पतन के साथ हुआ। यह इतनी बड़ी और बुरी घटना है कि लोगों को अभी भी इसके बारे में बोलने के विनम्र, नियति-विरोधी तरीके खोजने पड़ते हैं। कला पुस्तकों एवं इतिहास की पुस्तकों में लोग भारत में मुसलमानों के ‘आने’ के बारे में लिखते हैं, जैसेकि मुसलमान टूरिस्ट बस में आए और फिर वापस चले गए। भारत पर उनकी विजय को लेकर सच्‍चाई जाननी है तो मुसलिम दृष्टिकोण जानना जरूरी है। वे अपने धर्म की विजय, मूर्तियों व मंदिरों के विध्वंस, लूट, गुलामों के रूप में स्थानीय लोगों को अपने साथ ले जाने, इतने सस्ते और इतनी बड़ी संख्या में कि उन्हें कुछ रुपयों के बदले ही बेच दिया जाता था। वास्तुकला संबंधी साक्ष्य-उत्तर में हिंदू स्मारकों की अनुपस्थिति—ही काफी है। यह कब्जा पहले हुए किसी भी अन्य के पूरी तरह से उलट था।” (डब्‍ल्यू.आई-एच1) 

नकारात्मक लेखन को बढ़ावा देना 
भारतीय इतिहास, प्राचीन के साथ-साथ मध्यकालीन भी, के एक छात्र के रूप में मैं बिल्कुल स्पष्ट तरीके से देख सकता था कि वे (नकारात्मक-मार्क्सवादी-नेहरूवादी इतिहासकार) बड़े झूठ का एक गोबल्स जैसा खेल खेल रहे थे। लेकिन उनका मुकाबला नहीं किया जा सकता था, क्योंकि नेहरू के राजवंश के सुनहरे दौर में वे शिक्षा जगत् पर पूरी तरह से हावी हो गए थे और उन्होंने पूरे मास मीडिया को अपने नियंत्रण में कर लिया था।
—सीता राम गोयल (एस.आर.जी.4बी/वी) 
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“मौलाना अब्दुल हेय द्वारा हिंदू मंदिरों को मसजिदों में बदले जाने का उल्लेख तो सिर्फ एक छोटी सी झलक भर है। मध्यकालीन मुसलिम इतिहासकारों के लेखन, विदेशी यात्रियों के संस्मरणों और भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण की रिपोर्टों में पूरी तसवीर निकलकर सामने आती है। इसे लगातार दबाए रखने के अथक प्रयासों के बावजूद, हालाँकि, जब कभी भी इस सच्‍चाई के सामने आने की जरा भी गुंजाइश दिखाई देती है तो धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्रीय एकता के नाम पर शोर-शराबा शुरू हो जाता है। इतिहासकारों के वेश में बैठे मार्क्सवादी राजनेता इस गुप्त साजिश के प्रमुख रणनीतिकार रहे हैं। 
“वर्तमान भारत के मुसलिम राजनेता और विद्वान् मध्ययुगीन काल में हिंदू मंदिरों के विध्वंस का जरा सा जिक्र भी आने पर उसका विरोध करने लगते हैं...और इस बात को अभी अधिक समय नहीं हुआ है, जब उनके पूर्वज इसी काम को बेहद पाक काम मानते थे और अपने शिलालेखों एवं साहित्यिक रचनाओं में बड़े गर्वसे इस काम के बारे में लिखते थे। ...‘हिंदू सांप्रदायिकतावादियों’ ने इस संदर्भ में जो भी प्रमाण प्रस्तुत किए हैं, वे पूरी तरह से इसलामी स‍्रोतों, पुरालेख और साहित्यिक स‍्रोतों से ही लिये गए हैं।” 
—सीता राम गोयल (एस.आर.जी.4ए/13) 
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“लगभग 1920 के बाद से ही इस बात का पूरा प्रयास किया जा रहा है कि भारत के इतिहास को दोबारा लिखा जाए और हिंदू धर्म पर इसलाम द्वारा एक सहस‍्राब्दी से भी अधिक समय तक किए गए हमले को नकारा जाए। आज की तारीख में भारत के अधिकांश राजनेता और अंग्रेजी के बुद्धिजीवी इस लंबे और दर्दनाक द्वंद्व के किसी भी सार्वजनिक संदर्भ की कड़े- से-कड़े शब्दों में निंदा करने के लिए किसी भी हद तक चले जाएँगे।” (के.ई./32, 34) 
“वर्ष 1920 के आसपास अलीगढ़ के इतिहासकार मुहम्मद हबीब (इरफान हबीब के पिता) ने भारतीय धार्मिक संघर्ष के इतिहास को फिर से लिखने की एक भव्य परियोजना की शुरुआत की थी।...” (के.ई./42) 
“अलीगढ़ स्कूल का अनुसरण बड़े पैमाने पर किया गया है। मार्क्सवादी इतिहासकारों ने इसकी मशाल को जल्द ही अपने हाथों में ले लिया, जो अपनी पार्टी लाइन के हिसाब से इतिहास के बेईमानी भरे पुनर्लेखन के लिए शोहरत पा रहे थे।” (के.ई./44) 
“इस संदर्भ में, हर किसी को इस बात का पता होना चाहिए कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियों और मुसलिम कट्टरपंथियों के बीच एक अजीब-सा गठबंधन है। कम्युनिस्टों ने 40 के दशक में मुसलिम लीग की भारत के विभाजन और एक इसलामी राज्य बनाने की योजना को बौद्धिक शक्ति और राजनीतिक समर्थन दिया। स्वतंत्रता के बाद वे हिंदी को राष्ट्रीय भाषा के रूप में अपनाने के संवैधानिक प्रावधान के कार्यान्वयन को विफल करने के लिए (प्रधानमंत्री नेहरू के मौन समर्थन के साथ) और भारत को इजराइल के खिलाफ सोवियत-अरब मोरचे पर भेजने के लिए सफलतापूर्वक एक हो गए। इसके बाद से उनके पारस्परिक लाभ के लिए यह सहयोग जारी है और इसलामिक कट्टरता की प्रतीक बाबरी मसजिद को बचाने के लिए उनका साझा मोरचा इसका सबसे जीवंत उदाहरण है। इन मार्क्सवादियों ने नेहरू के शासनकाल के दौरान अधिकांश शैक्षणिक एवं अनुसंधान संस्थानों और नीतियों पर नियंत्रण हासिल कर लिया।” (के.ई./44) 
“इसके अलावा, कांग्रेस के तंत्र पर इनका बहुत बड़ा मानसिक प्रभाव पड़ा। यहाँ तक कि वे लोग, जो सोवियत प्रणाली को औपचारिक तौर पर खारिज कर चुके थे, पूरी तरह से मार्क्सवादी तरीके से सोचते थे। उदाहरण के लिए, उन्होंने स्वीकार किया कि धार्मिक संघर्षों को आर्थिक और वर्गीय अंतर्विरोधों तक सीमित किया जा सकता है। उन्होंने मार्क्सवादी शब्दावली को भी अपनाया, ताकि वे हमेशा जागरूक हिंदुओं को सांप्रदायिक ताकतों या तत्त्वों के रूप में देखें (मार्क्सवाद लोगों को ईश्वर इतिहास के हाथों में अवैयक्तिक मोहरे या ताकतों के लिए अमानवीय बनाता है)। अब मार्क्सवादी इतिहासकारों के लिए पूरा मैदान खाली था और वे भारतीय इतिहास को असांप्रदायिक बनाने के अपने काम में जुट गए, जैसे संघर्ष के कारक के रूप में इसलाम के महत्त्व को मिटाने के काम में।” (के.ई./44-45) 
—कोनराॅड एल्स्ट 
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भारत पर इसलामिक जीत के संबंध में नकारात्मकवाद और इसके बाद लगभग एक सहस‍्राब्दी तक किए गए भयानक अत्याचारों में नेहरूवादी-मार्क्सवादी इतिहासकारों और वामपंथी-लिबरल्स (नकली उदारवादी) द्वारा अपनाई गई निम्नलिखित रणनीतियाँ शामिल हैं— (1) तथ्यों को नकार दें या उन्हें बकवास करार दें। (2) पर्याप्त सबूतों के बिना या फिर इसके विरोध में साक्ष्य होने के बावजूद व्यापक दावे करें। (3) सांप्रदायिक सद्भाव के कथित बड़े कारण के लिए इतिहास के तथ्यों को दबाएँ या फिर विकृत करें अथवा जान-बूझकर उनकी गलत व्याख्या करें, जैसेकि लोग बेवकूफ हैं और उन्हें सच्‍चाई का कभी पता ही नहीं चलेगा! (4) जहाँ पर स्थिति ऐसी बन जाए कि उसका बचाव करना असंभव हो, तो मकसद को ही नकार दें तथा किसी और चीज को उसके लिए जिम्मेदार ठहरा दें। (5) ऐतिहासिक तथ्य जहाँ पर भी आपके सामने आएँ और उनकी अनदेखी करना या उन्हें दबाना या उनकी गलत व्याख्या करना पूरी तरह से असंभव हो तो उन तथ्यों को कम करके दिखाने का प्रयास करें और उन्हें बाहरी या असाधारण या फिर एकतरफा के रूप में छोड़ने का प्रयास करें। (6) जहाँ कहीं भी ये तमाम कपट तरीके काम न आएँ, वहाँ परदा डालने का प्रयास करें। (7) और अगर परदा डालना भी संभव न हो तो आरोप या प्रतिशोध की प्रतिक्रिया में कठिन प्रश्न पूछें—अगर मुसलमान आक्रमणकारी ऐसे थे तो क्या...; और दूसरे पक्ष को और अधिक बुरा बनाकर पेश करने का प्रयास करें। (8) अगर इनमें से कोई भी हथकंडा काम नहीं आता है, तो आक्षेप लगाने का प्रयास करें—नकारात्मकवादियों से सवाल पूछने की हिम्मत करनेवाली पार्टी फासीवादी और/या नस्लवादी और/या सांप्रदायिक है—अपने विरोधियों को नाम लगाने और गाली देने के वास्तविक मार्क्सवादी-वामपंथी शैली में आते हुए। 

भारत में निषेधमात्रवाद के प्रबल उदाहरण 

इतिहास स्कूल पाठ‍्यपुस्तकों को विकृत करना 
अरुण शौरी की पुस्‍तक ‘एमिनेंट हिस्टोरियंस...’ के कुछ अर्थपूर्ण उदाहरण यहाँ दिए गए हैं— 
अयोध्या (राम जन्मभूमि-बाबरी ढांचा विवाद) में उनकी (इरफान हबीब, रोमिला थापर, सतीश चंद्र, सूरजभान, आर.एस. शर्मा इत्यादि जैसे मार्क्सवादी-निषेधमात्रवादी इतिहासकारों की) कपटी भूमिका सिर्फ लक्षणात्‍मक थी। यह झुंड 50 वर्षों तक सच्‍चाई को छिपाता रहा और नित नए झूठों का आविष्कार करता रहा। वे हमारे अतीत की घटनाओं के उद्देश्यों और तर्कसंगत अनुसंधान को बढ़ावा देने के लिए आई.सी.एच.आर. के उद्देश्य को लेकर आज कितना अधिक चिंतित होने का ढोंग करते हैं! उनकी यह चिंता उनकी पश्चिम बंगाल की सरकार (माध्यमिक शिक्षा मंडल के सर्कुलर) द्वारा सन् 1989 में जारी दिशा-निर्देशों से कहाँ मेल खाती है, जिसके ‘आउटलुक’ में ही यह लिखा था— ‘मुसलमानों के राज (भारत में) के प्रति कोई विरोध नहीं होना चाहिए। मुसलमान शासकों और आक्रमणकारियों द्वारा मंदिरों को तोड़े जाने का उल्लेख भी नहीं होना चाहिए’? लेकिन बौद्ध विहारों के विनाश को लेकर इनके द्वारा थोक में गढ़े गए झूठों, ‘आर्यों के बाहर से आने’ की झूठी कहानियों को शामिल करना जरूरी है और इनसे (इन झूठों से) सवाल पूछना सांप्रदायिक एवं उग्र राष्ट्रवाद है।” (ए.एस.2/9) 

निम्नलिखित अंश अरुण शौरी की पुस्‍तक ‘एमिनेंट हिस्टोरियंस...’ (ए.एस.2/63-68) और उनके ब्लॉग (ए.एस.3) से लिये गए हैं— 
“पश्चिम बंगाल के संबद्ध शिक्षक इतने अच्छे हैं कि उन्होंने मुझे नौवीं कक्षा की पाठ्‍य पुस्तकों से संबंधित 28 अप्रैल, 1989 का एक सर्कुलर भेजा है। इसे पश्चिम बंगाल माध्यमिक बोर्ड द्वारा जारी किया गया है। यह बँगला भाषा में है और इसकी पत्रांक संख्या एस.वाई.एल./89/1 है। ‘पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त सभी माध्यमिक विद्यालयों के प्रधानाचार्यों को सूचित किया जाता है’, यह शुरू होता है ‘कि इस बोर्ड द्वारा अनुशंसा की जाती है कि कक्षा नौ के लिए इतिहास की पाठ्‍य पुस्तकों में मध्य युगीन काल के अध्याय में विशेषज्ञों द्वारा उचित चर्चा और समीक्षा के बाद निम्नलिखित संशोधन तय किए गए हैं। इन पृष्ठों में दो कॉलम हैं : अशुद्धो-शुद्ध या गलत और शुद्धो... 

(चुनिंदा मिसाल)
 पुस्‍तक : भारत कथा... 
पृष्ठ 140: अशुद्धो—“सिंधु देश में अरब हिंदुओं को काफिर नहीं कहते थे। उन्होंने गौ- हत्या पर प्रतिबंध लगाया था।” शुद्धो : “हटाएँ: ‘उन्होंने गौ-हत्या पर प्रतिबंध लगाया था’।” 
पृष्ठ 141: अशुद्धो— “चौथी बात यह कि हिंदू मंदिरों को नष्ट करने के लिए बल का प्रयोग करना भी आक्रामकता की अभिव्यक्ति थी। पाँचवीं बात, जबरन हिंदू महिलाओं से शादी करना और शादी से पहले उन्हें इसलाम में परिवर्तित करना कट्टरतावाद को फैलाने का उलेमाओं का एक तरीका था।” शुद्धो—हालाँकि यह कॉलम सिर्फ ‘चौथी बात यह कि...’ से वाक्य को पुनः प्रस्तुत करता है, लेकिन बोर्ड निर्देश देता है कि ‘दूसरे से लेकर उलेमा’ तक सारे लेखन को हटा दिया जाए।  

पुस्‍तक : भारतवर्ष का इतिहास... 
पृष्ठ 89: अशुद्धो— “सुल्तान महमूद ने व्यापक हत्या, लूट, विनाश और धर्मांतरण के लिए बल का प्रयोग किया।” शुद्धो—“महमूद द्वारा व्यापक लूट और विनाश किया गया था।” यानी हत्या का कोई संदर्भ नहीं, जबरन धर्मांतरण का संदर्भ नहीं। 
पृष्ठ 89: अशुद्धो—“उसने सोमनाथ मंदिर से 3 करोड़ दिरहम की कीमत का सामान लूटा और शिवलिंग का इस्तेमाल गजनी की मसजिद की सीढ़ियों के रूप में किया।” शुद्धो—“डिलीट करें ‘और शिवलिंग का इस्तेमाल गजनी की मसजिद की सीढ़ियों के रूप में किया’।” 
पृष्ठ 112: अशुद्धो—“मध्यकालीन युग के दौरान हिंदू-मुसलिम संबंध एक बहुत ही संवेदनशील मुद्दा है। गैर-धर्मवालों काे या तो इसलाम स्वीकारना पड़ा या मौत।” शुद्धो—पृष्ठ 112-13 की सभी सामग्री को डिलीट करें।  

पुस्‍तक : नर्मदा प्रकाशन द्वारा प्रकाशित शोभंकर चट्टोपाध्याय की ‘भारुत्तेर इतिहास’ 
पृष्ठ 181: अशुद्धो—“मुसलमानों की नजर हिंदू महिलाओं पर न पड़े, इसलिए उन्हें घरों के अंदर रहने को ही कहा गया था।” शुद्धो—हटा दें।  

पुस्‍तक : नलिनी भूषण दासगुप्ता की बी.बी. कुमार द्वारा प्रकाशित ’इतिहाशेर कहानी’ 
पृष्ठ 154: अशुद्धो—“जैसाकि इसलाम द्वारा तय किया गया था, गैर-मुसलमानों के पास तीन विकल्प थे—या तो इसलाम धर्म अपना लें, जजिया का भुगतान करें या मृत्यु को स्वीकार करें। इसलामिक राज में गैर-मुसलमानों को इन तीन विकल्पों में से एक को स्वीकार करना पड़ता था।” शुद्धो—हटा दें। 

पी. मैती, श्रीधर प्रकाशिनी की ‘भारुत्तेर इतिहाश’ 
पृष्ठ 139 : अशुद्धो— “परदा व्यवस्था में कुलीन श्रेष्ठता की भावना थी। इसलिए उच्‍च वर्गीय हिंदुओं ने इस व्यवस्था को उच्‍च वर्गीय मुसलमानों से अपनाया। एक और मत यह है कि हिंदू महिलाओं को मुसलमानों से बचाने के लिए परदा प्रचलन में आया। ऐसी संभावना है कि परदा इन दोनों ही वजहों से प्रचलन में आया।” शुद्धो—हटा दें। 
‘धर्म पर औरंगजेब की नीति’ वाले अध्याय में सबसे अधिक डिलीशन का आदेश दिया गया है। उसने अपने शासनकाल के दौरान हिंदुओं के साथ, उनके मंदिरों के साथ वास्तव में क्या किया—इसलाम के प्रभाव को फैलाने के लिए—उसके प्रत्येक संकेत तक को पुस्तक से निकालने के लिए निर्देशित किया जाता है।... 

पुस्तक : स्वदेशो शोभ्योता, डॉ. पी.के. बसु और एस.बी. घटक, अभिनव प्रकाशन द्वारा। 
पृष्ठ 145: अशुद्धो : इसके अलावा, चूँकि इसलाम ने खुद को भारत में स्थापित करने के लिए बेहद अमानवीय तरीकों का इस्तेमाल किया, यह भारतीय और इसलामी संस्कृतियों के एक साथ आने के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा बन गया।” शुद्धो : डिलीट।  

कुल मिलाकर, कोई जबरन धर्मांतरण नहीं, कोई नरसंहार नहीं, मंदिरों का कोई ध्वस्तीकरण नहीं। सिर्फ यह कि हिंदुत्व ने एक जातिवादी, शोषक समाज का निर्माण किया है। इसलाम समानतावादी था, इसलिए उत्पीड़ित हिंदुओं ने इसलाम कबूल कर लिया! 

उस दौर के मुसलमान इतिहासकार उन काफिरों की लाशों के ढेर को देखकर उत्साह से भरे हुए हैं, जिन्हें नरक में भेज दिया गया है। मुसलमान इतिहासकारों ने हमेशा से ही उन शासकों की शान के कसीदे पढ़े हैं, जिन्होंने मंदिरों को नष्ट किया है; क्योंकि ऐसा करते हुए उसने सैकड़ों-हजारों लोगों को इसलाम की रोशनी दिखाई है। ‘द हेडया’ जैसी कानून की पुस्तकें भी बिल्कुल वही विकल्प सामने रखती हैं, जिनके बारे में इन छोटी पाठ्‍य-पुस्तकों में संकेत दिया गया था। सब पर परदा डाल दिया गया। 

वस्तुनिष्ठ इतिहास के लिए वस्तुनिष्ठ परदा। और अगर आज की तारीख में कोई उन पाठ्‍य-पुस्तकों में सच्‍चाई को बहाल करने का प्रयास करे तो चारों ओर से शोर सुनाई देगा—‘इतिहास का सांप्रदायिक पुनर्लेखन।’ 

लेकिन सिर्फ इसलाम के कृत्यों पर ही परदा नहीं डाला गया है। इसलाम के बाद एक और महान् उद्धार विषयक विचारधारा आई—मार्क्सवाद-लेनिनवाद। 

शिक्षक कक्षा 5 की पाठ्‍य-पुस्तक से उद्धरण प्रस्तुत करते हैं— 
“ ...रूस, चीन, विएतनाम, क्यूबा और अन्य पूर्वी यूरोपीय देशों में मजदूर व किसान सत्ता पर कब्जा करने के बाद देश पर शासन कर रहे हैं; जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस और जर्मनी में मिलों व कारखानों के मालिक देश पर शासन कर रहे हैं।” 
“ ...रूस में क्रांति के बाद पहले शोषण-मुक्त समाज की स्थापना हुई।” 
“ ...सिर्फ इसलाम और ईसाई धर्म ही ऐसे धर्म हैं, जिन्होंने मनुष्य के साथ सम्मान और समानता का व्यवहार किया।...” 

“ ...इसलिए यह सिर्फ परदा डालना ही नहीं, बल्कि सच्‍चाई को पूरी तरह से खारिज करना भी है।...” 

बौद्ध धर्म के विनाश के तथ्यों के साथ खिलवाड़ 
डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने लिखा— “इस बात में कोई शक नहीं है कि भारत में बौद्ध धर्म का पतन मुसलमानों के आक्रमण के चलते हुआ। इसलाम ‘बुत’ शब्द के दुश्मन के रूप में सामने आया। जैसाकि हर कोई जानता है, ‘बुत’ एक अरबी शब्द है, जिसका अर्थ होता है—मूर्ति...इस प्रकार मूर्तियों को तोड़ने का (इसलामी) मिशन बौद्ध धर्म को नष्ट करने का मिशन बन गया। इसलाम ने बौद्ध धर्म को सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि वह जहाँ कहीं भी गया, वहीं नष्ट किया।... मुसलमान आक्रमणकारियों ने नालंदा, विक्रमशिला, जगदला, ओदंतपुरी के बौद्ध विश्वविद्यालयों सहित कई को नेस्तनाबूद कर दिया। उन्होंने देश में फैले बौद्ध मठों को भी धराशायी कर दिया। बौद्ध भिक्षुओं ने हजारों की संख्या में भारत से भागकर नेपाल, तिब्बत और अन्य स्थानों पर शरण ली। मुसलमान आक्रांताओं ने बहुत बड़ी संख्या में बौद्ध भिक्षुओं की हत्याएँ कर दीं। मुसलमान आक्रमणकारियों की तलवारों ने बौद्ध पुरोहितों का सर्वनाश कैसे किया, इसे खुद मुसलमान इतिहासकारों ने ही दर्ज किया है।...” (आंब.7/229-38) (आंब.8) 

हालाँकि, अरुण शौरी कहते हैं—“लेकिन यह आज फैशन बन गया है कि बौद्ध धर्म के विलुप्त होने का सारा ठीकरा हिंदुओं द्वारा बौद्धों के उत्पीड़न पर फोड़ दो।...इस झूठ को पंख देनेवाले मार्क्सवादी इतिहासकार अपनी इस मनगढ़ंत कहानी को सच साबित करने के लिए एक भी साक्ष्य प्रस्तुत कर पाने में असफल रहे हैं।...” (ए.एस.2/99) 

इतिहास के साथ खिलवाड़ के अन्य उदाहरण 
निम्नलिखित अरुण शौरी के ‘एमिनेंट हिस्टोरियन्स’ (ए.एस.2/119-20) पर आधारित है— “नेहरू वंश के तबेले के ‘प्रतिष्ठित’ नकारात्मक-मार्क्सवादी इतिहासकारों में से एक सतीश चंद्र ‘मध्यकालीन भारत’ पर एन.सी.ई.आर.टी. कक्षा 9 की पुस्तक में लिखते हैं—‘चूँकि उस अवधि के दौरान सिखों एवं मुगल शासकों के बीच टकराव का कोई माहौल नहीं था और न ही हिंदुओं का कोई व्यवस्थित उत्पीड़न था, इसलिए सिखों या किसी अन्य समूह या संप्रदाय के चैंपियन के रूप में खड़े होने का कोई मौका नहीं था।...’ इसके बिल्कुल विपरीत, मुगलों के उत्पीड़न के साक्षी श्री गुरु नानक ने ईश्वर को पुकारा—‘इसलाम को सिर पर बिठाकर आपने (भगवान् ने) हिंदुस्तान को डर के माहौल में लाकर रख दिया है। ऐसी क्रूरताएँ (मुगलों द्वारा की गई) और फिर भी तेरी दया अविचल रहती है।...हे प्रभु! इन कुत्तों ने इस हीरे समान हिंदुस्तान को नष्ट कर दिया है।...’ 

“ ...इतिहास को राजनीतिक विचारों के आधार पर विकृत करने की भावना अब सिर्फ राजनेताओं तक ही सीमित नहीं रही है, बल्कि अब निश्चित तौर पर पेशेवर इतिहासकारों के बीच भी फैल चुकी है।...इसका उल्लेख करना दर्दनाक है, हालाँकि, इसकी अनदेखी करना बिल्कुल नामुमकिन है, यह एक सच्‍चाई है कि हिंदू धर्म के प्रति मुसलमान शासकों की कट्टरता और असहिष्णुता के पूरे अध्याय को दोबारा लिखने का एक अलग और सचेत प्रयास किया जा रहा है।...भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के तत्त्वावधान में लिखे गए इतिहास में इस आरोप को खारिज करने का पूरा प्रयास किया गया है कि मुसलमान शासकों ने हिंदुओं के मंदिरों को तोड़ा और इस बात का दावा किया गया कि वे धर्म के मामले में सबसे अधिक सहिष्णु थे। उनके इन्हीं नक्‍शे-कदमों पर चलते हुए एक जाने-माने इतिहासकार ने तो गजनी के महमूद को कट्टरता व धर्मांधता से मुक्त करने की माँग की है और भारत में कई लेखक तो जदुनाथ सरकार के धार्मिक असहिष्णुता के आरोप के खिलाफ औरंगजेब का बचाव करने के लिए आगे आए हैं।...” 
—आर.सी. मजूमदार (डब्‍ल्यू.एन 9) 

इतिहास-लेखन में नकारात्मकता और रचनात्मकता :
 गैर-पेशेवर और खतरनाक क्यों 
इतिहास को कैसे लिखा जाना चाहिए या नहीं, इसे लेकर नेहरू जैसे लोगों की अजीब गलत धारणाएँ थीं। उनका मानना था कि अगर अतीत में वास्तव में जो हुआ, उसका लेखन वर्तमान (उनकी गलत राय में) पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है तो इसे एक घुमाव दें। इसलिए इतिहास के साथ रचनात्मक बनें—अगर आवश्यकता पड़े तो इतिहास को दफना दें या मोड़ दें या फिर उसकी अनदेखी करें—एक बिल्लकु ही गलत धारणा! क्यों? सबसे पहले तो ऐसे प्रतिकूल प्रभावों को स्वीकार कर लेना ही एक बिल्लकु गलत धारणा है। दूसरा, अगर अलग-अलग लेखक अलग- अलग अनुमान लगाते हैं या व्याख्या करते हैं तो क्या प्रत्येक को अपने तरीके से एक विकृत इतिहास लिखना चाहिए? तीसरा, वास्तव में जो घटित हुआ, वह तो वैसे भी अन्य स‍्रोतों के जरिए सामने आ ही जाएगा, तो फिर तथ्यों के साथ क्यों खिलवाड़ किया जाए? जब मूल स‍्रोत और समकालीनों के लेखन उपलब्ध हैं—जिन्होंने देखा कि वास्तव में क्या हुआ और उसे कलमबद्ध किया, जैसे अल- बरूनी और अन्य—तो फिर इतिहास पर नजर रखनेवाले लोग आज के इतिहास लिखनेवाले लेखकों से गुमराह क्यों होंगे? चौथा, यह मान लेना आम जनता और पाठकों की बुद्धिमत्ता का अपमान है कि वे इतने भोले-भाले हैं कि इन रचनात्मक लेखकों ने जो कुछ भी लिखा है, वे आँखें मूँदकर उस पर विश्वास कर लेगें! पाँचवाँ, इतिहास-लेखन के साथ ऐसी स्वतंत्रता को लेना पूरी तरह से गैर-पेशेवर है। किसी के वैचारिक झुकाव या पूर्वाग्रह के अनुकूल या राजनीतिक या धार्मिक या सामाजिक या सांस्कृतिक उद्शदे्यों के लिए इतिहास को ढालने की कोशिश करना नासमझी है। 

सच से खिलवाड़ नहीं किया जाना चाहिए। लोगों को हलके में नहीं लिया जाना चाहिए या फिर उन्हें मूर्ख नहीं मान लेना चाहिए कि वे लिखी गई किसी भी बकवास पर विश्वास कर लेंगे, जैसाकि नेहरू ने या फिर नेहरूवादी-वामपंथी-मार्क्सवादी इतिहासकारों या कट्टरपंथियों ने सोचा। इतिहास-लेखन में दक्षता होनी चाहिए। अगर इतिहास दर्दनाक या फिर अप्रिय है तो उसे वैसा ही रहने दें। सत्य को जानना बेहतर है—चाहे वह अच्छा हो या बुरा, स्वादिष्ट हो या अप्रिय। 

उदाहरण के लिए, क्या किसी को सन् 1984 के सिख-विरोधी दंगों को या फिर 2002 में गोधरा में रेल के डिब्बे को जला देने या फिर 2002 के गोधरा के जवाबी दंगों को सिर्फ इसलिए इतिहास से मिटा देना चाहिए या फिर उन्हें हलका करके या गलत तरीके से प्रस्तुत करना चाहिए कि वे अप्रिय हैं या फिर वे दो समुदायों के बीच दुश्मनी पैदा कर सकते हैं? 

लोगों को सच्‍चाई का सामना करना सीखना चाहिए और इतिहास से सीखना चाहिए। वास्तव में, क्या अच्छा है और क्या बुरा, इसकी परिभाषा समय-समय पर बदलती रहती है। तो क्या हर बार इतिहास को दोबारा लिखा जाना चाहिए? यह इतिहास-लेखन से जुड़ी एक बड़ी गलतफहमी है और मूर्खतापूर्ण, अपरिपक्व, समाजवादी-वामपंथी ‘मैं तुमसे अधिक पवित्र और समझदार हूँ’ वाली नेहरूवादी धारणाएँ हैं कि ‘लोगों के लिए क्या अच्छा है’, जो रचनात्मक और नकारात्मक इतिहास-लेखन का रास्ता खाेलता है। 
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“आमतौर पर उम्मीद यह की जाती थी कि मध्यकालीन भारत में मुसलिम शासन पर ऐतिहासिक लेखन इस भेदभाव और लोगों की पीड़ा, उनके जबरन धर्मांतरण, उनके मंदिरों के विनाश, उनकी स्त्रियों व बच्‍चों की दासता की कहानी बताएगा, जिसका मध्यकालीन मुसलिम इतिहासकार स्वयं खुलकर और बार-बार उल्लेख करते आए हैं। लेकिन सबसे बड़ी हैरानी की बात यह है कि इन तथ्यों को सामने लाने के बजाय इन पर परदा डालने या फिर इन्हें दबाने की प्रवृत्ति प्रदर्शित की जाती है।...” 

“ऐसा नहीं है कि इतिहास की पुस्तकें सिर्फ भारत में ही लिखी जाती हैं, बल्कि पड़ोसी देशों में भी इनका लेखन किया गया है एवं राष्ट्रीय सद्भावना एवं एकता (इस धारणा की गलत व्याख्या करते हुए) के नाम पर यहाँ पर जिस सच को छिपाने का प्रयास किया गया है, पड़ोसी मुसलमान देशों में बड़े गर्व के साथ उसका उल्लेख किया गया है।...” 

“और इसके बावजूद कुछ लेखक खुद को इस गलत धारणा के साथ भ्रम में रखे रहते हैं कि वे ऐसे अनैतिक कार्य करते हुए इतिहास को विकृत करके या कट्टरपंथी राजनेताओं को खुश करके या युवा छात्रों का मानस-परिवर्तन करके अपने देश के इतिहास को बदल सकते हैं। अतीत में जो हुआ, उसे आज के सांस्कृतिक परिवेश के संदर्भ में आँकना और जान-बूझकर सच को छिपाना इतिहास के साथ राजनीति करना है। इतिहास जैसा है, उसे बिल्कुल वैसे ही स्वीकार किया जाए, वह भी बिना किसी व्यक्तिपरक व्याख्या के। कल के खलनायकों को आज का नायक नहीं बनाया जा सकता और इसके बिल्कुल उलट, इसके इसलामिक नायकों को सिर्फ खजाने के लिए मंदिरों को ध्वस्त करनेवाला लुटेरा नहीं बनाया जा सकता, न ही मध्ययुगीन स्मारकों को राष्ट्रीय स्मारकों के रूप में घोषित किया जा सकता है, जैसाकि कुछ भोले ‘धर्मनिरपेक्ष’ लोगों द्वारा सुझाया गया है। वे बर्बरता का प्रतिनिधित्व करते हैं। कोई भी सच्‍चा भारतीय ‘समग्र संस्कृति’ के ऐसे अपवित्र और अशोभनीय साक्ष्य पर गर्व नहीं कर सकता।...” 
—के.एस. लाल (लाल/अध्याय-1, 3) 
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“गोतिए ने अपनी पुस्तक ‘ए हिस्टरी ऑफ इंडिया एज इट हैपन्ड’ में मार्क्सवादी इतिहासकारों के संदिग्ध आख्यानों की बखिया उधेड़ते हैं और नकारात्मकवाद के कई उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। वे कहते हैं, ‘हम मुसलमान आक्रमणों से भारत को हुए भारी भौतिक नुकसान का तो कभी आकलन कर ही नहीं सकते। हिंदू भारत को हुई नैतिक व आध्यात्मिक क्षति का अनुमान लगाना तो और भी कठिन है।’ अंत में, गोतिए बताते हैं कि नकारात्मकवाद को चुनौती क्यों दी जानी चाहिए? वे कहते हैं, ‘इसमें बदला लेने या फिर गड़े मुर्दे उखाड़ने जैसी कोई बात नहीं है, बल्कि यह उन्हीं गलतियों को न दोहराना है।’ ” 
—ए. सूर्यप्रकाश (डब्‍ल्यू.आई-एच 2) 
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सदियों पूर्व जो कुछ हुआ, उसे आप आज के लोगों के साथ नहीं जोड़ सकते। धारणाएँ बदल चुकी हैं। क्या कासिम, गजनवी, गोरी और अन्य मुसलमान आक्रांताओं की लूट को सिर्फ इसलिए छिपा लेना चाहिए कि ऐसा करने से कहीं मुसलमानों को बुरा न लगे? अगर हिंदू राजाओं ने अतीत में कुछ अत्याचार किए हैं तो क्या उन्हें सिर्फ इस आधार पर छिपा लेना चाहिए कि कहीं हिंदुओं को चोट न पहुँचे? ईसाई धर्मांतरण, धर्माधिकरण और उपनिवेशीकरण के अपने अभियानों जिनमें गोवा पर कब्जा करना भी शामिल था, के दौरान भयानक अत्याचारों में लिप्त थे। क्या उसे भी गुप्त रखना चाहिए? जर्मन अपने बच्‍चों को नाजियों के अत्याचारों और विध्वंस के बारे में शिक्षित करते हैं, ताकि वे भयानक चीजें दोबारा दोहराई न जाएँ। दक्षिण अफ्रीका में ‘सत्य और सुलह आयोग’ बना हुआ है, जो रंगभेद से जुड़े तथ्यों के सामने आने, खेद व्यक्त करने और पुराने घावों पर मरहम लगाने का काम करता है। सच ज्ञात रहना चाहिए, तभी कोई वास्तविकता से परिचित हो सकता है और यह सुनिश्चित कर सकता है कि भविष्य में उन गलतियों की पुनरावृत्ति न हो।