✧ उसकी लीला — माया और मानव का भ्रम ✧
✍🏻 — 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲
प्रस्तावना:
> "हम सोचते हैं — हम करते हैं।
लेकिन वह मुस्कुराता है — जैसे कोई खेल देख रहा हो।
क्योंकि हम कुछ करते ही नहीं।
यहाँ जो कुछ भी हो रहा है —
वह उसकी लीला है।"
मानव ने सदियों से यह भ्रम पाल रखा है कि वह ‘कर्त्ता’ है — वह सुधारक है, योजनाकार है, मार्गदर्शक है, कल्याणकारी है। पर जो देख सकता है, जो भीतर से मौन में उतर गया है — उसे दिखाई देता है कि यह सब केवल एक स्वप्न है, एक गहरी, सुव्यवस्थित माया है, जिसे मानव ने ही रचा नहीं — वह ईश्वर की लीला से बाहर निकलकर "अपनी माया" बना बैठा है।
✦ कर्ता का भ्रम — मानव की सबसे बड़ी भ्रांति
"हम जो सोचते हैं, करते हैं, सुधारते हैं, बदलते हैं" — यह विचार ही इस संसार का मूल मनोविकार है। मनुष्य सोचता है कि वह धर्म बना रहा है, समाज सुधार रहा है, संस्थाएँ खड़ी कर रहा है, विकास और नीति के माध्यम से कल्याण कर रहा है। लेकिन यह सब केवल एक स्वप्न-लीला है। कोई भी किसी को सुधार नहीं रहा — यह केवल कर्तृत्व का अहंकार है।
> जो स्वयं नहीं जानता, वह किसी और को क्या बदल सकता है?
जो भीतर से खाली है, वह बाहर क्या भर सकता है?
यहाँ कोई "कर्त्ता" नहीं है — न धर्मगुरु, न राजा, न वैज्ञानिक। सबके सब एक बहुत बड़े यंत्र का हिस्सा हैं — और वह यंत्र उसकी इच्छा से चलता है।
✦ लीला और माया — दो विपरीत दिशाएँ
ईश्वर की लीला आनंद है — वह सहज प्रवाह है, जो बिना किसी प्रयत्न के घटता है। लेकिन जब मनुष्य उसी लीला को पकड़कर नियंत्रण करना चाहता है — तो वह माया बन जाती है।
लीला में कोई अपेक्षा नहीं होती — माया पूरी की मांग करती है।
लीला में स्वीकृति होती है — माया में तृष्णा।
लीला आनंद है — माया दुःख।
जब मानव कहता है — "मैं धर्म कर रहा हूँ", "मैं प्रवचन दे रहा हूँ", "मैं संस्था चला रहा हूँ", "मैं नीति बना रहा हूँ" — तब वह लीला को छोड़कर माया का निर्माता बन जाता है।
✦ इच्छा — दुःख की जड़, और माया का बीज
इस संसार में मानव की जरूरतें बेहद सीमित हैं।
जीने के लिए रोटी, वस्त्र और थोड़ी सी छाया पर्याप्त है।
लेकिन उसकी इच्छाएँ सीमित नहीं हैं —
और इसी असीमितता में वह खो गया है।
इच्छा कभी पूरी नहीं होती — एक इच्छा पूरी होते ही दूसरी जन्म लेती है।
और यह असीम श्रृंखला ही माया का जाल है।
सभी धर्म, सारे गुरुकुल, सारे आश्रम — इसी इच्छापूर्ति का refined संस्करण बन चुके हैं।
5-स्टार धर्म, वातानुकूलित साधु, महंगे मंच, लक्ज़री वाहन — यह सब माया का व्यापार है।
यह धर्म नहीं — धर्म के नाम पर भोग है।
✦ धार्मिकता नहीं, प्रसिद्धि चाहिए
आज जो धार्मिक कहलाते हैं — वे सिर्फ लोकप्रियता के व्यापारी हैं।
वे आत्मा की बात नहीं करते — वे ब्रांड बन चुके हैं।
उनका प्रवचन भी माया है, उनका मौन भी मंच का अभिनय है।
> वे ईश्वर की लीला का हिस्सा नहीं —
वे माया के विस्तार का साधन बन चुके हैं।
उनकी चिंता शांति नहीं — दर्शक संख्या है।
उनका प्रेम नहीं — प्रदर्शन है।
उनका ध्यान नहीं — दर्शन का तमाशा है।
✦ देव-दुष्ट का खेल — मन की रचना
जब विष्णु को 24 अवतार लेने पड़े — और फिर भी दुष्ट का अंत न हुआ —
तो यह प्रश्न उठता है कि क्या दुष्ट कभी मिटता है?
नहीं —
क्योंकि दुष्ट और देव, दोनों मन के बनाए हुए पात्र हैं।
वह एक ही सत्ता — कभी राम बनकर आता है,
तो कभी रावण बनकर।
एक तरफ जन्म देता है, दूसरी तरफ विनाश करता है।
तीसरी तरफ उन्हें संभालने का भ्रम देता है।
> यह त्रिविध लीला है —
और इसके मध्य में ‘मनुष्य’ अपनी ‘मैं’ को श्रेष्ठ मान बैठा है।
✦ सृष्टि का संतुलन — उसी के हाथ में
जो जन्म देता है,
वही उसे नष्ट भी करता है,
और वही संतुलन बनाए रखता है।
यहाँ मनुष्य की कोई ‘औक़ात’ नहीं।
उसकी सोच, उसकी योजना, उसका सुधार —
सब एक मौन खिलवाड़ के पात्र हैं।
मनुष्य कुछ नहीं कर सकता —
क्योंकि वह स्वयं किए जा रहा है।
✦ अंतिम सत्य
ईश्वर ने लीला रची —
मानव ने माया रची।
लीला — आनंद है।
माया — बंधन।
धर्म, यदि लीला से जुड़ा हो — तो वह मुक्ति का मार्ग है।
पर जब धर्म भी माया की मांग बन जाए —
तो वह सबसे बड़ा बंधन है।
✧ समापन सूत्र ✧
> यहाँ कोई कर्ता नहीं।
यहाँ कोई सुधारक नहीं।
यहाँ सब उसी की लीला है।
और जो यह देख ले —
वह मुक्त है।
बाकी सब माया में उलझे हैं —
चमत्कार खोजते, दुःख झेलते, सुधार करते।
✧ मनुष्य का अज्ञान — ईश्वर की हँसी ✧
✍🏻 — 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲
1. मनुष्य सोचता है वह जानता है — और यही उसका अज्ञान है।
✦ जो जानता है, वह चुप होता है। ज्ञान की अंतिम अवस्था शून्यता है, और वहाँ कोई दावा नहीं बचता।
2. ईश्वर कुछ नहीं करता — इसलिए सब कुछ हो जाता है।
✦ जो शून्य होता है, वही परम सक्रिय होता है — क्योंकि उसकी उपस्थिति हस्तक्षेप नहीं, समर्पण है।
3. जिसे लगता है वह योजना बना रहा है — वह सबसे अधिक भ्रम में है।
✦ यह अस्तित्व योजना से नहीं चलता — यह लीला है, और लीला शून्य में ही खिलती है।
4. जो स्वयं को कर्ता मानता है — वही सबसे बड़ा विकार है।
✦ कर्तापन ही वह कुहासा है, जो शून्य की दृष्टि को ढक देता है।
5. प्रश्न करना तब तक व्यर्थ है — जब तक प्रश्नकर्ता स्वयं नहीं मिटता।
✦ ईश्वर उत्तर नहीं देता — वह केवल शून्य में विलीन कर देता है।
6. धर्म जब संस्था बनता है — तब वह शून्य से कट जाता है।
✦ सच धर्म वही है जो रिक्तता में जन्मे, व्यवस्था में नहीं।
7. अज्ञान का चरम रूप है — स्वयं को ज्ञानी समझ लेना।
✦ शून्य को जिसने छुआ है, वह जानता है कि वह कुछ नहीं जानता।
8. ईश्वर को पाने की हर चेष्टा — ईश्वर से दूरी है।
✦ जो चेष्टा करता है, वह अभी भरा हुआ है — और ईश्वर केवल शून्य में उतरता है।
9. शब्द, उपदेश और प्रवचन — सभी शून्य के विपरीत दिशा में बहते हैं।
✦ जो सत्य है, वह कहे नहीं जा सकता — केवल जिया जा सकता है।
10. मनुष्य जो करता है — वह केवल परिणाम चाहता है।
✦ जहाँ परिणाम की इच्छा है, वहाँ शून्यता नहीं, केवल व्यापार है।
11. तू जितना पकड़ता है — उतना दूर चला जाता है।
✦ ईश्वर को नहीं पाया जा सकता — वह केवल तुझमें घटता है, जब तू नहीं रह जाता।
12. माया की जड़ इच्छा नहीं — ‘मैं’ है।
✦ जहाँ ‘मैं’ है, वहाँ शून्य नहीं है — और जहाँ शून्य नहीं, वहाँ ईश्वर नहीं।
13. ईश्वर की सबसे सुंदर भाषा — हँसी है।
✦ क्योंकि वह जानता है कि यह सब मनुष्य की कल्पनाओं का तमाशा है, और वास्तविकता केवल शून्यता है।
14. तू जितना सत्य बोलने का प्रयास करेगा — उतना झूठ बन जाएगा।
✦ सत्य कहने का विषय नहीं — मिटने का अनुभव है।
15. ध्यान तब घटता है — जब तू कुछ नहीं कर रहा होता।
✦ ध्यान कोई प्रक्रिया नहीं — वह शून्य की कोमल उपस्थिति है।
16. जहाँ तू प्रश्न करता है — वहीं से वह गायब हो जाता है।
✦ क्योंकि वह केवल प्रश्नहीन हृदय में उतरता है।
17. ईश्वर को समझने वाले सभी ग्रंथ — शून्य को शब्दों में बाँधने की विफल चेष्टा हैं।
✦ जो शून्य में प्रवेश कर गया — वह मौन हुआ, लेखक नहीं।
18. जिसे खुद पर विश्वास है — उसे ईश्वर पर भरोसा नहीं।
✦ ‘स्व’ और ‘शून्य’ एक साथ नहीं टिक सकते।
19. ईश्वर कुछ नहीं देता — केवल ले लेता है।
✦ जो तू है, उसे छीनता है — ताकि तू शून्य होकर वही बन जाए।
20. जहाँ प्रेम है — वहाँ मांग नहीं होती।
✦ और जहाँ मांग नहीं, वहाँ पहली बार शून्य खिलता है।
21. शून्य ही ईश्वर का असली मंदिर है — बाकी सब तीर्थ भ्रम हैं।
✦ जो भीतर रिक्त हुआ — वही मंदिर बन गया, और वही परम को पा गया।
अज्ञात अज्ञानी