✨ प्रस्तावना
यह ग्रंथ किसी पंथ, मत, या तर्क की घोषणा नहीं है — यह एक अंतर्यात्रा है, जो प्रकृति, सौंदर्य, प्रेम और चेतना के माध्यम से ईश्वर की लीला का साक्षात्कार कराती है। इस पुस्तक में वह सत्य नहीं है जो किताबों में पढ़ा जाता है, बल्कि वह अनुभूति है जो किसी पुष्प की सुगंध, किसी नदी की लहर, या किसी प्रेममयी स्पर्श में जीवित है। आज का मनुष्य ईश्वर के सृजन से दूर, अपने ही बनाए बंधनों — धर्म, ज्ञान, व्यवस्था — में उलझा है। यह ग्रंथ एक अत्यंत सरल निमंत्रण है: इस माया से बाहर निकलकर उस लीला में प्रवेश किया जाए, जो मुक्त करती है, जो प्रेम कराती है, और जो स्वरूप से ही परमात्मा है।
📖 "ईश्वर की लीला बनाम मानव की माया: एक सहज अनुभूति"
यह सृष्टि मात्र घटनाओं, तर्क या गणना का योग नहीं है— यहाँ का हर कण, हर सुगंध, हर रंग, हर ध्वनि जीवन-दाता ईश्वर की अलौकिक लीला का हिस्सा है। मनुष्य जब अपने मन और बुद्धि के आवरण उतारता है, तो उसके भीतर यह अनुभूति अत्यंत स्वाभाविक रूप से उठती है कि प्रकृति, प्रेम, आनंद, सौंदर्य— ये सब मनुष्यों द्वारा रचित नहीं, बल्कि परमात्मा के खेल हैं। यही लीला है।
ईश्वर की लीला – अर्थात वह सृजन, जिसमें कोई स्वार्थ, कोई बंधन, कोई अच्छा-बुरा नहीं। यह अस्तित्व बिना प्रयोजन भी पूर्ण, बिना उद्देश्य भी सुंदर, बिना मूल्यांकन के भी अमूल्य है। एक फूल का खिलना, पक्षियों का गाना, नदी का बहना, बच्चे का मुस्कुराना— ये सब यदि बुद्धि से नहीं, हृदय से महसूस किए जाएँ, तो उनमें छुपा परम आनंद खींच लाता है। जब इंसान में इतना सरल दृष्टिकोण विकसित होता है, वह देख पाता है कि हर छोटी से छोटी चीज में सच्चा सुख, रस और ममत्व छिपा हुआ है।
इसके विपरीत, जब मनुष्य दुनिया को अपनी जरूरतों, अपनी मान्यताओं, अपने डर और इच्छाओं के आइने से देखता है, तो वही दिव्य लीला माया में बदल जाती है। माया क्या है? माया वह आवरण है, जो मनुष्य के अपने मन, समाज और संस्कारों ने रच दिया है। माया वह भ्रम है, जिसमें मंदिर, मूर्तियाँ, धर्म, विज्ञान, जाति, पंथ— सब मिलकर सच्चाई को परिभाषित करने का दावा करते हैं। जबकि ये इंसान के बनाए बौद्धिक प्रपंच हैं, इनमें अप्राकृतिक आडंबर और अकृत्रिम सुख की खोज है। ये सब आदमी की व्यवस्था है, सृजन नहीं। धर्म जब बंधन बन जाता है, प्रेम जब शर्तों में बदल जाता है, प्रकृति जब संसाधन बन जाती है— तब लीला खो जाती है, और बचती है केवल माया।
लीला और माया के इस अंतर को सबसे सहजता से अनुभव किया जा सकता है— जब हम अपने आसपास देखना शुरू करते हैं। क्या आपने कभी नदी के बहाव को, फूल की ताजगी को, किसी बालक की हँसी को बिना किसी तर्क या महत्व के अनुभव किया है? उस क्षण आप महसूस करेंगे कि जो आनंद, जो शांति, जो सार्थकता आपको वहाँ मिलती है, वह किसी पूजा, उपवास, त्याग या तपस्या में भी संभव नहीं। क्योंकि वहाँ आप मात्र “हो” रहे हैं— आपका अस्तित्व जीवन की लीला के साथ एकरस हो जाता है। तब मनुष्य और परमात्मा, अनुभूति और अनुभव, अनुभवकर्ता और अनुभव— सबका भेद मिट जाता है।
माया जहाँ तर्क, तुलना, संग्रह, अधिकार, पद, मान्यता, सिद्धि, सफलता जैसे शब्दों के जाल में उलझा है, वहीं लीला सिर्फ आनंद, सौंदर्य, सहजता, और समर्पण में रमी हुई है। माया में रहना जीवन को निरंतर असंतोष में डालता है— मैं क्या बनूँ, कितना कमाऊँ, कौन-सा धर्म सच्चा है, कौन-सी पूजा श्रेष्ठ है, कौन सही कौन गलत?— ये सवाल खत्म ही नहीं होते। जबकि लीला में सिर्फ एक ही भाव शेष रह जाता है— जो है, वही पूर्ण है। वहाँ होना ही पर्याप्त है।
कई लोग समझते हैं कि मुक्ति कठिन है, तपस्या चाहिए, त्याग चाहिए; परंतु यह केवल उनका भ्रम (माया) है। असली मुक्ति तो बस अनुभव में है— जब तुम किसी भी ईश्वर-निर्मित सौंदर्य को बिना मूल्यांकन, बिना अतीत या भविष्य के विचार के जीते हो, वहाँ स्वतः अद्वितीय आनंद, शांति और मुक्ति मिलती है। वही लीला है। वही सच्चा 'दर्शन’ है— न कि किसी मंदिर में झुकना या नियम निभाना।
अंत में, यह ग्रंथ केवल ज्ञान का संचय नहीं, बल्कि जीवन को एक नई, सहज, रसपूर्ण दृष्टि से देखने की प्रेरणा है— ताकि माया के झूठे बंधनों को छोड़कर, ईश्वर की लीला में खुलकर, मुक्त होकर, प्रेम से जिया जा सके। यही जीवन की असली साधना है, और यही आत्मा की मुक्ति व पूर्णता है।
✨ लेखक का अंतिम संदेश:
यह ग्रंथ किसी ज्ञान-विलास, उपदेश, या सिद्धांत का प्रदर्शन नहीं है।
यह मेरी अनुभूतियों का एक सच्चा प्रस्फुटन है —
एक साधक की तरह जीवन को देखने, सुनने, चखने और महसूस करने के क्रम में,
जहां जहां ईश्वर के थे — वहां वहां मैं मौन हुआ, और वही शब्द बनकर उतर आए।
मैं जानता हूं, ईश्वर को शब्दों में बांधना — जैसे आकाश को मुट्ठी में पकड़ना है।
फिर भी, जैसे एक बच्चा बारिश को पकड़ने के लिए हाथ फैलाता है —
वैसा ही एक निश्छल प्रयास है यह ग्रंथ।
यह किसी धर्म का प्रचार नहीं,
किसी विधि का मार्ग नहीं,
किसी मत का रक्षण नहीं —
यह केवल एक निमंत्रण है:
तुम जीवन को अनुभव करो, प्रेम करो, और हर क्षण ईश्वर की लीला में विलीन हो जाओ।
मेरा आग्रह है —
मंदिरों में नहीं, अपने भीतर उतर कर देखो।
ग्रंथों में नहीं, गिरती हुई पत्तियों में ढूंढो।
प्रवचन में नहीं, मौन में ईश्वर बुला रहा है।
यदि इस ग्रंथ का एक भी शब्द तुम्हारे हृदय की जड़ों में स्पंदन भर सके —
तो वह मेरा नहीं, ईश्वर का शब्द है,
जिसने तुम्हारे भीतर तुम्हें जगाया।
जीवन को एक लीला की तरह देखना सीखो,
नियमों से नहीं — प्रेम से जियो।
यदि कभी लगे कि कुछ समझ नहीं आया,
तो प्रश्न मत करना — देखो, सुनो, और मौन हो जाओ।
वही मौन तुम्हें दर्शन देगा।
मैं अंत में यही कहता हूँ —
⬩ जहाँ प्रेम है, वहाँ धर्म है।
⬩ जहाँ रस है, वहाँ मुक्ति है।
⬩ जहाँ जीवन है जैसे है, वैसा ही — वही ईश्वर की लीला है।
तुम अपने भीतर उतरोगे तो पाओगे —
मैं नहीं कह रहा था,
ईश्वर स्वयं कह रहा था — तुम्हारे माध्यम से।
अब यह पुस्तक तुम्हारी है —
जैसे जीवन तुम्हारा है।
इसे आनन्द से पढ़ो नहीं — जीओ।
— तुम्हारा ही एक आत्मीय दृष्टा
अज्ञात अज्ञानी