लेखक: Aadi Jain
बहुत समय पहले की बात है, जब इंसान और जादू एक ही आकाश के नीचे सांस लेते थे। उस समय एक अद्भुत नगरी हुआ करती थी — सूर्यलोक। वहाँ हर दिशा में रौशनी थी, और जादू जीवन का हिस्सा था। सूर्यलोक के राजा थे सूर्यवर्धन — एक महान और शक्तिशाली जादूगर, जिनके पास इतनी जादुई ताकत थी कि वो चाहें तो पूरी दुनिया को अपने इशारों पर चला सकते थे।
राजा सूर्यवर्धन के इकलौते पुत्र थे राजकुमार आदित्य — वीर, दयालु और न्यायप्रिय। जब समय आया, आदित्य ने एक बुद्धिमान और सुंदर राजकुमारी प्रज्ञा से विवाह किया। दोनों का प्रेम सूर्य और चांद की तरह था — अलग, फिर भी एक-दूसरे के बिना अधूरा।
कुछ ही वर्षों में, उनके जीवन में एक सुंदर बच्चा आया — वात्सल्य।
वात्सल्य अपने दादा सूर्यवर्धन और माता-पिता के साथ खेलता, सीखता, और जादू से भरी कहानियों में खोया रहता था। उसका हँसता-खेलता बचपन पूरे महल की रौनक था। लेकिन अंधकार कभी दूर नहीं रहता।
सूर्यलोक के महल में काम करते थे एक पति-पत्नी — नक्ष और नक्षत्रा। बाहर से वो बिल्कुल साधारण सेवक लगते, पर असल में वो काले जादू के सबसे घिनौने उपासक थे। उन्हें जब ये पता चला कि राजा सूर्यवर्धन की शक्ति असीम है, तो उनके भीतर लालच की आग भड़क उठी।
एक अंधेरी रात, जब आकाश में ग्रहण लगा था और महल के द्वार कमजोर थे, नक्ष और नक्षत्रा ने महल पर हमला बोल दिया। उनकी सेना अंधेरे से बनी थी — छाया, डर और धोखे से भरी हुई।
राजा सूर्यवर्धन ने महसूस किया कि अब उनका अंत निकट है। उन्होंने अपनी सारी शक्ति एक चमत्कारी कड़े (bracelet) में समेटी, और अपने पोते वात्सल्य को पहना दिया। उन्होंने आदित्य और प्रज्ञा से कहा —
“इस बच्चे को बचा लो। इसमें अब मेरा अस्तित्व है। इसे कहीं ऐसी जगह ले जाओ जहाँ अंधकार की छाया भी न पहुँच सके।”
आदित्य और प्रज्ञा ने विदा ली। उन्होंने जादू का प्रयोग करके एक छुपा हुआ रास्ता खोला और सूर्यलोक छोड़ दिया। वे पहुँचे मध्यप्रदेश के रतलाम जिले के पास, एक शांत और छोटे से गांव — धौलपुरा में।
वहाँ उन्हें मिले विक्रम और अन्नपूर्णा, एक साधारण ग्रामीण दंपत्ति जिनकी कोई संतान नहीं थी। आदित्य और प्रज्ञा ने वात्सल्य को उनके सुपुर्द कर दिया — यह कहकर कि वे इस बच्चे के माता-पिता नहीं बन सकते, पर उसका पालन-पोषण जरूर करें।
इसके बाद, आदित्य और प्रज्ञा वापस सूर्यलोक लौटे — लेकिन अब वहाँ उनका कोई स्थान नहीं था। सूर्यवर्धन की मृत्यु हो चुकी थी, और नक्ष-नक्षत्रा ने राज्य पर कब्ज़ा कर लिया था। खुद को छुपाने के लिए, आदित्य और प्रज्ञा ने एक दुर्लभ मंत्र से पक्षियों का रूप धारण कर लिया — और आकाश में खो गए।
समय बीतता गया।
वात्सल्य बड़ा होता गया, पर उसे अपनी असली पहचान का कोई अंदाज़ा नहीं था। वो खुद को बस एक सामान्य गांव का बच्चा समझता था। उसके माँ-पापा — विक्रम और अन्नपूर्णा — ने उसे प्यार दिया, लेकिन जब वह तेरह साल का हुआ, एक भयानक हादसे में वे दोनों भी चल बसे।
अब वात्सल्य को रतलाम शहर में रहने वाली अपनी भुआ के पास भेजा गया। वहाँ उसके जीवन में दुःख और तिरस्कार का एक नया अध्याय शुरू हुआ। उसकी भुआ उसे बोझ समझती, फूफाजी उससे कतराते, और उसके कज़िन रोज़ उसका अपमान करते। लेकिन उसके पास एक चीज़ थी जो उसने कभी नहीं छोड़ी — वह कड़ा, जो अब भी उसके हाथ में चमकता था, जैसे कोई उसे दूर से देख रहा हो।
एक दिन, जब उसे बहुत बुरा महसूस हुआ, वह भागकर वापस धौलपुरा चला गया — उस पुराने बरगद के पेड़ के पास, जहाँ उसका बचपन बीता था।
वहाँ खड़ा होकर वह रोने लगा। तभी अचानक उसके bracelet से नीली रौशनी निकलने लगी। ज़मीन पर एक गोलाकार आकृति उभरने लगी और एक चमकता हुआ दरवाज़ा खुल गया। वह दरवाज़ा हवा में तैरता था, और उसके भीतर से एक आवाज़ आई —
“वात्सल्य... आओ। यह समय है तुम्हें तुम्हारा सत्य जानने का।”
डर और आश्चर्य के बीच, वह उस दरवाज़े के भीतर चला गया। अगले ही पल, वह खुद को एक अजीब और सुंदर दुनिया में पाया — अन्वेषा, जादू की नगरी जहाँ समय और शक्ति का नियम अलग था।
वहाँ उसकी मुलाक़ात हुई एक वृद्ध जादूगर से — ऋषि अर्गव। उन्होंने उसे देखते ही पहचान लिया और कहा —
“राजकुमार... अंततः तुम आ ही गए।”
वात्सल्य चौंक गया। "राजकुमार?" उसने पूछा।
ऋषि अर्गव ने उसे पूरी सच्चाई बताई — उसके असली माता-पिता, उसके दादा महाराज सूर्यवर्धन, नक्ष और नक्षत्रा का षड्यंत्र, और वो bracelet जिसमें पूरी जादुई शक्ति छिपी थी।
“तुम अकेले नहीं हो, वात्सल्य,” ऋषि ने कहा। “तुम्हारे माता-पिता आज भी जीवित हैं। उन्होंने अपना रूप बदला है, पर वे तुम्हें देख रहे हैं, तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं।”
वात्सल्य की आँखें भर आईं। उसने ऋषि अर्गव की मदद से एक पुराना मंत्र पढ़ा — सूर्यमंत्र — और bracelet को activated किया। तभी एक प्रकाश फूटा और दो सफेद पक्षी उड़ते हुए पास आए। उनकी आँखों में आँसू थे... और अगले ही क्षण वे इंसानी रूप में बदल गए।
प्रज्ञा और आदित्य — जीवित, थके हुए, लेकिन अपने बेटे को देखकर पूर्ण।
वात्सल्य दौड़कर माँ के गले लग गया। “तुमने मुझे क्यों छोड़ा?” उसने कहा।
माँ ने रोते हुए जवाब दिया — “ताकि तुम बच सको... ताकि इस दुनिया को फिर से उजाला मिल सके।”
उसके बाद, वात्सल्य ने ऋषि अर्गव से प्रशिक्षण लिया, और अंत में नक्ष और नक्षत्रा से एक आखिरी युद्ध लड़ा — जिसमें उसके कड़े की शक्ति, उसकी सच्चाई और उसके भीतर की करुणा ही उसका सबसे बड़ा अस्त्र बना।
युद्ध के बाद, सूर्यलोक फिर से रोशन हुआ। अंधकार मिट गया।
वात्सल्य अब केवल एक लड़का नहीं था — वो सूर्यलोक का संरक्षक था। उसने अपनी दोनों दुनियाओं को जोड़ा — जादू और मानवता को मिलाया। लेकिन उसने अपने बीते कल को नहीं भुलाया।
वो धौलपुरा लौटा — उस मिट्टी को चूमा जहाँ से उसकी कहानी शुरू हुई थी।
और फिर, एक नई कहानी की शुरुआत हुई...