यह कहानी है वशु की, जो एक किन्नर के रूप में जन्म लेता है, पर उसे उसके माता-पिता भगवान का वरदान मानते हैं। समाज के तानों, स्कूल की बुराईयों और जीवन की ठोकरों के बीच उसका एकमात्र सहारा होता है — उसका सच्चा दोस्त अर्नव। अर्नव के विदेश जाने के बाद वशु खुद को वशुद्रा के रूप में फिर से जन्म देता है। संघर्षों के बीच वह एक प्रसिद्ध वकील और फिर भारत की पहली ट्रांसजेंडर जज बनती है। यह उपन्यास आत्म-सम्मान, प्रेम और पहचान की लड़ाई का प्रेरणादायक चित्र है।
लेखक: Aadi Jain
कहानी का शीर्षक: "मैं वशुद्रा हूँ"
संदीप और माया, एक साधारण लेकिन धार्मिक दंपत्ति, शादी के 15 वर्षों तक संतान सुख से वंचित रहे। मंदिरों की परिक्रमा, व्रत-उपवास, मन्नतें — सब कुछ आज़मा लिया। और फिर, एक दिन, माया की कोख से जन्म हुआ वशु का।
डॉक्टरों ने कहा, "आपका बच्चा किन्नर है।"
गांव वाले बोले, "ये भगवान का श्राप है।"
लेकिन संदीप और माया ने कहा, "ये भगवान का प्रसाद है।"
वशु बचपन से ही लड़कियों जैसी हरकतें करता। मां-बाप को लगा — "बड़ा होगा तो ठीक हो जाएगा।" पर ऐसा हुआ नहीं।
चार साल की उम्र में वशु स्कूल गया। वहां बच्चे तो मासूम थे, पर उनके मां-बाप और शिक्षक वशु को अजीब नजरों से देखते।
ताने मिलते — "चक्का", "किन्नर", "नर-नारी"।
बस एक ही था जो वशु का दोस्त बना — अर्नव।
अर्नव रईस खानदान से था। उसके मां-बाप ने उसे वशु से दूर रहने की चेतावनी दी, पर अर्नव ने छुप-छुपकर दोस्ती निभाई।
कभी कोई वशु को चिढ़ाता, तो अर्नव डटकर खड़ा हो जाता — "ये मेरा दोस्त है, किसी ने कुछ कहा तो ठीक नहीं होगा।"
समय बीता। 12वीं की परीक्षा आई। अर्नव को 87% और वशु को 92% अंक मिले।
अर्नव ने लॉ पढ़ने का फैसला किया और वशु ने भी।
पैसे नहीं थे, पर अर्नव की मदद और वशु की मेहनत ने उसे एक प्रतिष्ठित कॉलेज में दाखिला दिलवाया।
पर एक दिन अर्नव के पिता ने दोनों को साथ देख लिया। उन्होंने गुस्से में अर्नव को विदेश भेज दिया।
वशु फिर अकेला पड़ गया। इस बार उसने हार नहीं मानी।
नया शहर, नई पहचान — अब वह वशुद्रा बन चुकी थी।
मुंबई के एक लॉ कॉलेज से उसने क्रिमिनल लॉ की पढ़ाई पूरी की। समाज के तानों को पीछे छोड़कर उसने खुद को साबित किया।
सालों बाद, एक दिन हाई कोर्ट में एक रेप केस के दौरान अर्नव और वशुद्रा आमने-सामने आए — दो विरोधी वकील के रूप में।
वशुद्रा केस जीत गई।
अर्नव हैरान था। उसने अपने सहायक से पूछा — "ये कौन है?"
सहायक बोला — "सर, ये कोई साधारण लड़की नहीं, एक ट्रांसजेंडर हैं — वशुद्रा चक्रवर्ती।"
अर्नव के पैरों तले ज़मीन खिसक गई — "वशु?"
बाहर निकलते ही उसे आवाज़ आई — "अर्नव!"
अर्नव पलटा — "मिस चक्रवर्ती?"
वशु मुस्कुराई — "मैं वशु ही हूँ।"
अर्नव भावुक हो गया। पूछा — "तू लड़की कैसे बनी?"
वशु बोली — "तेरे जाने के बाद बहुत कुछ सहा। समाज ने मेरी पहचान पर सवाल उठाए। पर मैंने खुद को खोने नहीं दिया। खुद को बनाया — वशुद्रा!"
अर्नव ने धीरे से कहा — "तू पहले वाली ही ज्यादा अच्छी लगती थी।"
धीरे-धीरे दोनों फिर मिलने लगे। पर इस बार वशु एक 'लड़की' जैसी दिखती थी — समाज की नजरों में स्वीकार्य।
एक दिन अर्नव ने दिल खोल दिया — "मैं तुमसे प्यार करता हूं।"
वशु चौंक गई। "मैं न लड़की हूं, न लड़का। समाज हमें कबूल नहीं करेगा, तुम्हारे माता-पिता भी नहीं।"
अर्नव ने फिर भी कोशिश की, पर जैसे उम्मीद थी, उसके पिता भड़क उठे — "मेरे घर की बहू एक चक्का नहीं बन सकती!"
अपमानित वशु चुपचाप चली गई।
अर्नव टूट गया। पर परिवार के दबाव में आकर उसकी शादी रच गई और वह फिर विदेश चला गया।
वशु ने फिर खुद को संभाला। इस बार जज बनने का सपना देखा — और पूरा किया।
वो भारत की पहली ट्रांसजेंडर जज बनी। समाज की मुट्ठी में सवालों के जवाब लेकर बैठी।
सालों बाद अर्नव भारत लौटा — उसकी एक बेटी थी, नाम था वशुद्रा।
कोर्ट में एक केस के दौरान अर्नव को पता चला कि जज वशुद्रा चक्रवर्ती अब तक अविवाहित हैं।
बाहर निकलते ही फिर वही मुलाकात —
"अर्नव तुम?"
"मिस... नहीं, वशु?"
अर्नव ने कहा — "तूने शादी क्यों नहीं की?"
वशु बोली — "कौन स्वीकार करेगा एक ट्रांसजेंडर को जीवनसाथी?"
अर्नव मुस्कुराया — "मेरी बेटी का नाम वशुद्रा है, क्योंकि मैं तुम्हें नहीं पा सका... पर उसे तुम्हारे जैसा बनाना चाहता हूं — हिम्मती, सच्ची, और अपने अस्तित्व पर गर्व करने वाली।"
आंखें नम हो गईं।
वशु ने कहा — "शुक्रिया अर्नव, मेरी पहचान को सम्मान देने के लिए।"
दोनों मुस्कुराए — बिना किसी शिकवा, बिना किसी उम्मीद...
बस, एक अधूरी कहानी में पूर्णता की झलक लिए।
- समाप्त -