Veer Savarkar in Hindi Short Stories by Mini Kumari books and stories PDF | वीर सावरकर

Featured Books
Categories
Share

वीर सावरकर

वीर सावरकर के प्रति दुर्व्यवहार 

सावरकर का मामला बिल्कुल अनोखा, चौंकाने वाला, सभी देशभक्तों एवं चाहने वाले लोगों के लिए बेहद दर्दनाक है। उन्होंने ब्रिटिश जेल (कालापानी) में सबसे अधिक क्रूरता का सामना किया। जैसे कि इतना ही काफी नहीं था, नेहरू के नेतृत्व वाले स्वतंत्र भारत ने उन पर एक झूठा मामला चलाते हुए उन्हें एक बार फिर जेल में डाल दिया और उन्हें बदनाम किया। 

सावरकर को अपने सभी बलिदानों के बदले में क्या हासिल हुआ? अपमान! और यह कहीं अधिक अपमानजनक था, क्योंकि यह अपमान ब्रिटिशों द्वारा नहीं किया गया था, बल्कि यह स्वतंत्र भारत के सरकार की कारस्तानी थी—और वह भी उनके खिलाफ झूठे आरोप लगाकर। इससे बुरा और क्या हो सकता है? शीर्षगांधीवादी नेता, जिन्होंने ब्रिटिश जेलों में न के बराबर कष्ट उठाया (भूल#13), ने अपने तमाम ‘बलिदानों’ की पूरी कीमत वसूली और आजादी के बाद सत्ता प्राप्त कर ली; लेकिन सावरकर जैसे लोग, जिन्होंने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया (और जो अधिकांश शीर्ष गांधीवादी नेताओं से कहीं अधिक बुद्धिमान व सक्षम थे) को बदनाम, अपमानित व उपेक्षित करके भुला दिया गया। 

विनायक दामोदर सावरकर (1883-1966) उर्फ स्वातंत्र्यवीर सावरकर एक स्वतंत्रता सेनानी, कवि, लेखक, नाटककार, शानदार वक्ता, तर्कवादी, नास्तिक और सुधारक थे, जिन्होंने हिंदू जाति-व्यवस्था को खत्म करने की जोरदार वकालत की और रूढ़िवादी हिंदू रीति-रिवाजों का कड़ा विरोध किया। उन्होंने रत्नागिरि में ‘पतित पावन मंदिर’ का निर्माण किया, जिसके द्वार दलितों सहित सबके लिए खुले थे। हालाँकि, महाराष्ट्र के रूढ़िवादी ब्राह्म‍णों के एक वर्ग ने उनके सुधार का विरोध किया, लेकिन वे डॉ. बी.आर. आंबेडकर की प्रशंसा और सम्मान अर्जित करने में सफल रहे। सावरकर एक बहु-प्रतिभाशाली व्यक्तित्व के धनी व्यक्ति थे, जिन्होंने कई ऐसे शब्दों की भी रचना की, जो तभी से आम चलन में हैं—‘चित्रपट’, ‘दूरदर्शन’, ‘निर्देशक’, ‘संपादक’, ‘महापौर’, ‘पार्षद’ आदि। 

सावरकर भारत और इंग्लैंड में पढ़ाई के दिनों में ही क्रांतिकारी बन गए थे। वे लंदन में क्रांतिकारी श्यामजी कृष्ण वर्मा द्वारा स्थापित ‘इंडिया हाउस’ से जुड़ गए थे। उन्होंने ‘अभिनव भारत संस्था’ और ‘मुक्त भारत संस्था’ का गठन किया। उन्होंने क्रांतिकारी साधनों द्वारा भारत की पूर्ण स्वतंत्रता का कारण बताते हुए प्रकाशन भी किया। उनकी प्रसिद्ध पुस्‍तक ‘1857 : फर्स्टवॉर अ‍ॉफ इंडिपेंडेंस’ ने ब्रिटिशों को इतना नाराज कर दिया कि उन्होंने उस पर पाबंदी लगा दी और उसके प्रकाशित होने के छह महीने के भीतर ही उसकी सभी प्रतियों को जब्त कर लिया था। 

सन् 1910 में अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए गिरफ्तार किए जाने के बाद उन्होंने फ्रांस के मार्सिले से लाए जाने के दौरान फरार होने का साहस दिखाया। एक कॉन्‍स्टेबल के बाहर निगरानी के लिए खड़े होने के बावजूद सावरकर शौचालय में घुसे, खिड़की तोड़ी, किसी तरह से रेंगकर उसके बाहर निकले और चलते जहाज से समुद्र में कूद गए तथा तैरते हुए मार्सिले के तट पर पहुँच गए। उनके मित्रों (जिनमें मैडम भीकाजी कामा भी शामिल थीं) को उन्हें लेने वहाँ पहुँचना था, लेकिन उन्हें कुछ क्षणों की देरी हो गई और फ्रांसीसी पुलिस ने उन्हें पकड़कर वापस ब्रिटिश पुलिसकर्मियों को सौंप दिया। अब उन्हें जंजीरों से बाँधकर कड़ी निगरानी में रखा गया। 

उन्हें कुल 50 वर्ष की कैद के साथ दो आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई! उन्हें अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह की सेल्युलर जेल (कालापानी) में कैद किया गया (और उन्हें क्रूर व अमानवीय यातनाएँ दी गईं), जो जेलों में बंद नेहरू, गांधी और अन्य शीर्ष गांधीवादी नेताओं को मिलने वाले विशेषाधिकारों के बिल्कुल विपरीत थीं। वे शायद इतिहास में पहले ऐसे कवि थे, जिन्हें जेल में कागज और कलम से भी वंचित रखा गया, जबकि नेहरू ने अपनी सारी पुस्तकें जेल में ही लिखीं, जहाँ उन्हें ब्रिटिश जेलरों द्वारा विशेष सुविधाएँ उपलब्ध करवाई जाती थीं। सावरकर ने नए रास्ते तलाशे और जेल की दीवारों पर सींगों व कीलों से अपनी रचनाओं को उकेरा। 

ध्यान देने योग्य बात यह है कि विनायक दामोदर सावरकर के बड़े भाई विट्ठल सावरकर भी एक क्रांतिकारी थे, जो कालापानी की सेल्युलर जेल में ही बंद थे। उनके छोटे भाई भी क्रांतिकारी थे। उनका परिवार बहादुर देशभक्तों और क्रांतिकारियों का परिवार था। 

शहीद भगत सिंह, राजगुरु एवं चंद्रशेखर आजाद सावरकर के परिवार के बहुत बड़े प्रशंसक थे और उनसे प्रेरणा लेते थे। क्रांतिकारी मदनलाल ढींगरा, जिन्होंने सन् 1909 में तत्कालीन वायसराय लॉर्ड कर्जन की हत्या के असफल प्रयास के बाद लंदन में सर वायली को गोली मार दी थी, सावरकर के बड़े अनुयायी थे। 

सावरकर को सन् 1937 में हिंदू महासभा का अध्यक्ष चुना गया और वे 1943 तक उस पद पर बने रहे। 1940 में मुसलिम लीग द्वारा पाकिस्तान का प्रस्ताव लाए जाने के बाद सावरकर को हिंदुओं एवं भारत के सामने आने वाली समस्याओं का अंदाजा था और वे चाहते थे कि हिंदू सैन्य रूप से अच्छे से सुसज्जित हों। इसलिए उन्होंने ‘भारत छोड़ो 1942’ का हिस्सा बनने के बजाय हिंदुओं से अपील की कि वे इस मौके का फायदा उठाएँ और द्वितीय विश्व युद्ध में अंग्रेजों के साथ मिलकर खुद को सैन्य तरीकों से लैस कर लें। संयोग से, बड़ी संख्या में हिंदुओं ने उनकी बात का अनुसरण किया और ब्रिटिश सेना में शामिल हो गए और फिर उसे मुसलमान-बहुल सेना से हिंदू-बहुल सेना में बदल दिया। भारत को इसका लाभ स्वतंत्रता और विभाजन के बाद मिला, जब भारत के पास एक बड़ी सेना थी; क्योंकि सेना में तैनात अधिकांश मुसलमानों ने पाकिस्तान जाना तय किया। गांधी और नेहरू के बिल्कुल विपरीत, सावरकर इस बात को जानते थे कि भारत जैसे एक बड़े देश को खुद को सुरक्षित रखने के लिए एक बड़ी सेना चाहिए। अलीगढ़ मुसलिम यूनिवर्सिटी के वी.सी. डॉ. जियाउद्दीन अहमद ने हालाँकि सशस्त्र बलों में हिंदुओं की बढ़ती संख्या और मुसलमानों की घटती संख्या का मामला उठाया था, लेकिन अगर द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सावरकर ने जबरदस्त भरती अभियान न चलाया होता तो आजादी के बाद पाकिस्तान के पास सैनिकों की 60 से 70 प्रतिशत संख्या होती, जो युद्ध की स्थिति में भारतीय सीमाओं को कब्जाने के लिए बहुत थी। किंतु दुःख की बात है कि सावरकर का यह योगदान आज भुला दिया गया है। 

‘भारत छोड़ो’, सावरकर ने जिसका विरोध किया था, से भारत या कांग्रेस को कुछ भी हासिल नहीं हुआ। यह सिर्फ दो ही महीनों में बंद हो गया और इसका उलटा असर हुआ (अधिक जानकारी के लिए कृपया भूल#12 और अमेजन पर उपलब्ध पुस्‍तक ‘सरदार पटेल : द बेस्ट पी.एम. इंडिया नेवर हैड’ पढ़ें), जिसके चलते ब्रिटिशों को भारत-विरोधी, हिंदू-विरोधी और कांग्रेस-विरोधी होने का पूरा मौका मिला और वे मुसलमान-समर्थक, मुसलिम लीग-समर्थक और पाकिस्तान-समर्थक हो गए, जिसके चलते अंततः विभाजन हुआ। 

हिंदू महासभा के कार्यकर्ताओं ने गांधी की जिन्ना से वार्त्ता को तुष्टीकरण बताते हुए उसका विरोध किया। सावरकर गांधी को एक नौसिखिया और कायर नेता मानते थे। वे कहते थे कि हालाँकि गांधी ‘करुणा और क्षमा की बात करते हैं’, लेकिन उनकी ‘सोच बेहद बचकानी है’। 

सावरकर कई मायनों में गांधी और नेहरू से कई साल आगे थे। गांधी, नेहरू और कांग्रेस ने भारत की पूर्ण स्वतंत्रता की बात काफी देर से वर्ष 1929 के अंत में उठाई, जबकि सावरकर 1900 में ही इसकी माँग उठा चुके थे! विदेशी कपड़ों की होली जलाने के जिस काम पर गांधीवादी अपना हक जमाते हैं, उसे सावरकर बहुत पहले ही सन् 1905 में अंजाम दे चुके थे, जिसकी बाद में गांधी ने नकल की। पाकिस्तान के गठन पर सावरकर ने बिल्कुल ठीक अंदाजा लगाया था— “जब तक भारत के निकट धार्मिक कट्टरता पर आधारित एक देश मौजूद है, भारत कभी भी शांति से नहीं रह पाएगा।” 

वर्ष 1903 और उसके बाद, जब पूर्वी बंगाल (अब बँगलादेश) के मुसलमानों ने असम की ब्रह्म‍पुत्र घाटी में जीवन-यापन के लिए पलायन करना शुरू कर दिया, तब कुछ चुनिंदा लोगों की तरफ से कुछ हलचल शुरू हुई तो भोले और छद्म धर्मनिरपेक्ष नेहरू ने गैर-जिम्मेदाराना बयान दिया, “प्रकृति खाली स्थान से नफरत करती है। इसका मतलब है कि जहाँ भी खाली जगह मौजूद है, हम लोगों को वहाँ बसने से कैसे रोक सकते हैं?” सावरकर ने अपने उत्कृष्ट पूर्वानुमान के साथ जवाब दिया, “प्रकृति तो जहरीली गैसों से भी नफरत करती है। असम में इतनी बड़ी संख्या में मुसलमानों के आने से न केवल स्थानीय संस्कृति को खतरा पैदा हो गया है, बल्कि यह आगामी समय में भारत के लिए उत्तर-पूर्वी सीमा पर एक राष्ट्रीय सुरक्षा समस्या भी साबित होगी।” 

सावरकर ने 9 दिसंबर, 1907 को एक बयान में स्वतंत्र यहूदी राज्य का खुला समर्थन किया और यहूदियों को उनकी पूरी ऐतिहासिक पवित्र भूमि तथा फिलिस्तीन की जन्मभूमि को वापस दिलवाने की माँग की। नेहरू द्वारा मुसलमानों का तुष्टीकरण बताते हुए सावरकर ने संयुक्त राष्ट्र में भारत द्वारा यहूदी देश के निर्माण के खिलाफ दिए गए वोट को दुःखद बताया। (भूल#54) 

सन् 1950 में तिब्बत पर चीन के आक्रमण और नेहरू की कमजोर नीति पर ध्यान न देते हुए सावरकर ने सन् 1954 में ही पूर्वानुमान लगा लिया था, “चीन ने तिब्बत के साथ जो किया है, उसके बाद चीनियों के सामने झुकना उसकी भूख का बढ़ाना होगा। मुझे इस बात पर जरा भी आश्चर्य नहीं होगा कि भारत के लाचार रवैए को देखते हुए चीन भारतीय जमीन को भी निगलने की कोशिश करेगा।” 

सावरकर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कट्टर आलोचक बन गए। इस बात पर जरा भी आश्चर्य नहीं है कि उन्हें गांधी की हत्या के मामले में झूठा फँसाने की पूरी कोशिश की गई। मनोहर मलगाँवकर ने व्यापक शोध के बाद सन् 1977 में ‘द मैन हू किल्ड गांधी’ नामक पुस्तक प्रकाशित की। उन्होंने सावरकर पर कोई आरोप नहीं लगाया। यहाँ उस पुस्‍तक में लेखक की प्रस्तावना से एक उद्‍धरण दिया गया है— 
 “ ...डॉ. भीमराव आंबेडकर ने श्री एल.बी. भोपटकर को गुप्त आश्वासन दिया था कि उनके मुवक्किल श्री वी.डी. सावरकर को संदिग्ध तौर पर हत्या के आरोप में फँसाया गया है। इसके बाद कई अन्य प्रासंगिक विवरण—जैसे एक मजिस्ट्रेट द्वारा ‘हेर-फेर’ की बात को स्वीकार करना, जबकि उसका काम सिर्फ जो बोला जा रहा था, उसे रिकॉर्ड करना था—बाद के वर्षों में सामने आए।” 

मलगाँवकर की पुस्‍तक में यह भी लिखा है— 
“ ...आखिर पुलिस सावरकर को फँसाने को लेकर इतनी उत्सुक क्यों थी? क्या ऐसा सिर्फ इसलिए था कि वह नाथूराम द्वारा गांधी की हत्या करने से पहले ही उसे गिरफ्तार करने में नाकाम रही थी, इसलिए वे सिर्फ एक ऐसे बड़े नेता, विशेषकर जिसके संबंध सरकार के साथ बेहद कड़वे हों, को इस सनसनीखेज साजिश में फँसाकर अपना चेहरा बचाने का प्रयास कर रहे थे? या फिर सरकार खुद या उसका कोई शक्तिशाली गुट, जो पुलिस के जरिए एक प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक संगठन को खत्म करने का प्रयास कर रहे थे या फिर कम-से-कम एक न झुकने वाले एक विपक्षी बड़े नाम को। 

“ ...गांधी की हत्या के मामले में सावरकर को आरोपी बनाया जाना शायद राजनीतिक प्रतिशोध का नतीजा हो सकता है। निश्चित रूप से, बैज (जिसने सावरकर का नाम लिया था) का इतिहास काफी संदिग्ध था और उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता था। लेकिन उसने जोर देकर मुझसे कहा कि उसे झूठ बोलने के लिए मजबूर किया गया है और यह भी कि उसकी माफी और बॉॅम्बेपुलिस द्वारा भविष्य में उसे दी जाने वाली मदद इस मामले में सरकारी संस्करण के उसके समर्थन पर निर्भर है, विशेषकर यह कि उसने सावरकर को कभी आप्टे से बात करते नहीं देखा और उसे कभी ‘यशस्वी हो’ कहते हुए कभी नहीं सुना। 

“ ...डॉ. आंबेडकर ने सावरकर के वकील भोपटकर से कहा, ‘आपके मुवक्किल के खिलाफ कोई वास्तविक आरोप नहीं है; खासे बेकार के सबूत जबरदस्ती बनाए गए हैं। मंत्रिमंडल के कई सदस्य इसके बेहद विरोध में थे, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। यहाँ तक कि सरदार पटेल भी उन आदेशों को नहीं टाल सके। लेकिन मेरी बात का ध्यान रखिए, कोई मामला नहीं है। आप जीतेंगे।’ (मल) 

ऐसा प्रतीत होता है कि नेहरू ने गांधी की हत्या के परिणामस्वरूप उपजे असंतोष को सावरकर के खिलाफ भुनाया, साथ ही यह सुनिश्चित किया कि कोई आड़े न आए—यहाँ तक कि मंत्रिमंडल के शीर्ष सहयोगी भी नहीं—उन्हें इस बात की चिंता होगी कि ऐसा करने पर उन्हें भी या ताे आरोपी माना जाएगा या फिर गांधी के हत्यारों को बचाने का प्रयास करने वाले के तौर पर देखा जाएगा। 

मलगाँवकर ने आगे लिखा— 
“ ...उनकी (सावरकर की) उम्र चौंसठ वर्ष की थी और वे एक वर्ष से भी अधिक समय से बीमार थे। उन्हें 16 फरवरी, 1948 को हिरासत में लिया गया और बिना जाँच व मुकदमे के एक साल तक जेल में रखा गया। उन्हें 10 फरवरी, 1949 को निर्दोष करार दिया गया। वह व्यक्ति, जिसे भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के लिए ब्रिटिशों द्वारा 26 वर्ष तक बंदी बनाकर रखा गया, को आजादी मिलते ही एक और साल के लिए जेल की सलाखों के पीछे भेज दिया गया।” 

वीर सावरकर के अंगरक्षक अप्पा कसार को पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें सावरकर के खिलाफ गवाही देने के लिए यातनाएँ दी गईं—उनके हाथों व पैरों के नाखून तक उखाड़ लिये गए। 

खबरों के अनुसार, गांधी की हत्या के बाद और उड़ने वाली अफवाहों के परिणामस्वरूप बंबई में एक उग्र भीड़ सावरकर के खिलाफ इकट्ठा हो गई। फिर भी राज्य की कांग्रेस सरकार ने सावरकर (जो तब बिस्तर पर थे) और उनके परिवार की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया। उनके परिजनों और मित्रों को भीड़ का हमला होने पर लाठियों के दम पर उनके घर की सुरक्षा करनी पड़ी। इस पूरी कवायद में उनके छोटे भाई डॉ. नारायण राव सावरकर (एक स्वतंत्रता सेनानी) बुरी तरह से घायल हो गए और बाद में उनकी मृत्यु हो गई। 

सावरकर को 5 फरवरी, 1948 को गिरफ्तार किया गया था, लेकिन 23 मार्च (46 दिनों तक) को उन्हें उनकी पत्नी और अपने इकलौते बेटे से मिलने की अनुमति तक नहीं दी गई थी। (डब्‍ल्यू.एन.3) 

‘लोकतांत्रिक’ और ‘स्वतंत्रता-प्रेमी’ तथा ‘सुसंस्कृत’ नेहरू ने उन सबको तबाह करने का प्रयास किया, जिन्होंने उनका विरोध किया। हालाँकि, अदालत ने सावरकर को बरी कर दिया, उन्हें इतना बदनाम कर दिया गया कि वे दोबारा उठ नहीं पाए। बरी होने के बाद सावरकर को ‘आतंकी हिंदू राष्ट्रवादी भाषण’ देने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें राजनीतिक गतिविधियों से दूर रहने का आश्वासन देने पर छोड़ा गया। फिर ब्रिटिश भारत और नेहरू के स्वतंत्र भारत में क्या फर्क रह गया? नेहरू ने कांग्रेस सदस्यों को सावरकर के सम्मान में आयोजित होने वाले किसी भी सार्वजनिक समारोह में भाग लेने से मना कर रखा था; भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के शताब्दी समारोह के दौरान उनके साथ मंच साझा करने से मना कर दिया था (जिसकी माँग सावरकर ने सबसे पहले अपनी उस पुस्‍तक में उठाई थी, जिस पर ब्रिटिशों ने पाबंदी लगा दी थी)। 

सावरकर ने 1 फरवरी, 1966 से दवाइयों, भोजन एवं पानी का सेवन बंद कर दिया था और उसे ‘आत्म-अर्पण’ (मृत्यु तक व्रत) नाम दिया था। 26 फरवरी, 1966 को उनकी मृत्यु हो गई। महाराष्ट्र या केंद्रीय मंत्रिमंडल का एक भी मंत्री सावरकर को श्रद्धांजलि देने के लिए उनके अंतिम संस्कार तक में शामिल नहीं हुआ। संसद् के अध्यक्ष ने सावरकर को श्रद्धांजलि देने के अनुरोध को खारिज कर दिया। 

नेहरू की मृत्यु के बाद प्रधानमंत्री के रूप में लाल बहादुर शास्त्री ने सावरकर के लिए उसी प्रकार से मासिक पेंशन देने को मंजूरी प्रदान की, जैसे अन्य सेनानियों को दी जाती थी। सन् 1970 में इंदिरा गांधी की सरकार ने वीर सावरकर के सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया। लंदन के स्मारक ‘इंडिया हाउस’ की नीली पट्टिका, जो इंग्लैंड के ‘हिस्टॉरिक बिल्डिंग ऐंड मॉन्यूमेंट्स कमीशन’ की देखरेख में है, पर लिखा है— ‘भारतीय देशभक्त व दार्शनिक विनायक दामोदर सावरकर 1883-1966 यहाँ रहते थे’। अंडमान और निकोबार की राजधानी पोर्ट ब्लेयर के हवाई अड्डे का नामकरण अब ‘वीर सावरकर अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा’ कर दिया गया है। फरवरी 2003 में जब केंद्र में एन.डी.ए. की सरकार सत्ता में थी, तब संसद् के केंद्रीय सभागार में स्वातंत्र्यवीर सावरकर का चित्र लगाया गया। कांग्रेस के सांसदों ने उस आयोजन का बहिष्कार किया और अपने इस घृणित व्यवहार के लिए माफी तक नहीं माँगी। इस बात की माँग भी की गई है कि सावरकर को मरणोपरांत ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया जाए।