बारिश धीमी-धीमी रफ्तार से गिर रही थी। कार की खिड़कियों पर बूंदें पड़कर फिसलती जा रही थीं, जैसे कोई पुरानी याद बार-बार ज़हन में आकर फिर दूर चली जाती हो।
निर्जर पहाड़ी मोड़ों पर अपनी गाड़ी संभालते हुए आगे बढ़ रहा था। दूर सामने धुंध के बीच धौलागढ़ गांव की परछाईं दिखने लगी थी।
वो गांव जिसे छोड़े दस साल हो चुके थे। और उसके साथ छूट गई थी एक हवेली... और एक लड़की...
चारुलता।
गाड़ी की हेडलाइट्स की रोशनी में दिखाई देने वाले पेड़ भी अब बूढ़े लगने लगे थे। खेतों की मिट्टी में अब वो गंध नहीं थी जो कभी बचपन में थी। पर जो नहीं बदला था, वह था वृंदावन हवेली की ओर ले जाने वाला रास्ता।
निर्जर के मन में हर मोड़ पर कोई पुरानी बात उभर रही थी—चारुलता की हँसी, उसकी किताबों की खुशबू, आम के पेड़ के नीचे बैठकर सुनाई गई कहानियाँ… और वो एक रात… जब सब खत्म हो गया।
गांव में कदम रखते ही उसे अहसास हुआ कि यहां कुछ बदला है। न कोई बच्चे खेलते दिखे, न वह पुरानी दुकानें जिनसे वह चूरन और टॉफ़ी लिया करता था।
एक बुज़ुर्ग महिला, जो किसी मंदिर से लौट रही थी, निर्जर को देखकर रुक गई।
"बिटवा... तुम... तुम तो वही हो ना, निरु?"
"हाँ दादी, मैं ही हूँ।"
"यहाँ क्यों लौटे हो बेटा? वो हवेली अब हवेली नहीं रही... वो पिंजरा है, जिसमें आत्माएँ कैद हैं।"
निर्जर मुस्कराया, "पर मेरी एक आत्मा वहाँ छूटी हुई है दादी... उसे लेने आया हूँ।"
महिला कांपते होंठों से बुदबुदाई, "चारुलता...?"
निर्जर चौंक गया, "आपको कैसे पता?"
दादी ने जवाब नहीं दिया, बस सिर झुका कर अपने रास्ते बढ़ गईं।
हवेली गांव के आखिरी छोर पर एक ऊँचे टीले पर थी। वहाँ पहुँचते ही निर्जर को पहली बार डर महसूस हुआ—न अपने लिए, बल्कि इस डर के लिए कि अगर चारुलता वहाँ नहीं मिली तो?
टूटा गेट, जर्जर दीवारें, और वीरान आंगन—मगर हवेली अब भी वहीं खड़ी थी, जैसे वक़्त उसे निगल नहीं पाया।
निर्जर ने जैसे ही गेट खोला, एक ठंडी हवा का झोंका उसके चेहरे से टकराया। और फिर… बांसुरी की धुन।
वही धुन जो चारुलता स्कूल से लौटते समय आम के पेड़ के नीचे बजाया करती थी।
"ये... कैसे...?"
वो आगे बढ़ा। हर कदम के साथ उसका दिल तेज़ धड़क रहा था।
हवेली के भीतर सबकुछ बदल चुका था, मगर कुछ भी भूला नहीं गया था।
सीढ़ियों के कोने पर अभी भी चारुलता की स्लेट रखी थी। दीवार पर उनका बचपन का फोटो फ्रेम अब भी टेढ़ा लटका हुआ था। और पिछवाड़े में वो आम का पेड़... अब सूख चुका था।
उसने हाथ बढ़ाकर दीवार पर एक नाम टटोला—"नि + चा"।
"चारु..." उसकी आँखें भर आईं। तभी ऊपर की मंज़िल से किसी के चलने की आवाज़ आई।
धीमे, सधे हुए क़दम। जैसे कोई जान-बूझकर उसे महसूस कराना चाहता हो कि वो अकेला नहीं है।
निर्जर ने टॉर्च निकाली और सीढ़ियाँ चढ़ने लगा।
हर सीढ़ी पर अजीब-सी आवाज़ें आतीं—जैसे कोई फर्श के नीचे से सांसें ले रहा हो। ऊपर पहुँचकर उसने देखा—बाएँ ओर का कमरा अधखुला था।
वहाँ से फिर वही बांसुरी की धुन आ रही थी।
उसने धड़कते दिल के साथ दरवाज़ा धकेला।
कमरे में आधा अंधेरा था, आधा चाँदनी की किरणों से रोशन। एक कोने में पुराना पियानो रखा था... और उसके ऊपर रखा था एक नीला दुपट्टा।
चारुलता का।
"चारु..." उसने धीरे से पुकारा।
उसके ठीक पीछे से एक ठंडी सांस उसके कानों को छूती हुई गुज़री।
वह पलटा—पर कोई नहीं था।
कुछ लिखा था...
उसकी नज़र पियानो पर रखी एक डायरी पर पड़ी।
धूल भरी डायरी के पहले पन्ने पर लिखा था:
"अगर तुम वापस आए, तो जान लो... मैं अब वो नहीं रही जो तुम छोड़ गए थे।
यह हवेली अब मेरी नहीं, किसी और की है...
और अगर तुम ज़्यादा रुके, तो शायद तुम भी मेरी तरह यहीं के हो जाओगे।"
- चारुलता
निर्जर की आँखें फैल गईं। उसने तुरंत पन्ना पलटा। तभी—एक भारी आवाज़ से दरवाज़ा बंद हो गया।
कमरे में अंधेरा छा गया। पियानो की एक की धीरे से अपने आप दब गई।
"ट्यून..."
"ट्यून..."
"ट्यून..."
पियानो खुद बजने लगा था।
अचानक कमरे की एक दीवार से रोशनी सी झलकी। वो दीवार जैसे कोई पर्दा हो, जिसके पीछे कुछ छिपा हो।
निर्जर धीमे-धीमे उस ओर बढ़ा। रोशनी अब तेज़ हो रही थी।
जैसे ही उसने हाथ बढ़ाकर दीवार को छुआ…
एक झटका लगा।
उसकी आंखों के सामने सब घूमने लगा।
और अगले ही पल... वह उसी आम के पेड़ के नीचे खड़ा था।
लेकिन इस बार पेड़ के नीचे कोई बैठा था।
चारुलता।
पर उसका चेहरा साफ़ नहीं था... धुंधला, फीका और... अधमरा।
"चारु...?" वह बुदबुदाया।
चारुलता ने सिर उठाया, और उसके होंठ कुछ कहने को हिले—
"तू क्यों लौटा...? अब तुझे भी नहीं जाने दूँगी..."
क्या वह सच में चारुलता थी?
क्या हवेली वाकई किसी शक्ति के अधीन है?
और अगर चारुलता जीवित नहीं है... तो उसे बुला कौन रहा है?
जानिए अगले एपिसोड में — 'दरवाज़ों के उस पार'