Singhasan - 1 in Hindi Short Stories by W.Brajendra books and stories PDF | सिंहासन - 1

Featured Books
  • My Secret Wife - 6

    शिवम: ठीक है डैड ।आरोही:जी अंकल।शिवम के डैड: हां ध्यान से कम...

  • काल कोठरी - 9

    काल कोठरी ----------(9)जिंदगी एक सड़क की तरा है... बस चलते जा...

  • वजन घटाने पर फैट कहाँ जाता है !

                                                           वजन घ...

  • Munjiya

    "अगर किसी की असमाप्त मुंडन संस्कार की आत्मा भटकती रहे, तो वह...

  • धोखेबाज़ औरत

    प्रस्तावनातेजपुर शहर की गलियों में जब कोई काजल का नाम लेता,...

Categories
Share

सिंहासन - 1



✨ अध्याय 1 – रहस्यमयी दस्तावेज़

जयपुर की एक पुरानी लाइब्रेरी में, किताबों की धूल भरी अलमारियों के बीच, इतिहास के शोधकर्ता आरव मल्होत्रा को एक फटी-पुरानी डायरी मिली। वह रोज़ाना किसी नए राज की खोज में आता था, लेकिन इस दिन कुछ अलग था।

डायरी की जिल्द पर लिखा था –
"राजा अजयसिंह देव की निजी डायरी – 1781"

आरव का दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। उसने उत्सुकता से पहला पन्ना खोला:

> "जिसने सिंहासन का रहस्य जान लिया, वह या तो अमर होगा… या अगले सूर्यास्त से पहले मर जाएगा।"
– अजयसिंह देव



आरव रुक गया। यह कोई साधारण ऐतिहासिक दस्तावेज़ नहीं था – यह एक शापित इतिहास की शुरुआत थी।

डायरी में चित्रों और संकेतों के माध्यम से एक रहस्यमयी जगह का वर्णन था – देवगढ़, एक भूला-बिसरा राज्य जो अब खंडहर में बदल चुका था। किंवदंती थी कि वहाँ एक सिंहासन था, जिसे छूना मौत को न्योता देना था — पर अगर कोई सफल हो जाए, तो उसे अद्वितीय शक्ति मिलती।

आरव ने तय कर लिया –
"मुझे देवगढ़ जाना ही होगा।"
 देवगढ़ का आगमन

राजस्थान के रेतीले रास्तों से होते हुए आरव जीप में बैठा, दूर वीराने की ओर बढ़ रहा था।
गूगल मैप पर ‘देवगढ़’ नाम का कोई ठिकाना नहीं था — उसे सिर्फ उस डायरी में मिले नक्शे और संकेतों के सहारे चलना था।

घंटों की यात्रा के बाद, शाम ढलने लगी। सूरज की किरणें रेत पर रक्त के जैसे बिखर रही थीं।
अंततः एक धुंधली सी परछाई दिखाई दी — देवगढ़ का खंडहर।

कभी यह एक भव्य महल रहा होगा — ऊँची दीवारें, राजसी गुंबद, विशाल द्वार।
अब सिर्फ टूटी दीवारें और जंग लगे सिंहद्वार बाकी थे।

जैसे ही आरव भीतर जाने लगा, उसे एक आवाज़ सुनाई दी,
“कौन है...? वहाँ मत जाओ!”

एक वृद्ध व्यक्ति सामने आया — झुकी पीठ, सफेद दाढ़ी, हाथ में एक टिमटिमाती लालटेन।

“आप?” आरव ने पूछा।

“मैं रामलाल हूँ, इस खंडहर का रखवाला। सरकार ने मुझे यहां चौकीदारी के लिए रखा है… लेकिन असल में मैं इन दीवारों की आत्मा हूँ,” वो मुस्कराया।

आरव ने कहा, “मैं इतिहासकार हूँ। मैं सिर्फ देखना चाहता हूँ कि देवगढ़ का सिंहासन असली है या मिथक।”

रामलाल का चेहरा गंभीर हो गया।

“साहब, आपने वो डायरी पढ़ी ना?”
“हाँ।”
“तो फिर आपने यह भी पढ़ा होगा कि जो उस सिंहासन के पास गया… वह कभी लौटकर नहीं आया।”

आरव कुछ नहीं बोला।

रामलाल ने गहरी साँस ली, और एक चाबी की तरह कुछ ज़मीन से निकाला — एक लोहे की अंगूठी जिसमें छोटा सा त्रिशूल बना था।

“यह सिंहासन कक्ष का द्वार खोलती है। लेकिन एक वादा कीजिए…”
“क्या?”
“जो देखेंगे, वही सच मानेंगे। कल्पना नहीं… लालच नहीं।”

आरव ने सिर हिलाया।

और वो रात…
आरव ने खंडहर के भीतर पहला क़दम रखा — वहाँ जहाँ आज तक सिर्फ अफ़वाहें थीं।

गुप्त सुरंग

महल के भीतर सन्नाटा था — इतना गहरा कि आरव को अपनी साँसें भी भारी लगने लगीं।
दीवारों पर टूटे हुए भित्ति-चित्र, छत से झूलती मकड़ी के जाले, और हर कोने में पड़ा समय का मौन।

रामलाल ने अपनी लालटेन आगे बढ़ाते हुए कहा,
“जिस कुएं को सब सूखा समझते हैं… उसी से रास्ता खुलता है।”

महल के बीचों-बीच एक बड़ा सा पत्थर का कुआँ था। ऊपर से देखने पर वह खाली लग रहा था, लेकिन नीचे झाँकते ही आरव को दिखाई दी एक संकरी सीढ़ी, जो कुएं की दीवार के साथ-साथ गहराई में जा रही थी।

“आप नीचे आएँगे?”
रामलाल ने कहा, “मेरा काम यहीं तक है, साहब। नीचे जो है… वह आपके नसीब में लिखा है।”

आरव ने सर झुकाया और धीरे-धीरे सीढ़ियाँ उतरने लगा।

 अंधकार में प्रवेश

जैसे-जैसे वह नीचे उतरता गया, लालटेन की रोशनी कम पड़ती गई। दीवारों पर हाथ फेरते हुए, उसे एक नुकीला पत्थर मिला — वह किसी द्वार का हिस्सा था।

दीवार पर कुछ उभरे हुए अक्षर थे, संस्कृत में:

> "सत्य को जानने से पहले स्वयं को खोने के लिए तैयार हो जाओ।"



आरव ने जैसे ही पत्थर को घुमाया — ज़मीन काँप उठी।
एक भारी दरवाज़ा धीरे-धीरे खुला, और उसके पीछे था एक गुप्त सुरंग — लंबी, ठंडी और एकदम शांत।

 सुराग

सुरंग में चलते हुए आरव को दीवारों पर चित्र उकेरे हुए मिले —
राजाओं की मूर्तियाँ, युद्ध के दृश्य, और एक ही वस्तु जो हर चित्र में थी — एक दिव्य सिंहासन, जिसके चारों ओर आग और सर्प लहराते हुए दिखाए गए थे।

सुरंग के अंत में एक और दरवाज़ा मिला — इस बार लकड़ी का नहीं, शुद्ध पत्थर का।

इस दरवाज़े पर कोई ताला नहीं था — लेकिन उस पर बना था एक अजीब चिह्न:
"त्रिशूल और गरुड़ के पंख"

आरव ने जेब से रामलाल द्वारा दी गई अंगूठी निकाली — उसमें भी वही चिह्न था।

जैसे ही उसने अंगूठी को दरवाज़े की सतह से स्पर्श कराया —
दरवाज़ा धीरे-धीरे खुलने लगा…

एक तेज़ हवा का झोंका आया, और दरवाज़े के पार से सुनाई दी एक धीमी मगर गूंजती आवाज़ —
“स्वागत है… जो लौटकर नहीं आते।”




यह कहानी का पहला भाग है कहानी को ओर आगे पढ़ने के लिए अपनी प्रतिक्रिया जरूर दें