प्रकाश ने एक गहरी साँस ली।
इतना सारा अपनापन… इतना स्नेह…
उसे थोड़ी उलझन भी हो रही थी,
क्योंकि अब तक वह सिर्फ संघर्षों में जीता आया था।
कुछ क्षण यूँ ही बैठे रहने के बाद,
वह धीरे-धीरे सीढ़ियाँ चढ़ने लगा।
हर सीढ़ी पर उसके मन में एक नया प्रश्न था।
क्या वो ठीक करेगी उससे बात?
क्या उस थप्पड़ का कोई असर अब भी बाकी है उसके मन में?
या शायद… अब सब बदल चुका है?
कमरे के दरवाज़े के पास पहुँचकर वह रुका।
अंदर से किसी गाने की धीमी-सी धुन आ रही थी —
शायद किसी पुराने रेडियो की मधुर तान।
उसने धीरे से दरवाज़े पर दस्तक दी।
"कौन?" अंदर से राधिका की आवाज़ आई — कुछ धीमी, कुछ धीमी थकी हुई-सी।
प्रकाश ने हल्की आवाज़ में कहा —
"मैं हूँ… प्रकाश।"
अंदर कुछ क्षणों की चुप्पी छाई रही।
फिर दरवाज़ा धीरे-धीरे खुला।
राधिका सामने खड़ी थी —
हाथ में पट्टी अब भी थी, लेकिन चेहरा स्वस्थ लग रहा था।
उसकी आँखों में थोड़ी शर्म, थोड़ी संकोच, और थोड़ी सी मुस्कान भी थी।
"आओ... अंदर आ जाओ।"
प्रकाश ने कुछ नहीं कहा, बस चुपचाप भीतर चला गया।
कमरे में हल्की-सी रौशनी थी।
एक कोने में मेज पर किताबें रखी थीं,
और खिड़की से आती धूप, कमरे को गर्माहट दे रही थी।
प्रकाश अंदर आया और चुपचाप खड़ा रहा।
राधिका भी कुछ पल तक चुप रही।
फिर उसने धीमे स्वर में कहा —
"बैठो न..."
प्रकाश पास रखी एक कुर्सी पर बैठ गया।
दोनों के बीच कुछ क्षणों की ख़ामोशी रही।
फिर राधिका की आँखें नम हो गईं।
उसने सिर झुकाया और बमुश्किल स्वर को संभालते हुए बोली —
"मुझे माफ़ कर दो..."
प्रकाश थोड़ा चौंका, लेकिन कुछ नहीं बोला।
राधिका की आँखों से अब आँसू बहने लगे थे।
उसने कांपती आवाज़ में कहा —
"मैंने तुम्हें उस दिन थप्पड़ मारा...
और तुमने उसका बदला नहीं लिया,
बल्कि मेरी जान बचाई।
इतनी भीड़ थी वहाँ,
कोई आगे नहीं आया...
पर तुम आए।
तुमने मेरे लिए अपने पास के पैसे भी दे दिए।
मैं... मैं बहुत शर्मिंदा हूँ।"
उसके आँसू धीरे-धीरे उसके गालों पर बहने लगे।
आँखों में ऐसा भाव था जो सिर्फ गहरे पछतावे और शर्मिंदगी का परिचायक था।
उसका मन बोला — “क्यों मैंने ऐसा किया? क्यों मैंने बिना वजह तुम्हें चोट पहुँचाई?”
वो अपने आप को दोष देने लगी,
उस पल की गलती को मन से मिटाने की कोशिश कर रही थी।
उसके दिल में एक भारीपन था,
जैसे उसने कोई बड़ा जुर्म कर दिया हो,
पर साथ ही उस भारीपन में एक उम्मीद भी थी —
शायद प्रकाश उसे माफ़ कर देगा।
धीरे-धीरे उसने अपनी बात जारी रखी, आवाज़ कांप रही थी —
“मैं जानती हूँ कि तुम्हारे लिए मेरी ये हरकत बहुत बड़ी बात थी,
और मैं खुद से लड़ती रही कि कैसे तुम्हें वो थप्पड़ मार सकती हूँ।
पर तुम्हारा वो प्यार, तुम्हारा वो इंसानियत भरा व्यवहार,
मुझे मेरी गलती का एहसास दिला गया है।”
उसकी नमी भरी आँखें अब पूरी तरह छलक आईं।
वो उठ कर प्रकाश के सामने झुकी,
और दिल से कहा —
“कृपया मुझे माफ़ कर दो। मैं सच में तुम्हारे लिए बहुत कुछ महसूस करती हूँ,
और अब मैं चाहती हूँ कि मैं अपनी गलती सुधार सकूँ।”
कमरे में एक सुकून की लहर दौड़ गई।
प्रकाश ने धीरे से उसका हाथ थामा,
और एक मधुर मुस्कान के साथ बोला —
“सब ठीक हो जाएगा।”
प्रकाश ने नरम सी आवाज़ में कहा,
“यह रोना-धोना छोड़ो, अब बताओ — तुम्हारी तबियत कैसी है?
और तुम्हारी पढ़ाई कैसी चल रही है?”
उसकी बातों में चिंता भी थी और सहजापन भी।
राधिका ने हल्की मुस्कान के साथ सिर हिलाया,
“तबियत अब ठीक है, आराम कर रही हूँ। पढ़ाई भी चल रही है, धीरे-धीरे।”
प्रकाश ने दिलासा देते हुए कहा,
“अच्छा है, ध्यान रखना अपनी सेहत और पढ़ाई दोनों का।”
राधिका ने मुस्कुराते हुए कहा,
“मैं चाय बनाकर लाती हूँ, तुम यहीं बैठो।”
प्रकाश ने सहमति में सिर हिलाया और वहीं कुर्सी पर आराम से बैठ गया।
राधिका चाय लेकर वापस आई।
दोनों ने चाय की चुस्कियाँ लेते हुए बातें शुरू कीं।
धीरे-धीरे बातचीत गहराई में बदल गई,
एक-दूसरे के बारे में जानने लगे,
अपने सुख-दुख, अपने सपने, और अपनी उम्मीदें बाँटीं।
बातों में इतना खो गए कि शाम कब हो गई,
पता ही नहीं चला।
हवा में अब शाम की ठंडक थी, और कमरे में एक मीठी सुकून की घुलन छाई हुई थी।
प्रकाश ने घड़ी की ओर देखा और धीरे से कहा,
"अब मुझे चलना चाहिए... माँ इंतज़ार कर रही होंगी।"
राधिका का मन तो अभी और बातें करने का था,
लेकिन शाम की परछाइयाँ फैल चुकी थीं।
उसने थोड़ी उदासी के साथ कहा —
"ठीक है... फिर कब आओगे मुझसे मिलने?"
प्रकाश मुस्कराया और बोला,
"कॉलेज में मिलते हैं... वहीं सबसे अच्छी मुलाकात होती है।"
राधिका दरवाज़े तक उसे छोड़ने आई।
दरवाज़े पर एक नौकर पहले से खड़ा था,
हाथ में एक छोटा सा थैला था जिसमें 10000 (दस हजार) रुपये रखे थे।
नौकर ने झुककर कहा —
"ये मालिक ने देने को कहा है... आपके लिए।"
प्रकाश थोड़ा हैरान हुआ,
"ये किसलिए?" — उसने पूछा।
नौकर बोला —
"आपने राधिका दीदी के इलाज में जो मदद की थी, उसी के लिए।"
प्रकाश ने शांत स्वर में कहा —
"पर मेरे तो केवल 761 रुपये ही लगे थे… फिर इतने क्यों?"
नौकर बोला —
"मालिक ने यही कहा है बेटा, ले लीजिए।"
प्रकाश कुछ पल चुप रहा।
फिर उसने अपने झोले से धीरे-धीरे एक 500 का नोट,
दो 100 के नोट और एक 50 का नोट निकाला,
और बाकी पैसे लेने से साफ़ मना कर दिया।
"बस यही मेरे पैसे हैं। बाक़ी मेरा फ़र्ज़ था, व्यापार नहीं।"
नौकर कुछ कहता, उससे पहले ही प्रकाश ने अपने पैसे जेब में रखे और चलने को मुड़ गया।
राधिका खड़ी देखती रही —
उसकी आँखों में अब कुछ और था —
सम्मान, श्रद्धा... और एक अजीब-सी ख़ामोशी।
वो कुछ देर चुप रही, फिर बोली —
"रुको, मैं मोटर बुलवाती हूँ... ये तुम्हें घर छोड़ देगी।"
प्रकाश ने देखा, उसकी आँखों में अब कोई झिझक नहीं थी —
बस सच्ची कद्र थी,
एक ऐसे इंसान के लिए,
जो सिर्फ अच्छा इंसान था... बिना किसी दिखावे के।
प्रकाश मोटर में बैठकर चला गया।
राधिका दरवाज़े पर खड़ी थी,
उसने हाथ हिलाकर मुस्कुराते हुए कहा —
"फिर मिलते हैं… बाय।"
प्रकाश ने भी मुस्कान में सिर हिलाया,
और गाड़ी धीरे-धीरे हवेली से दूर चली गई।
राधिका बहुत देर तक उसे जाता हुआ देखती रही,
जैसे कोई बात उसके दिल में रह गई हो।
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घर पहुँचते ही जैसे ही प्रकाश ने दरवाज़ा खोला,
उसकी माँ चौके से बाहर आईं, चेहरे पर चिंता की रेखाएँ थीं।
"कहाँ थे बाबू, इतनी देर कर दी?
मैं तो डर ही गई थी," उन्होंने कहा।
प्रकाश ने मुस्कुराकर माँ का हाथ थामा और बोला —
"माँ… सब बताता हूँ, बैठो पहले।"
फिर वो दोनों बैठक में बैठे,
और प्रकाश ने धीरे-धीरे पूरे दिन की कहानी सुनाई —
कैसे राधिका को दुर्घटना में देखकर वह घबरा गया,
कैसे अस्पताल ले गया, पैसे दिए, इलाज कराया,
फिर आज राधिका के पिता ने उसे अपने घर बुलाया…
और आखिर में, वह रुपये लेने से कैसे मना कर आया।
माँ उसकी बातें सुनती रहीं,
कभी चौंकतीं, कभी मुस्करातीं,
और अंत में उन्होंने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा —
"तू मेरा बेटा ही नहीं, मेरा गर्व है।
भगवान तुझ जैसे दिल वाले बहुत कम बनाता है।"
प्रकाश की आँखें नम हो गईं।
वो सिर माँ की गोद में रखकर चुपचाप लेट गया।
बाहर रात गहराने लगी थी,
लेकिन उस घर में…
एक सुकून की रौशनी थी।
रात अब पूरी तरह उतर चुकी थी।
हर ओर सन्नाटा पसर चुका था,
सिर्फ रसोई से आती हल्की-हल्की बर्तनों की आवाज़ बता रही थी
कि माँ अब भी बेटे के लिए रोटियाँ सेंक रही हैं।
प्रकाश हाथ-मुँह धोकर खाने की मेज़ पर आकर बैठ गया।
माँ ने प्यार से गरम-गरम रोटियाँ, सब्ज़ी, और दाल उसके सामने परोसी।
"थक गया होगा बाबू... पहले पेट भर खा ले,"
माँ ने स्नेह से कहा।
प्रकाश मुस्कुराया और बोला —
"माँ... तेरे हाथ के खाने की बात ही कुछ और है।"
हर निवाला जैसे उसे फिर से जगा रहा था,
जैसे माँ के हाथों का स्वाद,
उसके मन के सारे बोझ धीरे-धीरे मिटा रहा हो।
खाना खाकर उसने माँ के हाथ दबाए और कहा —
"तेरे हाथों में सुकून है माँ।"
माँ ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा —
"अब जाकर सो जा बेटा, बहुत लम्बा दिन था आज।"
प्रकाश ने माँ को प्रणाम किया और अपने छोटे से कमरे में चला गया।
साफ़ चादर, तकिए की मुलायमियत, और एक गहरी शांति उसे घेरने लगी।
वो लेटा... और कुछ ही देर में उसकी आँखें बंद हो गईं।
दिनभर की सारी थकान...
अब एक मीठी नींद में ढल गई थी।
प्रकाश अब कुछ दिनों से कॉलेज नहीं गया था।
शायद उस दिन के बाद से उसे थोड़ा अकेलापन भी महसूस हो रहा था,
और थोड़ा-सा खुद को समय देना चाहता था।
वो अपने कमरे में ही रहा — किताबों में डूबा,
माँ के साथ कुछ वक्त बिताता, और शांति से अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता रहा।
दूसरी ओर...
राधिका हर दिन कॉलेज जाती।
पर उसका मन अब वहाँ पहले जैसा नहीं रहा।
क्लास में उसकी नज़रें हर बार उस खाली सीट की ओर चली जातीं —
जहाँ कभी प्रकाश बैठा करता था।
हर गली, हर मोड़, हर कोना जहाँ वो अकसर टकराते थे,
अब सूना-सूना लगने लगा था।
राधिका के मन में हलचल थी...
वो समझ नहीं पा रही थी कि प्रकाश क्यों नहीं आ रहा।
पर कहीं न कहीं उसके भीतर एक बेचैनी थी —
एक इंतज़ार जो अब उसे हर दिन महसूस होने लगा था।
वो बस सोचती —
"कब आएगा वो फिर से? क्या अब आएगा भी?"
और इसी अनकहे इंतज़ार में...
कुछ और दिन बीत गए।