कहानी शीर्षक: पिता का साया
भाग 1: एक साया जो कभी दूर नहीं होता
गाँव के एक सादे से घर में सूरज की किरणें जैसे ही खिड़की से टकराईं, अनया की आँखें खुल गईं। सामने दीवार पर लगी पिता जी की तस्वीर आज फिर जैसे कुछ कह रही थी। वह तस्वीर नहीं थी, वह एक साया था… एक भाव… एक सहारा, जो अब बस यादों में रह गया था।
अनया की उम्र महज़ सात साल की थी जब उसके पिता, रामदत्त शर्मा, का देहांत हो गया था। वह एक शिक्षक थे—कठोर अनुशासन वाले, लेकिन भीतर से बेहद कोमल और संवेदनशील। उनके चेहरे पर हमेशा एक आत्मविश्वास की चमक होती थी, जैसे हर मुश्किल का हल उनके पास है।
अनया की माँ, सुधा, उस दिन को याद करके अब भी कांप उठती थीं। वह एक बरसात की रात थी जब रामदत्त जी स्कूल से लौटते समय सड़क दुर्घटना में चले गए। उस दिन सिर्फ एक व्यक्ति नहीं गया था, बल्कि एक पूरा परिवार बिखर गया था। लेकिन रामदत्त का साया कभी गया नहीं। अनया जब भी रोती, माँ कहतीं, "तेरे पापा हमेशा तेरे साथ हैं, तेरी हर मुस्कान में, तेरे हर आँसू में।"
भाग 2: परछाईं से रिश्ता
समय बीता, अनया अब किशोरावस्था की ओर बढ़ रही थी। पिताजी की तस्वीर उसके कमरे की सबसे खास चीज थी। वह हर परीक्षा से पहले उनकी तस्वीर के सामने दीपक जलाती, हर खुशी में मिठाई वहीं रखती।
गाँव की लड़की होने के बावजूद अनया पढ़ाई में बेहद होशियार थी। वह जानती थी कि उसका सपना—आईएएस अफसर बनना—आसान नहीं है, खासकर बिना पिता के। लेकिन माँ ने कभी उसे रुकने नहीं दिया।
"तेरे पापा चाहते थे कि तू बड़ा अफसर बने। तुझे रुकना नहीं है," माँ अक्सर कहतीं।
एक दिन स्कूल में भाषण प्रतियोगिता थी। विषय था "पिता का महत्व"। अनया ने जब मंच पर जाकर अपने पिताजी के बारे में बोलना शुरू किया, तो पूरा स्कूल भावुक हो गया।
उसने कहा, "पिता सिर्फ एक व्यक्ति नहीं होते, वे एक आदर्श होते हैं। जब वो चले जाते हैं, तब भी उनका साया हमारे फैसलों में, हमारे आत्मविश्वास में और हमारे सपनों में जीवित रहता है।"
तालियों की गड़गड़ाहट ने अनया को बता दिया था कि उसका साया आज भी उसकी ताक़त है।
---बहुत अच्छा! आइए हम “पिता का साया” कहानी का भाग 3 शुरू करते हैं:
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भाग 3: संघर्षों का सूरज
गाँव की पगडंडी पर तेज़ी से दौड़ती अनया अब 11वीं कक्षा में पहुँच चुकी थी। उसके दिन सुबह 5 बजे शुरू होते—पढ़ाई, घर के काम और माँ की मदद। उसके जीवन में खेलने-कूदने का समय नहीं था, लेकिन एक आग थी, जो पिताजी के सपनों से जल रही थी।
एक दिन स्कूल के बाद वह अपने प्रिय गुरुजी, शास्त्री सर, से मिली। वे रामदत्त जी के पुराने सहयोगी थे।
शास्त्री सर बोले, “अनया, तुम्हारे पिताजी हमेशा कहते थे—‘मेरी बेटी एक दिन पूरे गाँव का नाम रोशन करेगी।’ तुम उसी रास्ते पर चल रही हो।”
इन शब्दों ने अनया की आत्मा में गूंज पैदा कर दी। वह जानती थी कि पिताजी भले ही शारीरिक रूप से नहीं हैं, लेकिन उनका आशीर्वाद हर क्षण उसके साथ है।
अब वह स्कूल के साथ-साथ प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी भी करने लगी। लेकिन राह आसान नहीं थी।
घर में पैसों की तंगी थी। माँ सिलाई करके गुज़ारा कर रही थीं, लेकिन दिन-ब-दिन स्वास्थ्य बिगड़ता जा रहा था। कभी-कभी अनया को खाना छोड़कर माँ की दवाई लानी पड़ती।
एक दिन माँ ने कहा, “बिटिया, अगर बहुत मुश्किल हो रही है तो पढ़ाई कुछ समय के लिए छोड़ दे, मैं समझ लूंगी।”
लेकिन अनया ने माँ का हाथ पकड़ लिया और बोली, “माँ, पापा की कसम… मैं तब तक नहीं रुकूंगी जब तक उनका सपना पूरा न कर दूँ। अगर उन्होंने मुझे उड़ने के लिए पंख दिए हैं, तो मैं उड़कर दिखाऊंगी।”
माँ की आँखें भर आईं। उस दिन माँ को यकीन हो गया कि उनकी बेटी में पिता का ही संकल्प है।
भाग 4: परीक्षा की आँधी
अनया अब 12वीं की परीक्षा की तैयारी में डूब चुकी थी। लेकिन परीक्षा सिर्फ स्कूल की नहीं थी—जिंदगी उसकी असली परीक्षा ले रही थी।
अचानक माँ बीमार पड़ गईं और डॉक्टर ने कहा, “इनका इलाज शहर में ही संभव है।”
अब अनया को एक बड़ा निर्णय लेना था—या तो वह माँ का इलाज कराए, या अपनी कोचिंग की फीस भरे।
उस रात वह पिताजी की तस्वीर के सामने बैठी और बहुत देर तक रोती रही।
“पापा, आप होते तो क्या करते?” उसने धीमे से पूछा।
तस्वीर की तरफ देखते हुए उसे ऐसा लगा जैसे पिताजी कह रहे हों—“जहाँ ज़रूरत हो, वहाँ रहो। तुम अगर माँ को खो दोगी, तो ये सपना अधूरा रह जाएगा।”
सुबह होते ही उसने अपने सारे जमा पैसे माँ के इलाज में लगा दिए। खुद की पढ़ाई के लिए अब उसने गाँव में बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया।
हर दिन, हर घंटे, हर मिनट एक संघर्ष था। लेकिन उस संघर्ष में एक प्रकाश था—पिता का साया।
शानदार! आप तैयार हैं कहानी के अगले भागों के लिए। आइए अब प्रस्तुत करते हैं:
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भाग 5: नई शुरुआत और एक नई उम्मीद
शहर में माँ का इलाज शुरू हुआ, और अनया वहीं के एक सरकारी स्कूल में दाखिल हो गई। अब उसका दिन अस्पताल और स्कूल के बीच बँट गया था। समय कम था, लेकिन हौसला बहुत बड़ा।
शहर की चकाचौंध में उसे गाँव की सादगी बहुत याद आती थी। लेकिन वह जानती थी कि इस संघर्ष का फल मीठा होगा।
एक दिन अस्पताल में माँ की देखभाल कर रही थी, तभी पास की नर्स बोली, “बेटी, तू दिन-रात अपनी माँ के साथ रहती है और पढ़ाई भी करती है। भगवान तुझे बहुत बड़ा इंसान बनाएगा।”
इन शब्दों ने उसे और मज़बूती दी।
वह रात को जब भी थककर सोने लगती, तो पिताजी की तस्वीर मोबाइल में देखती और खुद से कहती—"मैं रुकने के लिए नहीं बनी।"
उसने कोचिंग में एडमिशन के लिए एक स्कॉलरशिप परीक्षा दी और टॉप कर लिया।
अब उसकी पढ़ाई शुरू हो चुकी थी—आईएएस की तैयारी का पहला कदम।
भाग 6: संघर्षों की सीढ़ियाँ
आईएएस की तैयारी एक पहाड़ की तरह थी—जिसे न कोई लिफ्ट थी, न सहारा। सिर्फ मेहनत, धैर्य और समय की सीढ़ियाँ थीं।
अनया हर सुबह 4 बजे उठती, माँ को नाश्ता देती, अस्पताल की दवाई लाती, फिर कोचिंग जाती। उसकी मेहनत को देख कर कोचिंग सेंटर ने उसकी फीस माफ़ कर दी।
एक दिन सर ने उसे बुलाया और कहा, “अनया, तुम सिर्फ एक स्टूडेंट नहीं, एक प्रेरणा हो।”
अब उसके सपनों में एक नयी चमक थी। उसका लक्ष्य सिर्फ आईएएस बनना नहीं था—बल्कि पिता के नाम को रोशन करना था, पूरे देश में।
हर रात, वह पिता की डायरी पढ़ती, जो माँ ने उसे दी थी। उसमें रामदत्त जी के सपनों और आदर्शों के नोट्स थे—“ईमानदारी ही इंसान की असली पूँजी है।”
इन पंक्तियों को पढ़कर वह और दृढ़ हो गई।
बहुत बढ़िया! आइए अब प्रस्तुत है “पिता का साया” कहानी के अगले चार भाग – भाग 7 से 10 तक।
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भाग 7: उम्मीद की लौ
समय बीत रहा था और अनया अब प्रतियोगी परीक्षा के अंतिम चरण पर थी। प्रारंभिक परीक्षा में वह सफल हो गई थी, अब मुख्य परीक्षा और साक्षात्कार बाकी थे। माँ की तबीयत अब थोड़ी बेहतर थी, पर आर्थिक स्थितियाँ अब भी तंग थीं।
एक दिन माँ ने अपनी बची हुई पुरानी सोने की बालियाँ उतारकर उसे दीं।
“ये तेरे पापा ने मुझे शादी में दी थीं… अब ये तुझे मंज़िल तक पहुँचाने में काम आएंगी।”
अनया ने आँसुओं से भीगी आँखों से उन्हें चूमा और माँ को गले लगा लिया।
अब उसने खुद को पूरी तरह पढ़ाई में झोंक दिया। नींद, भूख, आराम—सब कुछ पीछे छूट गया। उसका कमरा अब एक मिशन का हॉल बन चुका था—दीवारों पर नोट्स, टाइम टेबल, और पिताजी की तस्वीर।
और फिर आया वह दिन—जब मुख्य परीक्षा का रिजल्ट आया।
वह उत्तीर्ण हो गई थी।
गाँव में ढोल-नगाड़े बजे। लोग कहने लगे, “रामदत्त जी की बेटी ने कमाल कर दिया!”
लेकिन सफर अभी बाकी था—अंतिम पड़ाव था इंटरव्यू।
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भाग 8: सवालों के घेरे में एक बेटी
साक्षात्कार दिल्ली में था। पहली बार अनया ट्रेन में बैठकर माँ के साथ राजधानी जा रही थी। खिड़की के बाहर भागते पेड़ और खेत उसे बचपन की यादों में ले जा रहे थे।
साक्षात्कार का दिन आया। बोर्ड के सामने बैठी अनया घबराई हुई थी, लेकिन भीतर से शांत। पिताजी की डायरी की आखिरी लाइनें उसके मन में गूंज रही थीं—
“डरो मत, तुम सही हो तो जीत तुम्हारी ही होगी।”
बोर्ड ने पूछा,
“अगर तुम्हारे सामने भ्रष्टाचार और दबाव आए, तो क्या तुम अपने पद से हट जाओगी?”
अनया ने दृढ़ स्वर में उत्तर दिया:
“नहीं सर, मैं अपने पद से हटने के बजाय अपने पिताजी के सिद्धांतों पर खड़ी रहूँगी। उन्होंने सिखाया है—सच का साथ कभी मत छोड़ना।”
बोर्ड के सदस्य मुस्कुराए।
साक्षात्कार के बाद वह बाहर आई और माँ से लिपट गई।
“पापा खुश होंगे न, माँ?”
माँ ने आँखें पोंछते हुए कहा, “बहुत… वो तुझमें ही जी रहे हैं।”
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भाग 9: जब आकाश भी झुक गया
कुछ हफ़्तों बाद रिजल्ट आया—अनया का चयन हो गया था।
वह भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS) में चयनित हो गई थी।
पूरा गाँव झूम उठा।
एक समारोह में उसे सम्मानित किया गया, और वहाँ मंच पर उसकी माँ भी साथ थीं। आयोजकों ने मंच से कहा—
“यह सिर्फ बेटी की नहीं, एक पिता की भी जीत है, जो आज भी अपनी बेटी के साथ खड़ा है… अपने साए की तरह।”
अनया ने भाषण में कहा:
> “पिता का होना सिर्फ शरीर नहीं होता। उनका साया, उनके विचार, उनकी शिक्षाएं… यह सब जीवनभर हमारे साथ चलते हैं। मेरी सफलता मेरे पिता की देन है। वे आज नहीं हैं, पर हर रात मेरे सपनों में उनका हाथ मेरे सिर पर होता है। मैं आज भी हर परीक्षा से पहले उनसे आशीर्वाद लेती हूँ। यही मेरी असली ताक़त है।”
तालियों की गूंज में माँ रो रही थीं, लेकिन यह आँसू खुशी के थे।
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भाग 10: पिता का साया—अब मेरी छाया
अब अनया बतौर SDM (Sub Divisional Magistrate) कार्यभार संभाल रही थी। उसके पास कई काम थे—गरीबों के लिए योजनाएं, स्कूलों की दशा सुधारना, भ्रष्टाचार मिटाना…
उसने अपने गाँव में एक पुस्तकालय बनवाया, जिसका नाम रखा गया—“रामदत्त स्मृति पुस्तकालय।”
लोग जब उससे पूछते कि ये नाम क्यों?
वह मुस्कुराकर कहती,
“मेरे पापा चाहते थे कि हर बच्चा पढ़े। अब उनका सपना पूरा हो रहा है।”
एक दिन अनया एक स्कूल के बच्चों से मिली। एक बच्ची ने पूछा,
“मैडम, आपके पापा कहाँ हैं?”
अनया ने उस बच्ची के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा:
> “मेरे पापा… हर उस जगह हैं जहाँ मैं अच्छा काम करती हूँ। वह मेरे भीतर हैं, मेरी हर सोच में हैं, और तुम्हारे हर सपने में होंगे जब तुम अपने पापा की बात मानकर आगे बढ़ोगी।”
सारा गाँव जानता था—रामदत्त शर्मा का साया कभी नहीं गया…
वह अब उनकी बेटी की छाया बन गया था—हर कदम पर, हर फैसले में।
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भाग 11: अधिकारी नहीं, बेटी बनी हूं मैं
अनया अब जिला मुख्यालय में पदस्थापित हो चुकी थी। दिन भर की सरकारी बैठकों, फाइलों और दौरे के बीच उसका दिल आज भी पिता की उस छाया में धड़कता था।
एक दिन एक गरीब किसान उसके कार्यालय में आया। उसकी ज़मीन पर दबंगों ने कब्ज़ा कर लिया था। सबूत उसके पास थे, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हो रही थी।
अनया ने तुरंत तहसीलदार को बुलाया और आदेश दिया, “24 घंटे में कार्रवाई हो। कानून सबके लिए एक है।”
किसान के आँखों में आँसू आ गए। उसने सिर झुकाकर कहा,
“बिटिया, तेरे पापा बहुत अच्छे इंसान रहे होंगे। तू उनकी ही औलाद है।”
अनया चुप रही, पर उसकी आँखों में सच्चे सम्मान के आँसू थे। वह जानती थी, उसकी पहचान उसके पद से नहीं, उसके पिता की परछाईं से थी।
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भाग 12: गाँव की वो मिट्टी और मंदिर
एक रविवार को वह माँ के साथ गाँव आई। वही घर, वही गलियाँ… लेकिन अब सब कुछ अलग था। लोग उसे देखते ही जयकार करने लगे—“रामदत्त जी की बेटी आ गई!”
गाँव के मंदिर में जब वह गई, तो पुजारी ने कहा,
“बेटी, तेरे पापा हर सुबह यहाँ आरती करने आते थे और यही प्रार्थना करते थे—‘मेरी बेटी देश सेवा करे।’ देखो, आज उनका सपना पूरा हो गया।”
अनया ने दीया जलाया और वहीं बैठ गई। मंदिर की घंटियों के बीच उसने महसूस किया कि पिताजी वहीं हैं—उसके साथ, मौन लेकिन गर्वित।
शाम को गाँव के स्कूल में भाषण के दौरान उसने बच्चों से कहा—
> “अपने सपनों को कभी छोटा मत समझो। अगर तुम्हारे पापा तुम्हारे लिए कुछ सपना देखते हैं, तो उसे पूरा करने के लिए तुम्हारे भीतर एक शक्ति जन्म लेती है। वो शक्ति ही पिता का साया है।”
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भाग 13: माँ की आँखों में पापा
समय बीतता गया। माँ अब उम्रदराज हो चुकी थीं। एक दिन उन्होंने कहा,
“बिटिया, अब तेरा घर बसाने का समय आ गया है।”
अनया मुस्कुरा दी, “माँ, जब भी मैं कोई सही फैसला लेती हूँ, पापा की आवाज़ मेरे दिल में गूंजती है। अगर वो आज होते, तो क्या कहते?”
माँ ने चुपचाप पिताजी की डायरी अनया को दी। उस डायरी के आखिरी पन्ने पर लिखा था—
> “मेरी बेटी अगर कभी जीवनसाथी चुने, तो ऐसा व्यक्ति चुने जो उसे उड़ने दे… जैसे मैं चाहता हूँ।”
कुछ समय बाद, अनया ने अपने ही कार्यालय में काम कर रहे एक ईमानदार अधिकारी से विवाह किया। शादी सादगी से गाँव के उसी मंदिर में हुई, जहाँ पिताजी हर दिन जाया करते थे।
विवाह की हर रस्म में ऐसा लगा मानो रामदत्त जी की आत्मा वहाँ मौजूद हो। हर फूल, हर मंत्र उनकी उपस्थिति का अनुभव करवा रहा था।
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भाग 14 : अब मैं भी एक साया हूँ
सालों बीत गए। अनया अब एक सफल IAS अधिकारी थी। माँ अब भी साथ थीं, और अनया का खुद का परिवार भी बस चुका था। उसकी एक छोटी सी बेटी थी—जिसका नाम उसने रखा “आशा”।
एक दिन आशा ने पूछा,
“माँ, आपके पापा कहाँ हैं?”
अनया ने अपनी बेटी को गोद में उठाया और कहा:
> “बिटिया, मेरे पापा… तेरे नाना… वो एक बहुत अच्छे इंसान थे। उन्होंने सिखाया कि ईमानदारी से बड़ा कोई धन नहीं, और मेहनत से बड़ी कोई पूजा नहीं।
वो अब इस धरती पर नहीं हैं… लेकिन उनके विचार, उनकी छाया, मेरी आत्मा में है। मैं जो कुछ भी हूँ, उन्हीं की वजह से हूँ।
और अब… माँ बनकर, मैं उनकी दी हुई परछाईं तुझ तक पहुँचा रही हूँ।”
आशा मुस्कुराई और बोली, “तो अब आप मेरे लिए वो साया हो न, जो आपके पापा थे आपके लिए?”
अनया की आँखों में चमक आ गई।
उसने कहा:
“हाँ बेटी, अब मैं भी एक साया हूँ। और तू भी एक दिन किसी के लिए ये साया बनना।”
फिर वह खिड़की से बाहर आसमान की ओर देखने लगी।
बादलों के बीच उसे वही मुस्कुराता चेहरा दिखा…
रामदत्त शर्मा…
जो अब भी उसकी बेटी के जीवन में चुपचाप…
एक साए की तरह जी रहे थे।
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⭐ समाप्त ⭐
“पिता का साया” एक ऐसी कहानी थी, जो सिर्फ एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि लाखों बेटियों की कहानी है—जिनके जीवन में पिता भले ही न रहें, लेकिन उनका आदर्श हमेशा साथ चलता है।
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