सूरज की पहली किरण जैसे ही खिड़की से होकर अंदर आई, राधिका की नींद खुल गई। सामने की दीवार पर टंगी माँ की तस्वीर पर उसकी नजर गई। वो तस्वीर हर सुबह उसे एक नई ताकत देती थी, मानो माँ अब भी वहीं कहीं आसपास हो। राधिका अब एक सफल लेखिका बन चुकी थी, लेकिन उसकी यह सफलता सिर्फ उसकी मेहनत नहीं थी, बल्कि माँ की दुआओं और संघर्षों की भी कहानी थी।
राधिका का बचपन बहुत साधारण था। एक छोटे से गाँव में उसका जन्म हुआ था, जहाँ सुविधाओं का अभाव था लेकिन प्यार और अपनापन भरपूर था। उसके पिता एक किसान थे और माँ, शारदा देवी, एक गृहिणी। शारदा देवी पढ़ी-लिखी नहीं थीं, लेकिन उनके अंदर दुनिया की सबसे बड़ी समझदारी थी — माँ की समझदारी।
जब राधिका स्कूल जाती थी, तो माँ हर सुबह उठकर उसका टिफिन बनातीं, उसके कपड़े प्रेस करतीं और उसके स्कूल बैग में एक छोटा सा संदेश छुपाकर रख देतीं — "खूब मन लगाकर पढ़ना" या "बेटी, तुझ पर मुझे गर्व है"। राधिका को पढ़ाई में बहुत रुचि थी, और माँ ने कभी भी पैसे की तंगी को उसकी पढ़ाई के बीच नहीं आने दिया।
राधिका को याद है, जब छठी कक्षा में उसे नई किताबें खरीदनी थीं, लेकिन घर की आर्थिक स्थिति बेहद कमजोर थी। उस दिन माँ ने अपनी पुरानी साड़ी बेच दी, और जब राधिका ने पूछा कि वो साड़ी कहाँ गई, तो माँ ने हँसते हुए कहा,
"अब वो साड़ी तेरी किताबों में बदल गई है। जब तू पढ़-लिखकर बड़ी अफसर बनेगी ना, तब मैं सबसे सुंदर साड़ी पहनूंगी।"
माँ का यह सपना राधिका के दिल में बस गया।
समय बीतता गया। राधिका अच्छे नंबरों से दसवीं और बारहवीं पास करती गई। लेकिन जब कॉलेज जाने का समय आया, तो पैसे की तंगी फिर रास्ता रोकने लगी। माँ ने एक बार फिर अपनी चूड़ियाँ गिरवी रख दीं। राधिका ने देखा तो रो पड़ी।
"माँ, इतना क्यों कर रही हो मेरे लिए?"
माँ ने उसका सिर चूमा और बोली,
"बेटी, तू मेरी उड़ान है। माँ का सपना होता है कि उसकी बेटी उससे भी ऊँचा आकाश छुए।"
कॉलेज में राधिका को स्कॉलरशिप मिल गई, और उसके बाद उसने पत्रकारिता में डिग्री पूरी की। उसकी लिखी कहानियाँ अखबारों में छपने लगीं, और फिर एक दिन उसकी पहली किताब भी प्रकाशित हुई — "माँ का आँचल"। यह किताब उसकी माँ के संघर्षों और प्रेम की सच्ची झलक थी।
लेकिन उसी समय एक ऐसा मोड़ आया, जो राधिका की ज़िंदगी को झकझोर गया।
माँ को कैंसर हो गया था।
राधिका ने अपने सारे काम छोड़कर माँ की सेवा की। अस्पताल के हर चक्कर में, माँ के हर दर्द में वो उसके साथ रही। माँ मुस्कुराती रहतीं, फिर भी हर बार राधिका का हाथ थामकर कहतीं,
"डर मत बेटी, माँ को कुछ नहीं होगा। मैं तेरी अगली किताब का विमोचन देखूंगी।"
लेकिन माँ की बीमारी ने धीरे-धीरे उनका शरीर तोड़ दिया।
एक शाम, माँ की हालत बहुत बिगड़ गई। डॉक्टरों ने जवाब दे दिया। राधिका माँ के पास बैठकर रो रही थी। माँ ने उसकी आँखों से आँसू पोंछे और धीमे स्वर में कहा,
"बेटी, माँ कहीं नहीं जाती। मैं तेरे हर शब्द में रहूंगी, तेरे हर सपने में। तुझे जब भी लगे कि थक गई है, तो याद कर लेना माँ को — तेरे साथ हूँ हमेशा।"
और फिर, माँ हमेशा के लिए सो गईं।
उस दिन के बाद, राधिका बदल गई। वह टूट गई थी, लेकिन माँ की बातों ने उसे जीने की वजह दी। उसने अपने अंदर की कमजोरी को अपनी लेखनी का हथियार बनाया। उसने माँ की यादों को शब्दों में उतारना शुरू किया।
वह हर किताब की शुरुआत माँ को समर्पित करती, हर पुरस्कार को माँ की तस्वीर के सामने रखती। उसकी लिखी कहानियों में माँ की ममता, त्याग, संघर्ष और स्नेह साफ दिखाई देता।
आज जब भी कोई पाठक उसकी किताब पढ़ता है, वो यही कहता है —
"आपकी कहानियाँ दिल को छू जाती हैं। उनमें एक माँ की आत्मा बसती है।"
राधिका जानती है कि उसकी सबसे बड़ी प्रेरणा, उसकी सबसे बड़ी गुरु — उसकी माँ ही थीं।
हर बार जब वह थक जाती है, तो माँ की वो बात याद करती है —
"माँ कहीं नहीं जाती, मैं तेरे साथ हूँ हमेशा।"
समाप्त।
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