अक्टूबर जंक्शन लेखक दिव्य प्रकाश दुबे
हमारी दो ज़िंदगियां होती है
एक जो हम हर दिन जीते है
दूसरी जो हम हर दिन जीना चाहते है
उस दूसरी जिंदगी के नाम ....
आज बात करते है दिव्य प्रकाश दुबे जी के उपन्यास अक्टूबर जंकशन की जो कहानी है संघर्षशील लेखिका चित्रा पाठक और सफल बिजनेसमैन सुदीप यादव की जिनके जीवन में अक्टूबर की 10 तारीख एक महत्वपूर्ण दिन बन जाता है ये साल की वो तारीख होती है जिस दिन ये दोनों मिलते है इसके अलावा साल भर ना ये बात करते ना मुलाकात और ना कोई फोन कॉल या msg ... कई बार जीवन में कुछ सफर सिर्फ रुक जाने के लिए होते है ऐसा ही एक सफर हैं लगा अक्टूबर जंक्शन को पढ़ कर जो सफर बनारस के घाटों से शुरू होता है और उसको अन्नत गहराइयों में खो जाता है ये कहानी हैं अनकहे प्यार और समर्पण की जिसमें चित्रा अपने आपको स्थापित लेखिका बनाने के लिए संघर्ष करती है वही एक कम पढ़ा लिखा युवक जो अपनी पढ़ाई छोड़ घर से भाग एक सफल बिजनेसमैन बन जाता है फिर भी सब कुछ पा लेने के बाद भी अपने मन के भार से मुक्त नहीं हो पाता .....!
कहा जाता है ना कई बार कही हुई बातों से ज्यादा खामोशियां आपकी कहानी कह देती है वही खामोशी इन दोनों के रिश्ते को करीब लाती है जो रिश्ता दोस्ती का नहीं हैं, प्रेमी प्रेमिका का नहीं हैं, विवाहित जोड़े का नहीं हैं, लेकिन वे एक खास तरह से करीब हैं जिसे परिभाषित नहीं किया जा सकता।.... जैसा के उपन्यास की शुरुआत में लिखा एक तरफ वह जीवन है जो हम जी रहे हैं और दूसरी तरफ वह जीवन है जो हम जीना चाहते हैं, के बीच के अंतर को दर्शाता है। वैसे ही 10 अक्टूबर वो तारीख है जो इन दोनों की जिंदगी में नई उम्मीदें और नए सवाल लेकर आता है। दोनों के जीवन में चलने वाले से संघर्षों और धोखो से लड़ने की जिद की कहानी है ...!
बनारस की गलियों और घाटों का बहुत अच्छा विस्तृत चित्रण किया गया जो बनारस के प्रति आपके मन में एक जिज्ञासा को बढ़ा देगा जैसा दोनों की मिलाकर की शुरुआत में एक चर्चा है जिसमें चित्रा सुदीप से पूछती है कितने दिन हुए आए बनारस और बोलता हाइबेक दिन तो कहती है एक दो दिन के लिए आओगे तो बनारस कभी अच्छा नहीं लगेगा। बनारस आओ तो फुर्सत से आओ। बनारस आते बहुत लोग है लेकीन पहुंच कम लोग पाते है ...! बनारस लोग जब आते जब आगे रास्ता नहीं दिखता ... जो लोग बनारस गए है वो इस बात को बहुत अच्छे तरीके से समझ सकते है ...
दिव्य प्रकाश दुबे जी का ये उपन्यास बहुत सादगी और शालीनता पूर्वक भाषा में लिखा है जो आपको एक बहुत अच्छे प्रेम के सफर पर ले जाता है कुल मिलाकर सादी सरल भाषा में एक अच्छा उपन्यास है जो आपको एक अनकहे प्यार के रोमानी सफर पर ले जाता है पर इसका अंत में दिव्य प्रकाश दुबे जी एक प्रस्तावना और लिखी जिसमें उन्होंने लिखा है ....
कुछ कहानियां लेखक पूरी नहीं करना चाहता क्योंकि वैसी कहानियां पूरी होते ही दिल और दिमाग से हट जाती हाइवजब तक कहानी अधूरी रहती है तब तक लेखा और पाठक की उंगलियां उनको बार बार छूने के लिए बेचैन रहती है ...! आप ये कहानी पढ़ कर खुद सोचे के इसका अंत कैसा होना चाहिए था ....!
इस कहानी को पढ़ कर एक मूवी का बहुत प्रचलित गाने के शब्द आपके विचार में आ सकती है
पास आये..
दूरियां फिर भी काम ना हुई, एक अधूरी सी हमारी कहानी रही। आसमां को ज़मीन ये ज़रुरी नहीं जा मिले.. इश्क़ सच्चा वही जिसको मिलती नहीं मंज़िलें
समीक्षा प्रस्तुति : विश्वास