भाग 2
(जहाँ सपने भी सच बन जाते हैं... और चाबी सिर्फ ताला नहीं, रास्ता खोलती है।)
उस रात मैं नींद में करवटें बदलती रही।
लेकिन सुबह जैसे ही आँख खुली, धूप ने मुझे किसी नए फ़ैसले की ओर ढकेल दिया।
चाबी अब भी मेरे हाथों में थी… और दिल में एक अजीब सी कसक।
जैसे कुछ छूट गया हो, कुछ अधूरा… जिसे अब पूरा करना ज़रूरी था।
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और तब मुझे याद आया... आज वही दिन है।
वही दिन — जब मेरे ससुराल वाले पहली बार हमारे घर आने वाले हैं।
माँ ने फिर से वही हल्के नीले रंग की जीन्स और टॉप निकाल दी।
पापा ने पूछा, “सब ठीक है ना बेटा?”
और मेरा छोटा भाई… उसकी मुस्कान में वही शरारत थी —
जैसे उसे फिर लग रहा हो, सब कुछ किसी फ़िल्म जैसा है… बस इस बार ‘पार्ट 2’ चल रहा हो।
मैं मुस्कुराई… क्योंकि मुझे सब कुछ याद था।
वह सपना... वह हवेली...
और हाँ — वह चाबी, जो अब भी मेरे पास थी।
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शाम को जब हम सब होटल के लिए निकले,
रास्ता कुछ अलग सा लगने लगा।
ड्राइवर ने ग़लत मोड़ ले लिया… या शायद यह कोई और ही रास्ता था —
क्योंकि कुछ ही देर में हम उसी हवेली के पास पहुँच गए,
जिसे मैंने अपने सपने में देखा था।
वही विशाल दरवाज़े, वही रंग-बिरंगी काँच की खिड़कियाँ, वही हवा में बसी पुरानी महफ़िल की ख़ुशबू।
माँ ने हैरानी से कहा, “अरे, यह तो बहुत सुंदर जगह है, डिनर यहीं कर लें?”
मैं बस चुप रही… क्योंकि मुझे पता था —
यह डिनर नहीं, तक़दीर का बुलावा था।
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मेरे हाथों में अब भी वही चाबी थी।
मैं आगे बढ़ी, और जैसे सपने में किया था, दरवाज़े में चाबी लगाई।
दरवाज़ा खुला।
हवेली ने हमें अपने भीतर बुला लिया —
उसके हर कोने में जैसे कोई कहानी छिपी हो।
राज मेरे पास आया, धीरे से पूछा —
“यह जगह… पहली बार आई हो न?”
मैं उसकी आँखों में देखती रही।
“पहली बार? या… एक बार पहले भी?”
उसके चेहरे पर हल्की सी हैरानी और मुस्कान एक साथ थी।
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सब लोग अंदर घूम रहे थे, तस्वीरें देख रहे थे, खुश थे…
पर मुझे और राज को थोड़ा वक़्त चाहिए था।
मैंने उसका हाथ पकड़ा और उसे वहीं ले गई —
जहाँ हवेली के पीछे एक छोटी सी झील थी।
झील का पानी शांत था…
जैसे अब उसने हमें पहचान लिया हो।
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लकड़ी के पुल पर हम दोनों साथ चलते रहे…
हवा मेरे बालों से खेल रही थी, और राज… मेरे हाथ से।
मैं झील की ओर देखते हुए बोल पड़ी —
“याद है? जब तुम मुझे पहली बार देखने आए थे…
तुम कुछ बोल ही नहीं पाए थे।”
राज हँसा — उस हँसी में संकोच था।
“मैं क्या बोलता?”
उसने आँखों से बात की —
“तू सामने थी… और मुझे लग रहा था कहीं सपना न हो।”
मैं उसके और पास चली गई, उसका हाथ थाम कर बोली —
“तुम्हारे मम्मी-पापा तो मुझसे बातें कर रहे थे…
और मैं बस ये सोच रही थी —
‘ये लड़का मुझे देख भी रहा है या सिर्फ़ घूर कर हवा में खो गया है?’”
राज ने आँखें फेर ली, “मैं तो सोच रहा था —
ये लड़की मुझे हाँ भी बोलेगी या चाय के साथ मेरी जान ले लेगी।”
हम दोनों हँस पड़े — लेकिन उस हँसी में एक पुरानी सच्चाई थी।
राज ने धीरे से कहा,
“मैं चाहता था तू हाँ बोले… पर डर था,
कहीं तू मेरी ज़िंदगी में सिर्फ़ एक मुलाक़ात बनकर न चली जाए।”
मैं उसकी ओर मुड़ी,
“तभी तो… मैंने चाय के बाद भी दो मिनट ज़्यादा बैठना चुना था।
क्योंकि मैं भी नहीं चाहती थी कि तू सिर्फ़ एक मेहमान बनकर जाए।”
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उसने मेरा हाथ ज़ोर से थामा।
और हम दोनों… उस झील के उस पल में खो गए —
जहाँ प्यार न सपना था, न हक़ीक़त।
सिर्फ़ एहसास था।
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🔐 और हवेली?
अब वो सिर्फ़ एक इमारत नहीं थी…
वो मेरी कहानी का एक हिस्सा बन चुकी थी —
जिसमें चाबी से ज़्यादा… यादों का ताला खुला था।
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धन्यवाद ❤️
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आपका वक्त देना मेरे लिए बहुत मायने रखता है।
अगर कहीं कोई कमी लगी हो, या कोई पल दिल को छू गया हो —
तो ज़रूर बताइएगा।
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अगली कहानी का रास्ता आसान बना सकता है।
पढ़ने के लिए दिल से शुक्रिया!
आप जैसे पाठक ही इस सफ़र को ख़ास बनाते हैं। 🌸
-डिम्पल लिम्बाचिया 🌸