🏡 परिवार की परछाइयाँ
भाग 1: जडे
वाराणसी की पावन धरती पर गंगा किनारे बसा एक मोहल्ला – केदार घाट का इलाका, जहाँ मंदिरों की घंटियाँ सुबह-सुबह पूरे वातावरण को आध्यात्मिक बना देती थीं। उसी मोहल्ले के बीचोंबीच एक पुराना, दोमंज़िला घर खड़ा था – “शुक्ला निवास।”
यह घर सिर्फ ईंट-पत्थरों से बना मकान नहीं था, यह एक जड़ था – एक ऐसी जड़, जिसमें एक पूरा परिवार अपनी परंपराओं, रिश्तों, संघर्ष और प्रेम के साथ फल-फूल रहा था।
👴🏼 बाबूजी - रामनिवास शुक्ला
घर के मुखिया, लगभग 70 साल के रामनिवास शुक्ला, सादा सफ़ेद धोती-कुर्ता, सिर पर हल्के झुर्रियों वाली टोपी और पैरों में चमड़े की चप्पल पहने हर सुबह तुलसी को जल देते हुए कहते –
> “परिवार एक पेड़ की तरह होता है। उसकी जड़ें अगर गहरी हों, तो आँधी भी हिला नहीं सकती।”
शांत, अनुशासनप्रिय लेकिन दिल से बेहद कोमल। वे कभी ऊँची आवाज़ में नहीं बोलते थे, लेकिन उनके शब्द घर के हर सदस्य के लिए आदेश होते थे।
👵 माँ - कौशल्या शुक्ला
बाबूजी की अर्धांगिनी – कौशल्या। सिर पर पल्ला, हाथ में पूजा की थाली और चेहरे पर एक ऐसा तेज़, जो आजकल की औरतों में कम ही देखने को मिलता है।
साड़ी का पल्ला सँभालते हुए वह सुबह सबसे पहले रसोई में पहुँच जातीं।
> "अरे मनोज के लिए दूध गरम किया की नहीं?"
"शरद को दही पसंद है ना, देखना ठंडी होनी चाहिए।"
उनका जीवन सिर्फ अपने परिवार के लिए था। उनका प्यार इतना गहरा था कि घर की दीवारें भी उसे महसूस करती थीं।
👨👦👦 तीन बेटे: अशोक, शरद और मनोज
1. अशोक (सबसे बड़ा):
जिम्मेदार, बाबूजी का दायाँ हाथ, घर के किराना व्यवसाय को संभालता था।
उसकी पत्नी – सुमन – तेज़-तर्रार और थोड़ी स्वार्थी।
2. शरद (मंझला बेटा):
पढ़ा-लिखा, बैंक में नौकरी करने वाला, शांत और विचारशील।
पत्नी – रचना – आधुनिक सोच वाली लेकिन संयमी।
3. मनोज (सबसे छोटा):
कॉलेज में पढ़ाई कर रहा था, मस्तीखोर, लेकिन दिल का साफ।
अभी अविवाहित। उसकी आँखों में बड़े सपने थे।
🏠 घर का वातावरण
हर सुबह रामनिवास जी तुलसी को जल देते, फिर रामचरितमानस का पाठ करते। रसोई से घी की महक आती, बच्चे स्कूल की तैयारी करते, बहुएँ चाय-पानी में व्यस्त होतीं, और दादी (कौशल्या) पूजा में लीन रहतीं।
शाम होते ही छत पर सभी मिल बैठते – दादी की कहानियाँ, बाबूजी की नसीहतें और बच्चों की हँसी गूंजती रहती।
हर शनिवार को पूरे घर में खिचड़ी भोज बनता और सब एक साथ बैठकर खाते।
> "आज की खिचड़ी में दादी का हाथ है, इसलिए इतनी स्वादिष्ट है!"
"नहीं मम्मी, आज शरद भैया ने नमक डाला है इसलिए मज़ेदार है।"
सब हँसते।
🌿 रिश्तों की गहराई
एक शाम बाबूजी मनोज के साथ छत पर टहल रहे थे।
> "बाबूजी, आप इतने शांत कैसे रहते हो?"
"बेटा, जब घर में सब अपनी जगह हैं, तब शांति अपने आप आती है। बस सबको थोड़ा समझने की ज़रूरत होती है।"
मनोज मुस्कराया।
> "आप जैसे सबके बाबूजी नहीं होते।"
बाबूजी ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा,
> "बस यही चाहता हूँ कि जब मैं न रहूँ, तब भी ये घर यूँ ही हँसता-खिलखिलाता रहे।"
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🙏 भावनाएँ और जुड़ाव
उस घर में सिर्फ लोग नहीं थे, वहां जुड़ाव था।
चूल्हे की आँच में माँ का प्यार था,
आँगन की दीवारों पर बच्चों की मुस्कान,
छत पर भाईचारे की हवा थी,
और उस बरगद के पेड़ के नीचे बाबूजी का आशीर्वाद।
शुक्ला परिवार एक आदर्श था, जहाँ हर रिश्ता एक धागे से बंधा था।
लेकिन…
जैसे-जैसे समय बदलेगा, विचार बदलेंगे, जरूरतें बदलेंगी... और यही मजबूती की जड़ें धीरे-धीरे डगमगाएँगी।
भाग 2: दरारे
“परिवार की दीवारें अक्सर बाहर से नहीं, भीतर से दरकती हैं…”
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🌩 बदलाव की शुरुआत
शुक्ला निवास में एक सुबह कुछ अलग थी। बाबूजी की पेशानी पर चिंता की लकीरें थीं।
कारण था — कारोबार में गिरावट।
अशोक, जो किराने की दुकान संभाल रहा था, पिछले तीन महीने से घाटे की रिपोर्टें ला रहा था।
> "बाबूजी, ऑनलाइन मार्केट के कारण ग्राहक कम हो गए हैं। कुछ बड़ा बदलाव करना पड़ेगा।"
बाबूजी ने गहरी साँस ली,
> "बेटा, हम ज़माने से चल रहे हैं। लेकिन अब समय के साथ बदलना भी पड़ेगा।"
सुमन (अशोक की पत्नी) ने एक दिन अशोक से कहा,
> "हर दिन सुबह-शाम दुकान पर खटना और बदले में घाटा? इस घर में हम ही सबसे ज़्यादा काम करते हैं और बाकी बस मज़े।"
अशोक चुप रहा, लेकिन उसके मन में शब्द गूंज गए।
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🏙 शरद की नौकरी और अलगाव की बातें
उधर शरद की बैंक में पदोन्नति हुई — लेकिन नई पोस्टिंग लखनऊ में।
शरद ने जब यह बात सबके सामने रखी, तो घर में सन्नाटा छा गया।
> "बाबूजी, यह प्रमोशन मेरे करियर के लिए ज़रूरी है।"
"बेटा, लेकिन घर…?"
"मैं... रचना और बच्चों को साथ ले जाऊँगा।"
माँ का चेहरा उतर गया, पर उन्होंने कुछ नहीं कहा।
शरद चला गया।
रचना ने जाते-जाते माँ के पाँव छुए, लेकिन उसकी आँखों में कोई गहराई नहीं थी।
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⚖️ संपत्ति की चर्चा
मनोज के कॉलेज में फॉर्म जमा करने की आखिरी तारीख थी। फीस भरने के लिए पैसे कम पड़ रहे थे।
उसी वक्त अशोक और सुमन ने बाबूजी से कहा —
> "अब वक्त आ गया है कि घर का हिस्सा सबको मिले। सबको बराबर मिलना चाहिए।"
यह वाक्य सुनते ही जैसे कौशल्या के कानों में विस्फोट हुआ हो।
> "हिस्सा...? ये घर तो सबका है। किस हिस्से की बात कर रहे हो?"
बाबूजी शांत थे, लेकिन गहराई से आहत। उन्होंने टेबल पर हाथ रखा और धीरे बोले –
> "अगर यही सबको ठीक लगता है, तो बाँट लो। लेकिन एक बात याद रखना – घर बाँटा जा सकता है, दिल नहीं।"
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🧱 दीवारें बनने लगीं
अगले ही सप्ताह घर के आँगन को बाँटने की तैयारी शुरू हो गई।
छोटे-छोटे पर्दे और अलमारियाँ लगाई गईं।
पहले जो एक चूल्हा था, अब दो हो गए।
सामूहिक भोजन अब अलग-अलग हो गया।
मनोज सबसे ज़्यादा टूटा था। वह माँ से कहता,
> "माँ, क्या हम वाकई अलग हो रहे हैं?"
माँ मुस्कराने की कोशिश करतीं, लेकिन आँखें नम हो जातीं।
"बेटा, कभी-कभी लोग अपनों के रहते हुए भी अकेले हो जाते हैं…"
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🥺 बाबूजी और माँ – दो अकेले लोग
बाबूजी अब बहुत कम बोलते थे। उनके चेहरे की मुस्कराहट धीरे-धीरे ग़ायब होती जा रही थी।
कौशल्या माँ मंदिर के कोने में बैठी जप करतीं, लेकिन हर 'राम नाम' में उनके आँसू भी शामिल होते।
एक दिन मनोज ने देखा –
बाबूजी बरामदे में अकेले बैठे हैं, चुपचाप पुराने एल्बम पलट रहे हैं।
हर तस्वीर में सब हँस रहे थे…
और अब वही लोग अलग-अलग कमरों में, अलग-अलग रोटियाँ सेंक रहे थे।
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🌪 अंतिम झटका
मनोज का एडमिशन पैसों के कारण नहीं हो पाया।
वो चुपचाप एक दिन घर छोड़कर चला गया – शहर में नौकरी ढूँढ़ने।
बाबूजी ने उस दिन किसी से कुछ नहीं कहा।
बस शाम को तुलसी के पास बैठे और बोले –
> "शायद पेड़ की छाँव अब सबको अलग लगने लगी है…"
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😔 अंत में...
एक दिन कौशल्या माँ ने बाबूजी से कहा –
> "हमने सब कुछ बच्चों के लिए किया। और आज... हम ही सबसे अलग हो गए।"
बाबूजी ने उनकी हथेली थामी और बोले –
> "अब जो करना है, चुपचाप सहना है। एक दिन सब लौटेंगे... और तब यह आँगन फिर से हँसेगा।"
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भाग 3: अलगाव
🕯️ “जिस घर में पहले एक साथ दीप जलते थे, अब वहाँ अंधेरे अलग-अलग हैं…”
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🌌 माँ-बाबूजी की तन्हाई
अब उस घर में चहल-पहल नहीं रही।
जहाँ पहले सुबह-सुबह बच्चों की आवाज़ें, माँ की पूजा की घंटी, और बाबूजी की रामचरितमानस की पाठ सुनाई देती थी… अब सन्नाटा फैल चुका था।
शरद लखनऊ जा चुका था।
अशोक अब भी उसी घर में था, लेकिन दीवार खींच चुका था।
मनोज शहर चला गया था।
बाबूजी और माँ — उस विशाल मकान में दो बूढ़े प्राणी रह गए थे।
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🧹 बिखरे रिश्ते
माँ सुबह उठतीं, पूजा करतीं, और दो कप चाय बनाकर बाबूजी को देतीं।
> "आज मनोज की बहुत याद आ रही है। उसका फोन भी नहीं आता।"
बाबूजी बस चाय की चुस्की लेते रहे।
वे टूट चुके थे — लेकिन बिखरने नहीं देना चाहते थे।
घर की दीवारें अब वैसी नहीं थीं।
बातचीत कम होती जा रही थी।
अशोक और सुमन कभी-कभी मिलने आ जाते, पर उनके शब्दों में अपनापन नहीं, औपचारिकता होती।
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📞 मनोज का संघर्ष
मनोज शहर में नौकरी ढूँढ़ रहा था। वह हर दिन माँ-बाबूजी को याद करता लेकिन फोन पर हँसकर बात करता।
> "माँ, चिंता मत करना। जल्द ही कुछ अच्छा होगा।"
लेकिन भीतर से वह भी टूट रहा था।
हॉस्टल के एक कोने में बैठकर वह हर रात उस आँगन को याद करता जिसमें वह भाईयों के साथ गुल्ली-डंडा खेलता था।
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🏥 माँ की तबीयत
एक दिन माँ बेहोश होकर गिर पड़ीं।
बाबूजी उन्हें अस्पताल ले गए।
डॉक्टर ने कहा —
> "उन्हें तनाव है, अकेलापन है। उन्हें देखभाल की ज़रूरत है।"
बाबूजी ने शरद और अशोक को फोन किया।
शरद बोला —
> "मैं कोशिश करूँगा आने की, लेकिन बैंक में बहुत दबाव है।"
अशोक ने कहा —
> "हम कल देखेंगे पिताजी।"
और उस रात बाबूजी अकेले अस्पताल की बेंच पर बैठे रहे।
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💌 माँ का खत
माँ ने एक दिन बाबूजी से कहा –
> "अगर मैं न रहूँ, तो मेरे अलमारी के अंदर एक लाल रेशमी कपड़े में लिपटा खत मिलेगा।
उसे बच्चों को देना। वो मेरी आखिरी इच्छा होगी।"
बाबूजी कुछ बोले नहीं। उनकी आँखें नम थीं।
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🪔 अकेले दीप
घर में दीवाली आई, लेकिन दीप अकेले जले।
माँ ने दरवाज़े पर दो दीये रखे और बोलीं –
> "इस बार बच्चों ने फोन तक नहीं किया।"
बाबूजी ने धीरे से कहा —
> "शायद दीयों की रोशनी वहाँ तक नहीं पहुँचती, जहाँ खुदगर्ज़ी की दीवारें होती हैं…"
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📉 अशोक का व्यापार डूबा
उधर अशोक का कारोबार भी अब पूरी तरह डूब चुका था।
सुमन ने कहा —
> "काश हमने कभी अलग होने की ज़िद न की होती।"
अशोक ने पहली बार माँ-बाबूजी को याद करके आँखें पोंछीं।
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🧳 और एक दिन...
शरद की शादी में तनाव बढ़ता गया। रचना अब हर बात पर ताने देती थी –
> "तुम्हारे परिवार की सोच ही पुरानी है। हम क्यों रिश्ते ढोएं?"
शरद की नौकरी भी अब सुरक्षित नहीं थी।
उसने एक रात सोचा —
> "क्या बाबूजी और माँ ने भी कभी ऐसी परेशानी में हमें अकेला छोड़ा था?"
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📢 मनोज की नौकरी लगी
मनोज को एक अच्छी कंपनी में काम मिल गया।
उसने पहला वेतन मिलते ही बाबूजी को फोन किया –
> "बाबूजी! मैं आ रहा हूँ। इस बार सब बदलना है…"
बाबूजी की आँखों से आँसू बह निकले।
---बहुत बढ़िया Anjali ji! 😊
अब प्रस्तुत है —
🛤️ परिवार की परछाइयाँ
भाग 4: संघर्ष (Struggles)
(शब्द: लगभग 2200)
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💭 “रिश्ते अगर ताजमहल जैसे मजबूत हों, तो समय की आँधियाँ भी उन्हें तोड़ नहीं सकतीं… मगर अगर नींव हिल जाए तो?”
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🧍♂️ बाबूजी का मौन संघर्ष
बाबूजी अब कमज़ोर हो चुके थे।
माँ की तबीयत भी अक्सर बिगड़ने लगी थी।
घर अब सचमुच सिर्फ एक ढांचा था — जहां सिर्फ यादें थीं।
शुक्ला निवास का वो आँगन अब वीरान हो गया था।
लेकिन बाबूजी हर दिन तुलसी को पानी देते, रामचरितमानस पढ़ते और मन ही मन मनोज के लौटने की राह देखते।
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👨💼 शरद का पछतावा
लखनऊ में शरद की ज़िंदगी अब उलझ चुकी थी।
रचना से लड़ाई बढ़ती जा रही थी।
बच्चे अक्सर दादी की कहानियाँ याद करते थे।
एक रात, अकेले बैठे शरद ने माँ का पुराना खत खोला, जो उन्होंने उसे विदाई के वक़्त दिया था:
> "बेटा शरद,
अगर कभी लगे कि ज़िंदगी बहुत दौड़ रही है, तो एक बार घर आकर आँगन में बैठ जाना।
वहाँ की मिट्टी अब भी तुम्हारी खुशबू पहचानती है…
माँ"
शरद की आँखें भर आईं।
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📉 अशोक की टूटन
अशोक ने व्यापार में जो बचा था वो भी गँवा दिया।
सुमन का व्यवहार अब कड़वा होता जा रहा था।
अशोक अब अकेले बैठकर बाबूजी की बातें याद करता:
> "बेटा, परिवार एक गाड़ी की तरह है — एक पहिया टूटे तो पूरी गाड़ी डगमगाने लगती है…"
अशोक ने पहली बार खुद को दोषी माना।
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🏢 मनोज की वापसी
मनोज जब शुक्ला निवास लौटा, तो घर की हालत देखकर स्तब्ध रह गया।
माँ बिस्तर पर थीं
बाबूजी की कमज़ोरी साफ़ झलक रही थी
घर में सन्नाटा गूंज रहा था
मनोज ने माँ का हाथ थामा,
> "माँ, मैं आ गया हूँ। अब कोई आँसू नहीं।"
उसने तुरंत नौकरी से छुट्टी ली और पूरा ध्यान घर पर लगाने लगा।
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🛠️ बदलाव की शुरुआत
मनोज ने:
बाबूजी की दवा की पूरी व्यवस्था की
माँ के खाने-पीने का ध्यान रखा
घर की मरम्मत शुरू करवाई
पुराना आँगन दोबारा सजा दिया
धीरे-धीरे घर में रौनक लौटने लगी।
तुलसी चौरा में फिर से दीया जलने लगा।
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📞 शरद की वापसी
शरद ने एक दिन मनोज को फोन किया –
> "भाई, अगर माँ-पिताजी कुछ कहें तो बता देना... हम लौटना चाहते हैं।"
मनोज ने कहा —
> "माँ ने कुछ नहीं कहा, लेकिन हर सुबह वो तुम्हारी याद में आँखें बंद कर लेती हैं…"
शरद अगली ही सुबह घर पहुँच गया।
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🤝 भाइयों का मिलन
शरद और मनोज आँगन में बैठे थे।
मनोज ने कहा —
> "याद है, हम यहीं गुल्ली डंडा खेलते थे?"
"और दादी खिड़की से चिल्लाती थीं — ‘अब अंदर आ जाओ!’"
दोनों हँस पड़े।
और फिर... अशोक भी वहाँ आ पहुँचा।
सब एक साथ बैठ गए।
माँ ने आँखें खोलीं और तीनों बेटों को साथ देखकर मुस्कराईं।
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🙏 माँ-बाबूजी की इच्छा
एक रात माँ ने तीनों बेटों को बुलाया और कहा:
> "बच्चों, ये घर अब भी तुम्हारा है… लेकिन अगर ये आँगन फिर से बँटा, तो मेरी आत्मा को शांति नहीं मिलेगी…"
बाबूजी बोले —
> "हमने गलती की कि सब कुछ बाँट दिया। अब तुम सब एक होकर उसे जोड़ो।"
तीनों भाइयों ने माँ के पाँव छुए।
मनोज ने कहा —
> "अब ये घर दोबारा कभी नहीं बँटेगा।"
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🌱 नया आरंभ
मनोज ने घर में एक लाइब्रेरी बनाई — “कौशल्या पठनालय”
शरद ने गाँव में एक बैंक ब्रांच खुलवाई
अशोक ने फिर से किराने की दुकान शुरू की — अब ऑनलाइन डिलीवरी के साथ
शुक्ला निवास अब फिर से जिंदा हो गया था।
भाग 5: पुनर्जन्म
🌅 “जो टूटता है, वो खत्म नहीं होता — कभी-कभी उसी टूटन से एक नई सुबह जन्म लेती है।”
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🌼 सुबह की नई किरण
शुक्ला निवास अब पहले जैसा नहीं रहा —
अब वह और बेहतर था।
जहाँ कभी दीवारें खड़ी हो गई थीं, वहाँ अब प्यार के पौधे फिर से पनपने लगे थे।
बाबूजी तुलसी के पास बैठकर रामचरितमानस पढ़ते थे,
माँ बच्चों को कहानी सुनाती थीं —
अब वे पोते-पोतियों को ‘परिवार’ का असली मतलब सिखा रही थीं।
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🧒 नई पीढ़ी का उत्साह
मनोज के बेटे आरव ने एक दिन पूछा —
> "दादी, क्या हमारे पापा भी आपसे नाराज़ हो गए थे?"
माँ मुस्कराईं और बोलीं —
> "नहीं बेटा, वो तो बस रास्ता भूल गए थे… लेकिन फिर परिवार ने उन्हें वापस बुला लिया।"
शरद की बेटी काव्या ने कहा —
> "हम कभी अलग नहीं होंगे, ना दादी?"
माँ ने उसे गले से लगा लिया —
> "अगर तुम अपने बड़ों की इज़्ज़त करोगे और एक-दूसरे का साथ दोगे, तो कोई भी तुम्हें बाँट नहीं सकता।"
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📚 ‘परिवार महोत्सव’
मनोज ने गाँव में हर साल एक ‘परिवार महोत्सव’ शुरू किया,
जिसमें आसपास के लोग आते, कहानियाँ सुनते, और बच्चों को परिवार के मूल्यों के बारे में बताया जाता।
शुक्ला परिवार एक मिसाल बन गया —
जहाँ एक वक़्त दरारें थीं, अब वहाँ जोड़ने वाली रस्में थीं।
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🪔 माँ-बाबूजी की विदाई
समय की रीत है — जो आया है, उसे जाना है।
एक सर्द सुबह, माँ ने चुपचाप विदा ली।
बाबूजी ने उन्हें आखिरी बार देखा और कहा —
> "तुमने जो घर बनाया था, वो अब फिर से जी उठा है… तुम निश्चिंत रहो…"
कुछ ही महीने बाद, बाबूजी भी माँ के पास चले गए।
तीनों भाइयों ने उन्हें एक साथ मुखाग्नि दी —
और वादा किया:
> “अब यह घर कभी न टूटेगा। यह हमारी जड़ है, और भविष्य भी।”
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🌳 वटवृक्ष बनता परिवार
शुक्ला निवास अब सिर्फ एक मकान नहीं था,
बल्कि वह एक संस्था बन चुकी थी —
जहाँ हर पीढ़ी रिश्तों की अहमियत सीखती।
बच्चों के लिए संस्कारशाला
महिलाओं के लिए आत्मनिर्भरता केंद्र
युवाओं के लिए करियर गाइडेंस
और बुज़ुर्गों के लिए सेवा स्थल
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📖 माँ का आखिरी खत
एक दिन मनोज को माँ का लिखा एक और खत मिला, जो अलमारी में छुपा था:
> "प्रिय बच्चों,
अगर कभी ज़िंदगी के रास्ते तुम्हें उलझा दें, तो एक बार आँगन में बैठ जाना —
वहाँ की मिट्टी अब भी तुम्हारे बचपन की खुशबू लिए है।
परिवार टूटता नहीं, बस थक जाता है — और तुम्हें उसे फिर से खड़ा करना होता है।
तुम्हारी माँ"*
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🏡 समापन
अब शुक्ला निवास के मुख्य द्वार पर एक पट्टिका टंगी है:
> “परिवार की परछाइयाँ कभी हमेशा के लिए नहीं होतीं…
जब साथ हों रिश्ते, तो अंधेरे में भी रौशनी लौट आती है।”
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✨ समाप्त ✨