From Chaupal to Cafe A Love Without Labels in Hindi Short Stories by Rishabh Sharma books and stories PDF | चौपाल से कैफे तक का फासला

Featured Books
Categories
Share

चौपाल से कैफे तक का फासला

"चौपाल से कैफे तक का फासला"
(हरियाणा का लड़का और दिल्ली की लड़की की वो बात जो अधूरी नहीं थी)

 

वीरेंद्र एक साधारण सा लड़का था — हरियाणा के झज्जर जिले से।
घुटनों तक पजामा, सफेद कुर्ता, और माथे पर बाल हल्के से बिखरे हुए।
बोलने का अंदाज़ सीधा, दिल का साफ़ और सोच — थोड़ी पुरानी, पर इरादे नए।

वो दिल्ली यूनिवर्सिटी में हिस्ट्री ऑनर्स पढ़ रहा था।
गांव से पहली बार इतना दूर आया था।
कमरे में पंखा था, मेट्रो में भीड़ थी, पर उसे सबसे अजनबी लगती थी — शहर की चुप्पी


और फिर पहली बार उसका सामना हुआ काव्या से।
दिल्ली की लड़की, कॉन्वेंट स्कूल से पढ़ी, खुले बाल, अंग्रेज़ी में सोचने वाली, लेकिन हिंदी में मुस्कुराने वाली।

वो क्लास में सबसे आगे बैठती, और वीरेंद्र हमेशा आख़िरी बेंच पर।
पर जब भी वह बोलती, वीरेंद्र ध्यान से सुनता —
जैसे कोई हरियाणवी खेत पहली बार बारिश देख रहा हो।


एक दिन क्लास में डिबेट थी —
विषय था: "प्यार और करियर साथ चल सकते हैं या नहीं?"

काव्या बोल रही थी — “प्यार एक भावना है, जो रुकावट नहीं, ताक़त बन सकती है।”

और वीरेंद्र उठा — पहली बार किसी बहस में।

बोला,
“गांव में हमारी माँ कहती थी —
प्यार पेट नहीं भरता, और सपने खेतों में नहीं उगते।
पर अब लगता है, शायद प्यार भी वही चीज़ है… जो आदमी को आगे बढ़ने की हिम्मत देता है।”

क्लास सन्न रह गई।
काव्या पहली बार मुस्कराई — वीरेंद्र की तरफ़।


धीरे-धीरे दोनों की बातचीत शुरू हुई।
कभी नोट्स के बहाने,
कभी लाइब्रेरी में किताब ढूंढते हुए,
और कभी-कभी बस चाय की दुकान पर चुप बैठकर।

वीरेंद्र काव्या की ज़िन्दगी के लिए थोड़ा देसी था —
उसे मोबाइल में चैटिंग नहीं आती थी,
पर उसकी बातों में वो अपनापन था, जो काव्या के शहर में खो गया था।


काव्या ने एक दिन पूछा —
“वीर, तुम इतने सीधे क्यों हो?”

वो बोला —
“क्योंकि मैं झूठ बोलना नहीं सीख पाया,
और जो सीधा होता है, उसे लोग याद रखते हैं… भले ही देर से समझें।”

काव्या चुप रही, लेकिन उस दिन के बाद वो रोज़ वीरेंद्र से मिलने लगी।


उनकी दुनिया एकदम अलग थी —
वीरेंद्र की सुबह दौड़ और दूध से शुरू होती,
और काव्या की कॉफी और पॉडकास्ट से।
लेकिन जब दोनों साथ होते,
तो न फर्क दिखता, न फासला।


एक दिन वीरेंद्र ने पूछा,
“तेरे घर वाले मानेंगे क्या? मैं ना इंग्लिश में फ्लुएंट हूं, न तगड़ा बैंक बैलेंस है।”

काव्या बोली,
“मेरे घरवाले नहीं, मेरा दिल माने या नहीं — ये ज़्यादा जरूरी है।”
“और तुममें जो सच्चाई है, वो किसी को भी तोड़ सकती है… धीरे-धीरे।”


लेकिन हर प्यार की कहानी आसान नहीं होती।

कॉलेज खत्म होने वाला था,
वीरेंद्र को गांव लौटना था — घर में खेती संभालनी थी,
और काव्या को एमबीए करना था — मुंबई जाना था।

फासला फिर सामने था।


विदाई वाले दिन वीरेंद्र बस स्टैंड पर चुप खड़ा था।

काव्या आई, आँखें हल्की सी भीगी थीं।
उसने वीरेंद्र का हाथ पकड़ा और कहा —

“अगर तुम कभी पीछे मुड़कर देखो और मैं वहां ना मिलूं,
तो समझना कि मैं कहीं खो नहीं गई, बस दुनिया के हिसाब से चल पड़ी हूं।
पर अगर तुम्हें कभी मेरे साथ की ज़रूरत हो…
तो दिल्ली की चौथी मेट्रो स्टेशन से उतर जाना —
मैं वहीं तुम्हारा इंतज़ार करूँगी, बिना शर्त।”


वीरेंद्र ने कुछ नहीं कहा।
बस उसका बैग उठाया, बस की पहली सीट पर बैठाया,
और सिर झुकाकर बोला —
“मैं गांव का हूं, पर वादा निभाना जानता हूं।
तेरे लिए नहीं, अपने लिए लौटूंगा।”


दो साल बीते।

वीरेंद्र अब झज्जर में एक छोटा-सा ऑर्गेनिक फार्म चला रहा था।
सादगी से, मेहनत से और ईमानदारी से।

काव्या… मुंबई में एक बड़ी कंपनी में HR बन चुकी थी।

पर दोनों ने कभी एक-दूसरे को ब्लॉक नहीं किया।
ना दिल से, ना फोन से।


एक दिन वीरेंद्र को एक मैसेज आया —
"चौथी मेट्रो स्टेशन याद है?"

वीरेंद्र मुस्कराया।
शर्ट बदली, बाल ठीक किए…
और दिल्ली की ओर निकल पड़ा।