कतरा कतरा जिंदगी
**************** कतरा कतरा जिंदगी मेरी नजर से। यह समीक्षा नहीं , मैं समीक्षा का साहस नहीं कर सकती। यह केवल मं के भाव हैं जो उपन्यास पढ़ने के बाद लफ़्ज़ों में ढले। मुकेश भैया की लेखनी कमाल की है , भाषा का प्रवाह अविरल नदी की चाल जैसा है। अलंकारों के साथ विशेषणों का प्रयोग भाषा की सुंदरता को अप्रतिम सौंदर्य प्रदान करता है। कथानक इतनी सहजता से आगे बढ़ता है कि आरंभ होने से अंत तक पाठक बंधा रहता है।
लेखक-श्री मुकेश दुबे जिंदगी की परिभाषा अनेकों रंग समेटे हुए होती है,जैसे जिसके अनुभव वैसी इसकी विवेचना।यही जाना जब "कतरा कतरा जिंदगी" को पढा।व्यस्तताओं के चलते अक्सर समय की कमी महसूस होती है। हड़बड़ी में कोई काम नही कर सकती।यही वजह है पढ़ने का समय भी कम ही निकाल पाती हूँ लेकिन जो भी पढा,उसे घोटकर पीया।"कतरा कतरा जिंदगी" जब पढ़नी आरम्भ की तो इसके प्रवाह ने बांध लिया।पढ़ती गयी और सोचती गयी।किसने कहा कि नारी, नर की अपेक्षा अधिक भावुक और सवेंदनशील होती है।या सिर्फ नारी के मन मे ही भावनाओं की लहरें उठती गिरती हैं पुरुषों के मन मे नही। उपन्यास का नायक अभिजीत चटर्जी....जितना लिखूं उतना कम।बेहद सुलझा हुआ इंसान,रिश्तों की गरिमा को न सिर्फ समझने वाला अपितु पूर्ण सम्मान भी देने वाला,अभिभावकों में ईश्वर देखने वाला,इस चरित्र में काल्पनिकता कहीं नही,दावे से कह सकती हूँ क्योकिं अभि में मैंने अपने पापा की भी झलक पाई।पिता के मान की खातिर प्रेमिका को छोड़ना।प्रेमिका के घरवालों के अनुरोद्ध पर उसे विवाह के लिए समझाना।अभि के तर्कों के सामने सुमि का सर झुकाना।शुभि को स्वीकारने में हिचकिचाहट के चलते अपराधबोध पर आत्ममंथन।पत्नी के समक्ष अतीत को खोलकर पुनः उसे इतिहास में दफन करना और नवजीवन का आरम्भ करना।एक सहयोगी को बहन न सिर्फ माना अपितु ताउम्र पूर्ण रूपेण बहन का सम्मान देना।न जाने कितने घटनाक्रम हैं इस उपन्यास में जो हर बार हर पात्र के लिए सम्मान में सर झुका जाते है।पात्रों में आदर्शवादिता के साथ ही मानवीय कमजोरियां उन्हें काल्पनिक होने से बचाती हैं।पत्नी के असमय निधन के बाद एकाकी जीवन को जीना।अचानक प्रेमिका सुमि के सामने आने पर भी उसे वास्तविकता का आभास भी न होने देना अभि की ऊंची सोच को दर्शाता है कारण यही कि उसकी परेशानी से कहीं सुमि के शांत जीवन मे तूफां न आ जाये।उफ्फ,दर्द है लेकिन दवा के साथ।अंत बेहद भावुक और गौरवपूर्ण पलों के साथ।अभि की खुद से लड़ाई या कहूँ कि अंतर्द्वंद ...किसी की भी पुरुषों के प्रति एक बनी बनाई पारम्परिक अवधारणा को बदलने में सक्षम।सुमि की चंचलता भरी शरारतों और जिद में मैंने खुद को पाया।अभि की चारित्रिक विशेषताओं विशेषकर समझ बूझ और धैर्य में मैंने मेरे हरजीत को पाया।ये उपन्यास मेरे दिल मे घर कर गया मुकेश भैया।इसे पढ़कर कुछ सवालों के जवाब स्वतः ही मिल गए ।अब सोच रही हूँ पहले क्यों नही पढा लेकिन हर काम का नियति वक़्त तय करती है।मेरे सवालों के जवाबों का शायद यही सही वक्त और माध्यम आपका उपन्यास ही बनना था।विनय......आज सिर्फ दिल से,बस यूं ही नही ......"कतरा कतरा जिंदगी "में एक नई जिंदगी को पाती हुई।
विनय...दिल से बस यूं ही