तानाजी मालुसरे, शिवाजी के घनिष्ठ मित्र और वीर निष्ठावान मराठा सरदार थे। वे छत्रपति शिवाजी महाराज के साथ हिंदवी स्वराज्य स्थापना के लिए सुभादार (किलेदार) की भूमिका निभाते थे।
तानाजी का जन्म 17वी शताब्दी में महाराष्ट्र के कोंकण प्रान्त में महाड के पास ‘उमरथे’ में हुआ था। वे बचपन से छत्रपति शिवाजी महाराज के साथी थे। ताना और शिवा एक-दूसरे को बहुत अच्छी तरह जानते थे। तानाजी, शिवाजी के साथ हर लड़ाई में शामिल होते थे। वे 1670 ई. में कोंढाणा (सिंहगढ़) की लड़ाई में अपनी महती भूमिका के लिये प्रसिद्ध है।
केवल 16 वर्ष की आयु में ही छत्रपति शिवाजी महाराज ने स्वराज स्थापित करने की प्रतिज्ञा की। गिने-चुने मावलों में धर्म-प्रेम की जागृति कर उन्हें लड़ना सिखाया और स्वराज की संकल्पना से उन्हें अवगत कराया। हिंदू स्वराज्य के लिए गिने-चुने मावलों ने प्राणों की चिंता किए बिना अपने-आपको झोंक दिया। पांच मुसलमानी सल्तनतों के विरोध में लड़ते-लड़ते एक-एक भूप्रदेश को जीत लिया।
तहसील भोर के सह्याद्री पर्वत के एक शिखर पर विराजित रायरेश्वर के स्वयं-भू शिवालय में छत्रपति शिवाजी महाराज ने 26 अप्रैल 1645 में हिंदू स्वराज स्थापित करने की शपथ ली थी। बारह मावल प्रांतो से कान्होजी जेधे, बाजी पासलकर, तानाजी मालुसरे, सूर्याजी मालुसरे, येसाजी कंक, सूर्याजी काकडे, बापूजी मुद्गल, नरस प्रभू गुप्ते, सोनोपंत डबीर जैसे लोग भोर के पहाडों से परिचित थे। इन सिंह समान महापराक्रमी मावलों को साथ लेकर शिवाजी महाराज ने स्वयंभू रायरेश्वर महादेव के समक्ष स्वराज की प्रतिज्ञा ली।
इन महापराक्रमी मावलों में से एक थे तानाजी मालुसरे! प्रस्तुत लेख में हम इनके पराक्रम तथा त्याग के बारे में पढेंगे।
1. मुगलों के नियंत्रण में सिंहगढ़
जून 1665 के पुरंदर समझौते के अनुसार शिवाजी महाराज को मुगलों के हाथों में सिंहगढ़ समेत 23 किले सौंपने पड़े थे। इस समझौते ने मराठों के स्वाभिमान को ठेस पहुंचाई। किंतु जिजाबाई, शिवाजी महाराज की माता, जो पूरे राज्य की माता थीं, जैसी आंतरिक चुभन किसी ने भी अनुभव नहीं की। शिवाजी महाराज अपनी माताजी को बहुत चाहते थे, किंतु उनकी इच्छा पूरी न कर सके, क्योंकि सिंहगढ़ जीतना असंभव था, राजपूत, अरब और पठान उसकी रक्षा कर रहे थे। शिवाजी महाराज के सरदार उनकी बात से सहमत थे। किंतु जिजाबाई को उनकी झिझक बिलकुल अच्छी नहीं लगी। कहते हैं, एक बार औरत कोई बात ठान लेती है, तो उसे उसके मार्ग से कोई नही डिगा सकता तथा शिवाजी महाराज की माताजी, जिजाबाई इसका उत्तम उदाहरण हैं। सिंहगढ कथागीत के अनुसार एक सवेरे जब वह प्रतापगढ़ की खिड़की से देख रही थीं, उस समय कुछ दूरी पर उन्हें सिंहगढ़ दिखाई दिया। यह किला मुगलों के आधिपत्य में है, यह सोचकर उन्हें बहुत क्रोध आया। उन्होंने तुरंत एक घुड़सवार को शिवाजी महाराज के पास रायगढ़ संदेशा भेजा कि वे तुरंत प्रतापगढ़ उपस्थित हों।
2. सिंहगढ़ हेतु राजमाता जिजाबाई की तडप
शिवाजी महाराज बुलाने का कारण जाने बिना अपनी माता के संदेशानुसार तुरंत उपस्थित हुए। जिजाबाई उनसे क्या चाहती थी, यह जानते ही उनका दिल बैठ गया। उन्होंने जी-जान से जिजाबाई को समझाने का प्रयास किया कि प्रचुर प्रयासों के पश्चात भी सिंहगढ़ जीतना असंभव था। कथागीत के अनुसार शिवाजी महाराज ने कहा, 'उसे जीतने हेतु बहुत जन गए किंतु वापिस एक भी नहीं आया, आम के बीज बहुत बोए किंतु एक पेड़ भी नहीं उगा।’
अपनी माता के दुःखी होने के डरसे उन्होंनें एक व्यक्ति का नाम सोचा, जिस पर यह भयंकर उत्तरदायित्व सौंपा जा सकता था। तानाजी मालुसरे के अतिरिक्त शिवाजी महाराज किसी और का नाम सोच भी न सकते थे। तानाजी उनके बचपन के अमूल्य मित्र थे, बडी हिम्मत वाले थे तथा हर मुहीम पर शिवाजी महाराज के साथ थे।
3. सिंहगढ़ पुन: जीतने की मुहीम पर तानाजी मालुसरे
जब शिवाजी महाराज से रायगढ़ पर मिलने का संदेश प्राप्त हुआ तब तानाजी मालुसरे उंब्रत गांव में अपने बेटे के विवाह की योजनाओं में व्यस्त थे। वे शीघ्र ही अपने भाई सूर्याजी तथा मामा (शेलार मामा) के साथ महाराज से मिलने निकल गए। अपने परम मित्र तानाजी को कौन सी मुहीम हेतु चुना है यह बताने का साहस महाराज के पास नहीं था, अत: उन्होंने तानाजी को मुहीम के विषय में जानने हेतु जिजाबाई के पास भेजा।
मुहीम की भयावहता की परवाह न करते हुए शेरदिल तानाजी ने मरने अथवा मारने की प्रतिज्ञा की। तानाजी ने रात को मुहीम का आरंभ किया तथा कोंकण की ओर से छुपकर वर्ष 1670 में फरवरी की ठंडी, अंधेरी रात में अपने साथियों को लेकर किले की ओर प्रस्थान किया। वह अपने साथ शिवाजी महाराज की प्रिय गोह ले गए थे, जिससे किले पर चढ़ने में आसानी हो। उन्होंने गोह की कमर में रस्सी बांधकर उसके सहारे किले पर पहुंचने का प्रयास किया, किंतु गोह ऊपर चढना नहीं चाहती थी, जैसे वह आगे आने वाले संकट के विषय में तानाजी को आगाह कराना चाहती थी । तानाजी क्रोधित हो गये गोह उनका संकेत समझ गई, तथा तट बंदी से चिपक गई, जिससे मराठा सैनिकों को किले पर चढ़ने में मदद मिली।
4. तानाजी की वीरता तथा त्याग
लगभग ३०० लोग ही अबतक ऊपर तक चढ़ पाए थे, कि पहरेदारों को उनके आने की भनक हो गई। मराठा सैनिकों ने पहरेदारों को तुरंत काट डाला, किंतु शस्त्रों की खनखनाहट से गढ़ की रक्षा करने वाली सेना जाग गई। तानाजी के सामने बड़ी गंभीर समस्या खड़ी हुई। उनके ७०० सैनिक अभी नीचे ही खड़े थे तथा उन्हें अपने से कहीं अधिक संख्या में सामने खड़े शत्रु से दो-दो हाथ करने पड़े। उन्होंने मन-ही-मन निश्चय किया तथा अपने सैनिकों को चढ़ाई करने की आज्ञा दी। लड़ाई आरंभ हो गई। तानाजी के कई लोग मारे गए, किंतु उन्होंने भी मुगलों के बहुत सैनिकों को मार गिराया। अपने सैनिकों की हिम्मत बढ़ाने हेतु तानाजी जोर-जोर से गा रहे थे। थोड़े समय के पश्चात मुगलों का सरदार उदयभान तानाजी से लड़ने लगा। मराठों को अनेक अडचनें आ रही थीं। रात की लंबी दौड, मुहीम की चिंता, दुर्ग चढ़कर आना तथा घमासान युद्ध करना, इन सारी बातों पर तानाजी पूर्व में ही कड़ा परिश्रम कर चुके थे, इस पर उदयभान ने युद्ध कर उन्हें पूरा ही थका दिया; परिणाम स्वरूप लंबी लड़ाई के पश्चात तानाजी गिर गए।
अपने नेता की मृत्यु से मराठों के पांव-तले से भूमि खिसक गई। तानाजी ने जितना हो सका, उतने समय युद्ध जारी रखा, जिससे नीचे खड़े ७०० सैनिक पहरा तोडकर अंदर घुसने में सफल हों। वे तानाजी के बंधु सूर्याजी के नेतृत्व में लड़ रहे थे। सूर्याजी बिलकुल समय पर पहुंच गए तथा उनकी प्रेरणा से मराठों को अंत तक लड़ने की हिम्मत प्राप्त हुई। मुगल सरदार की हत्या हुई तथा पूरे किले की सुरक्षा तहस नहस हो गई। सैकड़ों मुगल सिपाही स्वयं को बचाने के प्रयास में किले से कूद पड़े तथा उसमें मारे गए।
मराठों को बड़ी विजय प्राप्त हुई थी किंतु उनकी छावनी में खुशी नहीं थी। जीत का समाचार शिवाजी महाराज को भेजा गया, वे तानाजी का अभिनंदन करने तुरंत गढ़ की ओर निकल पड़े, किंतु बडे दुःख के साथ उन्हें उस शूरवीर की मृत देह देखनी पड़ी। सिंहगढ़ का कथागीत इस दुःख का वर्णन कुछ इस प्रकार करता है :
तानाजी के प्रति महाराज के मन में जो प्रेम था, उस कारण वे 12 दिनों तक रोते रहे। जिजाबाई को हुए दुख का भी वर्णन किया है : चेहरे से कपड़ा हटाकर उन्होंने तानाजी का चेहरा देखा। विलाप करते हुए उन्होंने समशेर निकाली और कहा “शिवाजी, जो एक राजा तथा बेटा भी है, आज उसकी देह से एक महत्वपूर्ण हिस्सा कट चुका है।” शिवाजी महाराज को अपने मित्र की मृत्यु की सूचना प्राप्त होते ही उन्होंने कहा “हमने गढ़ जीत लिया है, किंतु एक सिंह को खो दिया है।”
तानाजी मालुसरे की स्मृति में कोंढाणा दुर्ग का नाम बदलकर सिंहगढ़ कर दिया गया।
तानाजी मालुसरे का महापराक्रम तथा स्वराज्य अर्थात् धर्म के प्रति उनकी निष्ठा को हम अभिवादन करतें हैं।