13vi Manzil Ka Darwaza - 1 in Hindi Thriller by Mano Ya Na Mano books and stories PDF | 13वी मंज़िल का दरवाज़ा - 1

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13वी मंज़िल का दरवाज़ा - 1

🕯️ अध्याय 1: पहला क़दम
(कहानी: 13वीं मंज़िल का दरवाज़ा)

"साहब, इस बिल्डिंग में बारह ही मंज़िलें हैं। तेरहवीं कभी बनी ही नहीं।"
वॉचमैन की आवाज़ में न जाने कैसा कंपन था जो विशाल को बेचैन कर गया।

सुबह की पहली किरण अभी ठीक से ज़मीन पर आई भी नहीं थी और विशाल कैमरा उठाए इस पुराने अपार्टमेंट की तस्वीरें खींचने में व्यस्त था। बिल्डिंग 40 साल पुरानी थी, और अब तक तीन लोग यहां से रहस्यमय रूप से गायब हो चुके थे। पुलिस से लेकर मीडिया तक सबने हार मान ली थी — लेकिन विशाल, एक खोजी पत्रकार, पीछे हटने वालों में से नहीं था।

“मैंने खुद देखा है उस मंज़िल को,” विशाल ने ज़ोर देकर कहा। “और ये देखिए, मैंने कल रात फोटो खींची थी।”
उसने मोबाइल स्क्रीन वॉचमैन की ओर किया।
तस्वीर में धुंधली सी एक लोहे की चादर जैसा दरवाज़ा दिख रहा था, जिस पर हल्के जंग लगे अक्षरों में लिखा था — 13

वॉचमैन चुपचाप खड़ा रहा, फिर बुदबुदाया, “वो दरवाज़ा… हर किसी को नहीं दिखता।”

विशाल चौंका। “मतलब?”

“वो दरवाज़ा सिर्फ़ उन्हें दिखता है… जिनकी मौत करीब होती है,” वॉचमैन ने फुसफुसाकर कहा और सामने नज़रें टिकाए बिना अंदर चला गया।

विशाल के मन में संशय और रोमांच दोनों गहराने लगे। क्या वाकई ऐसा कुछ है या ये बस पुरानी कहानियों का डर है? लेकिन ये कैसे हो सकता है कि दरवाज़ा सिर्फ़ कुछ लोगों को दिखे?

अचानक उसके फोन की स्क्रीन ब्लैक हो गई।
कुछ सेकेंड बाद उस पर एक लाल चमकता हुआ मैसेज दिखा —
तुम्हें नहीं आना था यहाँ।"

उसका दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा। उसने जल्दी से फोन बंद किया और एक लंबी सांस ली।
“बस डर है... और कुछ नहीं,” उसने खुद से कहा।

पर अब वो रुक नहीं सकता था।

वो सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। हर मंज़िल पर पड़ती धूल और सीलन की गंध उसके इरादों को परख रही थी।
बारहवीं मंज़िल पार करते ही एक ठंडी हवा का झोंका उसके चेहरे से टकराया। उसकी टॉर्च की रोशनी आगे गई और वहीं वो खड़ा रह गया।

सामने वही दरवाज़ा था — भारी, लोहे का, आधा खुला। ऊपर faded अक्षरों में लिखा था: 13

वो दरवाज़ा वहां था। सचमुच।

साँसें थम गईं। दिल जैसे धीमा पड़ गया।

“अब पीछे हटना मुमकिन नहीं,” उसने खुद से कहा।

उसने दरवाज़े को धीरे से धकेला।
चूँ...
दरवाज़ा डरावनी आवाज़ के साथ खुला। अंदर एक लंबा अंधेरा कॉरिडोर था, दीवारों पर जाले, नीचे टूटी हुई लकड़ी, और एकदम ख़ामोशी।

लेकिन सबसे डरावनी बात ये नहीं थी।
दरवाज़े के पीछे, अंधेरे में... कोई खड़ा था।
सिर्फ़ उसकी परछाईं दिख रही थी।
और तभी… वो परछाईं धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ने लगी।

विशाल का शरीर जैसे जम गया था। पैर आगे बढ़ने से इंकार कर रहे थे और हाथ में पकड़ी टॉर्च अब काँपने लगी थी। वो समझ नहीं पा रहा था कि ये उसका वहम है, या कोई असल खतरा।

हर क़दम पर उस परछाईं की आकृति साफ़ होती जा रही थी — लंबा कद, झुकी हुई गर्दन, और सिर से लेकर पैर तक काले कपड़े। लेकिन चेहरा अभी भी अंधेरे में छुपा हुआ था।

विशाल ने पीछे मुड़कर देखना चाहा, लेकिन उसकी हिम्मत जवाब दे गई।
“कौन है वहां?” उसकी आवाज़ बुरी तरह लड़खड़ा रही थी।

कोई उत्तर नहीं आया — सिर्फ़ उस परछाईं के क़दमों की धीमी, ठंडी आवाज़।
ठक… ठक… ठक…

हर कदम पर ऐसा लग रहा था जैसे ज़मीन काँप रही हो। विशाल ने हिम्मत जुटाकर दो कदम पीछे लिए और अचानक दरवाज़ा तेज़ आवाज़ के साथ अपने-आप बंद हो गया।

धड़ाम!

अंधेरा और गहरा हो गया। टॉर्च की रौशनी अब झिलमिला रही थी — मानो उसकी बैटरी भी डर के मारे जवाब दे रही हो।
अब वो परछाईं एकदम उसके सामने थी।

दोनों के बीच मुश्किल से एक हाथ की दूरी थी।
विशाल ने डरते-डरते ऊपर देखा।

लेकिन चेहरा नहीं था —
सिर्फ़ एक गहरा साया।
सिर्फ़ दो जलती हुई लाल आँखें।
अचानक वो परछाईं कुछ बोलने लगी — एक धीमी, टूटी-फूटी आवाज़ में जो इंसानी नहीं लगती थी:
"तू... पहले भी आया था..."

“क... क्या?” विशाल ने काँपती आवाज़ में पूछा।
“मैं तो पहली बार...”

"झूठ!" परछाईं चीखी, और उसी पल टॉर्च की रौशनी बुझ गई।

चारों तरफ़ अंधकार छा गया। सिर्फ़ विशाल की तेज़ साँसें और धड़कनों की आवाज़ सुनाई दे रही थी।

एक पल के लिए सब कुछ शांत हो गया।
फिर अचानक एक तेज़ चीख बिल्डिंग में गूंज उठी।

“आआआह्ह्ह!!!”

👉 अगला भाग:
कौन था वो साया?”
(Chapter 2 में विशाल अंदर कदम रखता है… और जो मिलता है, वो उसकी सोच से परे है) आखिर उस दरवाजे के  पार ऐसा क्या है ?