साधकों के मन में योग को लेकर अनेक जिज्ञासाएँ थीं। प्रारंभिक अभ्यास में ही यशस्विनी ने साधकों को प्राणायाम का अभ्यास कराया । भस्त्रिका, कपालभाति से लेकर, बाह्य प्राणायाम, अनुलोम-विलोम, उज्जाई प्राणायाम, उद्गीथ प्राणायाम आदि सभी प्राणायाम साधकों ने मन से सीखे। यशस्विनी ने जब श्वास निश्वास की प्रक्रिया के लिए पूरक, कुंभक, रेचक और बाह्य कुंभक तथा श्वास लेने, छोड़ने तथा रोकने के निश्चित अनुपात की अवधारणा समझाई, तो साधक चमत्कृत रह गए। हर कहीं अनुशासन है। हमारे जीवन की भागदौड़ के कारण हमारे श्वांसों की गति भी अनियंत्रित है। अगर हम प्राणायाम के माध्यम से स्वांसों की साधना करना सीख जाए तो मन की चंचलता समेत अनेक विकारों का बड़ी आसानी से निदान हो सकता है।
मंच से बैठे-बैठे ही यशस्विनी साधकों पर बराबर निगाह रखती और किसी के द्वारा गलती करने पर या अनावश्यक हिलने डुलने और चंचलता दिखाने पर वह मंच से ही उसे टोक देती। सही तरह से योगाभ्यास करने वाले साधकों को यशस्विनी शाबाशी भी देती।
योग सत्र की समाप्ति के बाद यशस्विनी फिर से एक बार साधकों की जिज्ञासाओं का समाधान करती। यह सत्र योग अभ्यास के दौरान पूछे जाने वाले प्रश्नों के अतिरिक्त होता। इस समय साधक खुलकर अपने मन की बात रखते और यशस्विनी उनकी बातें सुनकर उनका समाधान करती। रोहित भी उनके साथ बराबर बना रहता और वह भी चर्चा में अपने विचार रखते जाते।
आज के योग सत्र की समाप्ति के बाद रोहित और यशस्विनी ने शाम के सत्र के बारे में चर्चा की। बातों ही बातों में यशस्विनी ने रोहित से पूछा,
" रोहित, आप अपनी साधना में कहां तक पहुंचे हैं?"
" जी, योग साधना और मैं? मैं केवल कुछ मिनटों का प्राणायाम कर लेता हूं, लेकिन वह भी व्यवस्थित रूप से और नियमित तौर पर नहीं। मैं फिट हूं इसलिए मुझे इसकी विशेष आवश्यकता ही नहीं है।"
"अच्छा रोहित जी मैं तो ये समझी थी कि हमारी संस्था के टेक्निकल एक्सपर्ट योगाचार्य भी होंगे।"
"यशस्विनी, मेरी योग प्राणायाम में श्रद्धा तो है लेकिन मैं उसका अभ्यास स्वयं अधिक देर तक नहीं करता हूँ।आप जैसे उच्च अवस्था में पहुँचे साधकों की तरह मैंने अभी कोई लक्ष्य नहीं बनाया है कि मैं अपनी कुंडलिनी शक्ति को जाग्रत कर लूंगा। अभी न ध्यान के विभिन्न चक्रों पर संकेंद्रण कर रहा हूं..... न ध्यान की अतल गहराइयों में डूबने की कोशिश करता हूं.... और न यम, नियम, आसन प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि के माध्यम से योग में पूरी तरह डूब जाने की स्थिति में हूं...... मैंने तो सुना है कि योग के छठे चरण धारणा तक आते-आते मनुष्य अनेक तरह की सिद्धियों का स्वामी हो जाता है.... पर सच कहूँ यशस्विनी, मुझे इन सिद्धियों की भी लालसा बिल्कुल नहीं है।"
" कोई बात नहीं रोहित.... आप अपनी जगह सही हैं और सच कहा जाए तो योग से सिद्धियां भले प्राप्त हो जाएँ लेकिन मेरा भी उद्देश्य केवल एक सार्थक, स्वस्थ जीवन शैली का प्रचार-प्रसार करना ही है। आपने टेक्निकल एक्सपर्ट का काम अच्छी तरह संभाला हुआ है। पीपीटी और अन्य प्रेजेंटेशन आप बहुत बढ़िया बनाते हैं। अभी यह काफी होगा।"
"हां पर अब आपको योग सिखाते देखकर मुझे भी योग सीखने की इच्छा होने लगी है। मैं जबसे प्रेजेंटेशन के लिए मेहनत कर रहा हूं, तब से योग ध्यान में मेरी रुचि बढ़ रही है। वैसे अभी मैंने जिम जाना बंद कर दिया है, लेकिन अब घर पर ही कुछ फिजिकल एक्सरसाइज भी कर लेता हूं।"
यह सुनकर संतुष्टि में अपना सिर हिलाते हुए यशस्विनी ने कहा- अच्छी बात है। आप अपनी फिटनेस का अवश्य ध्यान रखें। चाहे जिस भी पद्धति से हो।.... पर मेरी कोशिश तो योग और ध्यान के मार्ग पर आगे बढ़ने की है रोहित..... बस मन में एक तड़प है। .... आनंद के सूत्र को प्राप्त करने की...... और मेरा जीवन तो एक तरह से कान्हा जी को समर्पित रहा है.... रोहित, मन में बड़ी अभिलाषा है एक क्षण को बस उनके दर्शन हो जाए और फिर जैसे मेरे हृदय की सारी कलुषता तिरोहित हो जाएगी और एक आनंद साम्राज्य में मैं साधिकार प्रवेश कर जाऊंगी। शायद बांके बिहारी जी के उसी क्षण के दर्शन या उस दर्शन की अनुभूति को हृदय में कर लेने को ही मैं तड़प रही हूं लेकिन भगवान ने अब तक कृपा नहीं की है.....
मन ही मन रोहित ने कहा... अब आप जहां जा रही हैं..... अनायास मेरे कदम भी उस ओर बढ़ने लगे हैं.... मैं भी तो उसी आनंद साम्राज्य में डूबना चाहता हूं......
यशस्विनी कहा करती है..... उस आनंद साम्राज्य में प्रवेश करने के बाद एक अनाहत नाद चलते रहता है और एक अजपा जाप..... हमारे तमाम संसारी कर्मों को करते समय भी हमारे हृदय में गुंजायमान रहता है और हम खुद के नहीं रहते। ईश्वर को समर्पित देह हो जाते हैं। हाँ..... हम खुद के नहीं रहते भगवान के हो जाते हैं, भगवान के स्वयंसेवक हो जाते हैं।
यह सब सोचते हुए अचानक रोहित का मन हल्की ग्लानि से भर उठा। अभी योग सत्र के दौरान 15 से 20 मिनट पूर्व ध्यान मुद्रा में यशस्विनी को देखकर जैसे रोहित अपनी सुध-बुध खो बैठे थे....... कितनी अपूर्व कांति है यशस्विनी के चेहरे पर..... जैसे असीम शांति का कोई दीपक जल उठा हो, जिसकी पवित्र लौ को बस निहारते ही रहें.... जब यशस्विनी कुछ कहती हैं तो ऐसा लगता है कि दिशाएं मधुरता से खनक उठती हों... कितना निर्दोष, निर्मल, सुदर्शन व्यक्तित्व..... अम्लान इतना कि धरती पर चंद्र की प्रतिमूर्ति लेकिन आसमानी चंद्र की तरह हल्के धब्बों से भी पूर्णतः रहित....... सम्मोहन संभवतः यशस्विनी जी की आंखों में है, इसलिए इच्छा यही होती है कि बस उन्हें देखते ही रहें....... यह ऐसा अनिंद्य सौंदर्य है कि जैसे मेरे भीतर की सारी कलुषता समाप्त हो गई है तो क्या..... यशस्विनी जी की ओर मैं आकृष्ट हो रहा हूं...... क्या मैं अपने मार्ग से भटक जाऊंगा?... कहीं मेरा लक्ष्य केवल और केवल यशस्विनी जी ही न रह जाएं.... ऐसा सोचते हुए यशस्विनी से जैसे ही रोहित ने अपनी नजरें हटानी चाही... अचानक ध्यानमग्न यशस्विनी की आंखें खुली और रोहित को अपनी ओर यूं
एकटक देखते पाकर उसे भी हल्की सी झेंप हुई....
"अरे-अरे आप किन खयालों में खो गए रोहित जी? क्या योगाभ्यास करते समय मुझसे कुछ गड़बड़ हो गई?"
" नहीं-नहीं आप से कोई गड़बड़ हो ही नहीं सकती है... बात यह है यशस्विनी कि आप का अनुसरण करते हुए मैं थोड़ा बहुत ध्यान लगाने लगा हूँ... आजकल ..... पर.... ध्यान में विचलन बहुत हो रहा है...."
" ओह.... किसी ने तपस्या भंग तो नहीं कर दी आपकी...?"
यशस्विनी से यह अप्रत्याशित वाक्य सुनकर रोहित झेंप गए लेकिन उसने तत्काल कहा-
"न----नहीं.... ऐसी कोई बात नहीं है बस जरा मैं तार्किक अधिक हूं..."
".... तो जीवन को इतना सोच-सोच कर मत जिएँ रोहित, बस इसे एक बहती नदी की तरह सदा प्रवाहमान समझें और आनंद लें जीवन का....."
(क्रमशः)
योगेंद्र