Episode -2 (निगाहें एक ही तस्वीर....)
ख़्वाबों को निगाहों से कोई दूर नहीं कर सकता
मगर ये सच है निगाहें ख़ुद उसे पूरा नहीं कर सकतीं
मेरी ख़ुद की वर्तमान परिस्थिति को समझना बड़ा मुश्किल लग रहा था। जिस राह पर मैने कदम बढ़ाए थे क्या वो मेरी हमनवा है भी ? और अगर है तो कितनी दूर तक...?
मैं अपनी इन हसरतों को हर रात नींद से पहले सुला देती मगर मेरे जगते ही ये पलकों पे फ़िर उम्मीद बनकर संवर जातीं
मैं इन दिनों जिस कल्पना भरी दुनिया में थी उसका सिर्फ़ एक ही हक़ीक़त था और वो था वो लड़का "साहिल"। उसके होने से सब सच लगता, उसके न होने से सब झूठ।
उसकी मौजूदगी मेरे लिए कुछ अलग थी, मेरी मौजूदगी उसके लिए क्या थी ये मैं समझ नहीं पा रही थी।
कॉलेज का तीसरा हफ्ता चल रहा था। सारे चेहरे अब जाने-पहचाने लगने लगे थे, मगर वो अब भी मेरे लिए एक अनकहा पन्ना था — जिसे मैं पढ़ना चाह रही थी, समझना चाह रही थी।
वो हर दिन आता… क्लास रूम के सबसे आखिरी बेंच पर बैठता… और पूरे वक़्त चुप रहता।
ना किसी से बात, ना किसी तरह की कोई हलचल — बस जहाँ देखता एक भावनात्मक गहराई से भरी उसकी आँखें किसी पहेली की तरह लगतीं जैसे उनमें कोई गहरी उदासी हो।
मैंने कई बार चाहा कि उससे बात करूं, इसबारे में कुछ पूछूँ… पर जब भी उसकी आँखें मेरी तरफ उठतीं, मेरे लव सिल जाते और निगाहें उसे देखकर ठहर जातीं ।
उन आँखों में कोई सवाल नहीं था, कोई शिकवा भी नहीं… बस एक अजीब सी बेचैनी…
जैसे कोई अपने ही अतीत से पीछा छुड़ा रहा हो।
एक दिन, लाइब्रेरी की खाली मेज़ पर मैं अपनी किताबें समेट रही थी, तभी वो चुपचाप सामने आ खड़ा हुआ।
इसबार उसने आंखों से नहीं, सीधे शब्दों से कहा-
"तुम्हारी आँखें मुझसे सवाल क्यों करती हैं ?"
उसकी आवाज़ धीमी और ललाट पर हल्के शिकन थे।
मेरे हाथ रुक गए दिल जैसे कुछ पल के लिए ठहर गया ।
मैंने उसकी आंखों में देखा और उससे कहा:-
"ज़ुबाँ तो ख़ामोश कर भी लूँ मगर आँखों को तकल्लुफ़ कैसे सिखाऊँ? ये बेबाक हैं इन्हें कुछ छुपाना नहीं आता"
कुछ पल वो मुझे देखता रहा, बग़ैर कोई भाव बदले। फिर उसकी आवाज़ दोबारा आई:
"ख़ामोशी समझ सको… तो कभी दूर मत जाना
बात करने की आरज़ू है, बहुत मिलेगा बहाना"
इतना कहकर वो चला गया।
_ये सच है उसकी मौजूदगी मेरे नीरस से एहसासों को रंगीन कर देती थी
उसकी आहट मेरी तमन्नाओं की डोर थामने लगी थी_
_मैं चाहकर भी अपने इरादे उससे छुपा न सकी
जाने अंजाने मेरी आदतों में उसकी मर्ज़ी आने लगी_
_मेरी हर फ़ुर्सत उसकी दस्तक की तलबगार हो गई
निगाहें एक ही तस्वीर की दीदार में खो गईं_
उसे देखना मेरी आदत हो गई।
वो जब सामने होता, लगता जैसे वक्त ठहर गया हो।
ना किसी उम्मीद की ज़रूरत थी, ना किसी वादे की बस उसकी ख़ामोशी ही काफी थी मेरी तसल्ली के लिए।
हर रोज़ उसे देखना, उसके न बोलने में भी कुछ सुन लेना -ये एक ऐसा सिलसिला बन चुका था, जो बिना नाम के रिश्ता बनाता जा रहा था।
मैं सोचती, क्या उसकी दुनिया में कोई जगह मेरे लिए भी है?
और मुझे जवाब मिलता:-
"शायद ख़ामोशियाँ ही वो ज़बान होती हैं, जिससे सबसे गहरे इज़हार होते हैं..."