प्रेम के दो अध्याय
अध्याय -1
भाग- 2
बाहर आकर मैं बागवानी में टहलने लगा। वहां की फिजा में महक थी, ताज़गी थी, उत्साह था और उस सुनहरी धूप का कुछ अंश भी था जो बादलों को चिर कर उन फूलों पर बरस रही थी। और वहाँ लगे फूल मेरे परिचित थे, लेकिन कुछ नए फूल अपरिचित भी थे। वह फूल जैसे पुराने फूलों में घुल-मिल-से गए हो लेकिन उनकीं महक में एक ताज़गी थी और एक नयापन था। मैंने फूलों के नजदीक जाकर एक गहरी सांस ली और वहाँ बिखरा सुकून मैंने सांसो के साथ अपने भितर समेट लिया। और वहीं पास में बैठ गया।
सहसा किसी की आवाज आइ। “तो आपको बागवानी का भी शोक है?” पल्लवी ने मृदुल स्वर में कहा।
“हाँ! लेकिन यह सब पौधे मैंने नहीं लगाए; भाभी ने लगाएं हैं। मैंने उत्तर दिया। “आप आराम कीजिए न। बाहर क्यू आ गए?”
“एसे ही।”
“आइए! इस सुकून, ताज़गी और सौरभ युक्त वातावरण में बैठिए, सारी थकान दूर हो जाएगी।” मैने कुछ मुस्कुराकर कहा। वह भी हिचकिचाती हुई मेरे समीप आकर बैठ गइ। और मेरे कंधे पर रेंगते किड़े को हाथ से उतारते हुए कहा। “तो आप कवि है!”
“हूँ!” मैंने कहा।
वह कुछ मुस्कुराई और बोली! “आप जानते नहीं कि मैं साहित्य की कितनी बड़ी प्रशंसक हूँ। मैंने कुछ उपन्यास भी पढें हैं और कुछ कविताएँ भी।”
“अच्छा!” मैंने कुछ गंभीर होकर कहा। “तो आप साहित्य प्रेमी हैं?”
“हाँ, आप यह कह सकते हैं।” उसने कहा। और बड़े आग्रह से बोली। “क्या आप अपनी रचनाएँ पढने देंगे?” उसके स्वर में शहद-सा मीठापन था, एक कोमलता थी! और फिर एक स्त्री का आग्रह तो कोई मूर्ख ही ठुकराएगा। लेकिन मैं भी इनती सरलता से कहाँ मानने वाला था। “आप बूरा मत मानना लेकिन मैं आपकों अपनी कविताएँ नहीं दे सकता।”
“क्यों?”
“एसे ही।” मैंने नजरें चुराते हुए कहा। उसने बड़े प्राथना युक्त कोमल स्वर में कहा। “दे दीजिए न।” मेरे मुख की गंभीरता न जाने कब स्मितता में परिवर्तित हो गई। और मैं बोला। “आप हंसोगे तो नहीं न?”
“कैसी बात कर रहे हो आप? नहीं हँसूगी।” वह बोली।
“फिर ठीक है; मैं अवश्य दूँगा।”
“वैसे आप किस रस की कविताएँ लिखते हैं?” पल्लवी ने पुछा।
“जी! मैं वो…वो वीर रस की। लेकिन आप यूँ समझ लिजिए कि जब जैसा मन हो; वही लिख देता हूँ। मेरा मन स्वच्छंद है वह एक जगह नहीं टिक सकता।” मैंने कहा।
“आप कहानियाँ भी लिखते हैं?” उसने कहा।
“हाँ, लिखी है न, सामाजिक कुरीतियों पर।” मैंने मुसकुराते हुए कहा। वह कुछ गंभीर हुई और बोली। “कुरीतियों माने दहेज और मृत्यु भोज। है ना?”
“हाँ।”
“लेकिन इसमें नया क्या है? यह तो वही पुरानी कहानियाँ है जो थोड़ी नई कर के लिख दी गइ है। मेरे हिसाब से तो आपको कहानियाँ में आज की कुरीतियां लिखनी चाहिए।” वह अब भी गंभीर थी।
“मतलब? मैं कुछ समझा नहीं।”
“पहले के समय में बनी कुछ रीतियाँ भले ही हमें आज के समय खराब लगती हो। लेकिन उनके पीछे कोइ न कोइ वजह अवश्य रही होंगी! आप इस बात को मानते है न?” उसने आँखों से इसारा करते हुए पुछा।
“हो सकता है; लेकिन आज तो वह केवल एक बोझ मात्र रह गया है जिसे समाज ने लाद रखा है।” मैंने अपना पक्ष संभालते हुए कहा।
“मैं भी मानती हूँ कि यह प्रथाए आज मात्र बोझ बन कर रह गइ है। लेकिन आज जो रूढियाँ है वे?” पल्लवी ने मुस्कुराकर कहा।
“आधुनिक भारत में कोनसी रूढियाँ है?” मैंने आश्चर्य से पुछा।
“है क्यों नहीं है। जन्म दिवस मनाना और सालगिरह मनाना क्या यह रुढी नहीं है। भले आज इसका उतना प्रभाव नहीं है लेकीन आने वाले समय में यह भी एक रुढी बन जाएगी।”
“नहीं, नहीं।” मैं मुस्कुरा दिया। “यह भला कोई रुढी थोड़ी है।”
“यह रीति रुढी क्यों नहीं बन सकती है; अवश्य बन सकती है और मैं तो कहती हूँ बन रही है। मैं जन्म दिवस नहीं मनाती, इसलिए मेरे मित्र कहते है कि तुम तो पुराने ख्यालत की हो। तो यह एक दबाव नहीं है मेरे उपर कि मैं जन्म दिन मनाऊं।”
“आपकी बात तो सही है। यह दबाव मैंने भी महसूस किया है। मैं भी इन सब लफड़ो मैं नहीं पड़ता। लेकिन आप यह भी सोचिए कि यह तो बस खुशी बांटने का तरीका भर है।”
“अगर यह केवल खुशी बांटने के लिए है तो फिर हम दूसरों पर दबाव क्यों दे? हमें कुछ अच्छा लगता है, हम जो करते है। जरूरी नहीं कि सभी को वही अच्छा लगे, सब वही करे।”
“तो आप जन्म दिन और सालगिरह मनाने वालों कि विरोधी हैं?” मैंने मुसकुराते हुए कहा।
“जी नहीं, मैं किसी की विरोधी नहीं हूँ। लेकिन मैं यह मानती हूँ कि यह रीति भी रुढी बन जाएगी और इसका बोझ भी समाज को लेकर चलना होगा देख लेना आप।” वह गंभीर थी और क्षुब्ध भी!
“धन्यवाद!”
“किस लिए?” उसने आश्चर्य से पुछा।
“एक नया विषय देने के लिए। मैं इस पर अवश्य लिखूंगा।” मैंने हंसते हुए कहा। वह भी हँस दी “और लिखने के बाद मुझे पढने का अवसर अवश्य देना कवि महोदय!” उसने कंधे पर हाथ रखते हुए कहा। और मैं मुस्कुराता हुआ उसकी आँखों में डूबा रहा।
कृपा अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दे।
शेष अगले भाग में...............