नए शहर, पुराने सवाल
लेखक- धीरेंद्र सिंह बिष्ट
कभी-कभी शहर बदलने से ज़िंदगी नहीं बदलती, सिर्फ़ खिड़की के बाहर का दृश्य बदल जाता है।
कर्णिका के लिए काठगोदाम सिर्फ़ एक नया पता नहीं था—यह एक ऐसी जगह थी जहाँ वो पुराने रिश्तों के जवाब ढूँढना चाहती थी।
दिल्ली की सुबहें तेज़ होती हैं—एलार्म की आवाज़, ट्रैफिक का शोर और लोगों की भीड़। लेकिन काठगोदाम में, सुबहें दरवाज़े पर दस्तक नहीं देतीं; वो खिड़की से आती हल्की धूप और हवा की सरसराहट में दाख़िल होती हैं।
कर्णिका का नया फ्लैट छोटा था, लेकिन उसमें एक खुली बालकनी थी—सीधा पहाड़ों की ओर। वहीं बैठी चाय के कप के साथ, वो स्क्रीन पर रौनक के मिस्ड कॉल्स देख रही थी। एक नाम जो कभी दिल के बहुत करीब था, अब सिर्फ़ कॉलर ID बनकर रह गया था।
"अब भी नाराज हो क्या?”
हर कॉल के बाद यही एक मैसेज।
लेकिन कर्णिका जानती थी—कुछ नाराज़गियाँ शब्दों से नहीं, भरोसे से टूटी होती हैं।
ऑफिस नई जगह पर था, लेकिन प्रोफेशनल रिश्ते हर जगह एक जैसे होते हैं—कॉफ़ी मशीन के पास दो मिनट की मुस्कान, और फिर सब अपने-अपने कीबोर्ड में खो जाते हैं।
हाँ, सचिन था—वही पुराना दोस्त, जो किसी नए शहर में पुरानेपन-सा साथ देता है।
शाम को, जब पहाड़ों की हवा में हल्की ठंड घुली होती है, और मैग्गी की खुशबू किसी लोकल ढाबे से उड़ती आती है—तभी ज़िंदगी थोड़ी धीमी होती है।
इस बार कर्णिका अकेली गई उस ‘मैग्गी प्वाइंट’ पर। सचिन किसी काम में उलझा था।
वही पुरानी लकड़ी की बेंच, वही चाय की महक, और तभी…
“लगता है ये जगह अब हमारी कॉमन हो गई है,” पीछे से एक आवाज़ आई।
रोहन फिर सामने था—हाथ में बैग, चेहरे पर वही शांत मुस्कान, जो हर बार कुछ अधूरा कहती है।
“या शायद हम दोनों को अकेलापन एक ही जगह ले आता है,” कर्णिका ने जवाब दिया।
बैठते ही रोहन ने कहा,
“घर में बहन की शादी है। सबकुछ हो रहा है, पर अंदर कुछ खाली-सा लगता है। जैसे हर चीज़ मेरे ही कंधों पर आ गिरी हो।”
कर्णिका ने पहली बार उसकी आँखों में देखा। वहाँ थकान थी, पर कोई शिकायत नहीं।
“अगर चाहो तो मदद ले सकते हो,” कर्णिका ने कहा।
रोहन हल्के से मुस्कराया,
“अभी तो नहीं, लेकिन अगर शादी में आओगी… तो बड़ी मदद होगी।”
उसने कुछ नहीं कहा। सिर्फ़ चाय का कप उठाया।
कभी-कभी, रिश्ते बिना नाम के भी आकार ले लेते हैं। शायद ये भी वही कुछ था।
लेखक टिप्पणी:
यह अध्याय उस मुकाम की ओर पहला कदम है जहाँ दो अनजाने लोग, एक पहाड़ी शहर में, धीरे-धीरे अजनबीपन से निकलकर एक आत्मीय रिश्ते की ओर बढ़ते हैं। यह काठगोदाम की गर्मी नहीं, बल्कि उस गर्मजोशी की बात करता है, जो किसी की नज़रों में चुपचाप उतर आती है।
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