Matsya Kanya - 11 in Hindi Adventure Stories by Pooja Singh books and stories PDF | मत्स्य कन्या - 11

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मत्स्य कन्या - 11

अब आगे.........

अविनाश जी और मालविका हैरानी से पीछे मुड़ते है ...त्रिश्का हाथ बांधे दोनो को देखते हुए कहती है... " किसको जवाब देना है...?.." अविनाश जी बातो को घुमाते हुए कहते है.. " वो बॉस को कल की मीटिंग के लिये... तू बता बेटा तबियत ठीक है तेरी... " त्रिश्का अविनाश जी की बातो को सुनकर उन्हें सवालिया नज़रो से देखते हुए कहती है... " क्या यही बात है पापा.. " अविनाश जी हॅसते हुए कहते है... " हा.. बिलकुल... " मालविका जी त्रिश्का को समझते हुए कहती है... " बेटा.. यही बात है.. अब तू बैठ खाना खा ले... आलू के पराठे बनाये है... " त्रिश्का हलकी स्माइल करके खाने के लिये बैठ जाती है, अविनाश और मालविका दोनों एक दूसरे को देखकर चुप रहने का इशारा करते है...रात के खाने के बाद तीनो अपने अपने कमरे में चले गए.... त्रिश्का रूम में पहुंचती है, और सीधा अलमारी से वो मोती वाला बॉक्स निकालती है, लेकिन इस बार वो परेशान नहीं थी बल्कि खोई हुई सी लग रही थी मानो उन मोतियों ने उसे अपने वाशीभूत कर लिया हो...बेड पर बैठकर उसके बॉक्स में से एक मोती निकलती है वैसे हीं एक तेज़ रौशनी से पूरा कमरा भर चुका था जिससे त्रिश्का मदहोस सी वही गिर गयी..... 

समुद्र का किनारा, उसमें लहरो की आवाज से त्रिश्का हैरानी से उठती है... इधर उधर देखते हुए खुद से कहती है... " मै यहां कैसे आगई.. ओह! नहीं मै वापस उसी सपने में... " त्रिश्का चिल्लाते हुए कहती है.... " कौन हो तुम..?... क्यूँ मुझे बार बार यहां ले आते हो... सामने आयो... " त्रिश्का के चिल्लाने पर कोई आवाज नहीं आती तो त्रिश्का झिल्लाते हुए कहती है.... " अब बस बहुत हो गया , अब में जॉइंट गुफा पर जा रही हूँ... " त्रिश्का के इतना कहती है एक ब्लैक कैपे पहने हुए शख्स त्रिश्का से कुछी दुरी पर खड़े होकर कहता है... " आपको वहाँ जाने की जरुरत नहीं है...बहुत जल्द आपको आपके सवालों के जवाब मिल जायेंगे... " त्रिश्का गुस्से में चिल्लाते हुए कहती है... " मै अब और वेट नहीं कर सकती.. जवाब मिलेगा.. जवाब मिलेगा , आखिर कब...?... मै गुफा में जाउंगी... "इतना कहते हीं त्रिश्का जैसे हीं गुफा की तरफ जाने के लिये बढ़ती है , तभी उसे एक तेज़ रौशनी महसूस होती है.... और..

अचानक से उसकी आँख खुलती है.... " मै अपने रूम में हीं हूँ.. फिर वही सपना...?.... " त्रिश्का चारो तरफ देखते हुए कहती है......

त्रिश्का अपने हाथ को छूकर देखते हुए बोलती है.... " मेरा बजूबंद कहाँ है...?... ज़ब वो था तो कोई सपना नहीं आया... " त्रिश्का काफ़ी परेशान सी हो चुकी थी.... " आखिर ये सब बार बार क्यूँ दिखाई दे रहा है.... "

अभी सुबह के पांच बजे थे, त्रिश्का कुछ सोचते हुए कहती है.... " मै बीच पर जाउंगी, आखरी पता तो करू क्या पहेली है, जो मुझे उलझन में डाल रही है... " त्रिश्का चेंज करके बिना किसी से कुछ बोले चुप चाप घर से निकल जाती है..... अपनी उलझन में हूँ गुम बस चले जा रही थी... पंद्रह मिनट में वो बीच पर पहुंच चुकी थी....

हलाकि अभी वहाँ कोई नहीं था लेकिन फिर भी त्रिश्का अपनी ढूंढती निगाहों से इधर उधर ढूंढती है...समुन्द्र से टकराती हुए हवाएं उसके चेहरे को छू कर वापस लौट गयी... उन्हें महसूस करते हुए त्रिश्का आगे बढ़ती है , अपने बेग को वही साइड में रख कर सीधा समुन्द्र में पहुंच चुकी थी.... पानी में पैर रखते हीं उसे सुकून महसूस हुआ, जिसे फील करते हुए कहती है... " ये कैसा एहसास है जैसे मै भी इसी का एक हिस्सा हूँ... " 

तभी एक आवाज आती है... " बिल्कुल हो.... " 

... " तुम..?.. " 

............ To be continued........