The Ultimate Action Book For... Brahmacharya - 2 in Hindi Anything by Praveen Kumrawat books and stories PDF | The Ultimate Action Book For... ब्रह्मचर्य - 2

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The Ultimate Action Book For... ब्रह्मचर्य - 2

क्या है ब्रह्मचर्य ?

इससे पहले की हम यह जाने कि... 
क्या है ब्रह्मचर्य ? 
आईए यह जानते हैं कि.. 
ब्रह्मचर्य क्या नहीं है..

सिर्फ़ हस्तमैथुन (Masturbation) न करना ब्रह्मचर्य नहीं है। सिर्फ़ मैथुन (Sex) न करना भी ब्रह्मचर्य नहीं है।

और मैथुन व हस्तमैथुन करते समय वीर्य को न गिरने देना यह तो बिलकुल ही ब्रह्मचर्य नहीं है। यह तो मूर्खता ही है।

यह सब बस ब्रह्मचर्य की छिछली (Shallow) अवधारणाएँ हैं, जो कि आजकल पाश्चात्य (Western) देशों में वीर्यरक्षा के महत्त्व को जानने के बाद बनाई गई हैं। इन्हें प्रसिद्ध रूप से No Fap या Semen Retention के नाम से जाना जाता है।

जो कि मात्र एक बाह्य नियंत्रण की क्रिया है। जबकि ब्रह्मचर्य एक संपूर्ण जीवनशैली है।

इन सब में आप बस अपने वीर्य को बाह्य प्रभाव से दबाकर रखो और बाक़ी हर प्रकार के विकार युक्त आदतें जैसे नशा, जुआ तथा सॉफ़्ट पोर्न सभी में बने रहें तो भी चलता है। जोकि ब्रह्मचर्य में नहीं चलता है।

ब्रह्मचर्य का अर्थ है
शरीर, मन और जीवन पर संपूर्ण नियंत्रण।

हालाँकि ऐसा भी नहीं है कि यह सभी एकदम गलत हैं। व्यभिचार में लगने से तो हज़ार गुना अच्छे हैं। और इनसे भी फ़ायदे तो होते ही हैं। परंतु इनसे हम ब्रह्मचर्य के समान परिणाम की अपेक्षा नहीं रख सकते।

ब्रह्मचर्य वह विधि है जिसके माध्यम से बड़े बड़े ऋषि मुनि, राजा महाराजाओं व साधकों ने दिव्य शक्तियाँ, सिद्धियाँ और उच्चतम लोकों की प्राप्ति की है।

और इसी की सहायता से उन्होंने जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य को भी प्राप्त किया है।

अभी प्रश्न यह आता है कि ऐसा क्यों? 
ऐसी तो क्या बड़ी बात है ब्रह्मचर्य में, 
कि उससे इतने बड़े बड़े परिणामों की प्राप्ति होती है?

इसे समझने के लिए हमें सर्वप्रथम इस भौतिक संसार को और उसमें हमारे अस्तित्व को समझना होगा।

तो इस भौतिक संसार में हमारे अस्तित्व का कारण है, हमारी इस प्रकृति को भोगने की तीव्र इच्छा।

जो कि हम हमारी इंद्रियों से करते हैं। जैसे — आँखों से देह और प्रकृति की सुंदरता, जीभ से भोज्य पदार्थों का स्वाद, कानों से शब्द और संगीत की मधुरता, और नाक से सुगंधित द्रव्यों की सुगंध आदि।

परंतु इन सभी इच्छाओं में सबसे अधिक बलशाली है, कामेच्छा। अपने संपूर्ण शरीर से (मुख्यतः त्वचा और जननेंद्रियों से) किसी और के संपूर्ण शरीर को भोगने की इच्छा। इसीलिए इस प्रक्रिया को भी संभोग कहते हैं, संपूर्ण उपभोग।
जो कि सभी भौतिक सुखों में सर्वोच्च स्थान पर है।

पृथ्वी पर यह एकमात्र ऐसा इंद्रिय सुख है जिसे स्वर्गीय सुख के समान बताया गया है। इसीलिए इसका त्याग सबसे कठिन है। यदि जीवन में आपने कुछ भी पाया है तो इतना जानते ही होंगे कि किसी भी मूल्यवान वस्तु की प्राप्ति करने के लिए किसी और मूल्यवान वस्तु का त्याग आवश्यक है। 
सरल शब्दों में ‘कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है।’

अतः जीवन में जितना बड़ा फल चाहिए होता है, उतना ही बड़ा त्याग करना पड़ता है।

यह अस्तित्व के सबसे मूलभूत नियमों में से एक है। इसीलिए दुनिया के समस्त उच्च ऐश्वर्यों और आध्यात्मिक ध्येयों की प्राप्ति के लिए सबसे बड़े भोग का त्याग करना आवश्यक हो जाता है। और कामेच्छा से बड़ा भोग, इस भौतिक संसार में है ही नहीं।

इसलिए उसके त्याग से न ही मात्र भौतिक जगत के, परंतु आध्यात्मिक जगत के भी सर्वोच्च सुखों को पाना सरल हो जाता है।

इसीलिए बड़े बड़े ऋषि मुनि और संतगण ब्रह्मचर्य की महिमा गाते हुए थकते नहीं है और किसी विद्यार्थी को विद्यादान देने से पहले ही उसे ब्रह्मचर्य का महत्व समझाकर उसका संकल्प दिलवाया जाता है। और आज हम भी वही करेंगे।

पहले ब्रह्मचर्य क्या है ये समझेंगे। फिर उसे क्यों करें ये समझेंगे। फिर उसे कैसे करें ये समझेंगे, और फिर आपको उसका संकल्प दिलवाएँगे।

तो आइए शुरू करते हैं।

ब्रह्मचर्य समझने की शुरुआत होती है हमारे शरीर को समझने से।

हमारा शरीर प्रकृति के पाँच मूलभूत तत्त्वों से बना है। धरती, जल, वायु, अग्नि और आकाश।

मॉडर्न दृष्टिकोण से देखें तो, प्रोटीन, विटामिन, मिनरल्स, फ़ाइबर और कार्बोहाईड्रेट्स।

परंतु इनमें से कौन सी वो चीज़ है जो शरीर में जीवन भरती है? कौन सा वो द्रव्य है जो शरीर में से निकल जाने पर डॉक्टर आदि यह घोषित कर देते हैं कि व्यक्ति का देहांत हो गया?

शरीर में से धरती निकल गई? नहीं। अग्नि निकल गई? नहीं। प्रोटीन निकल गया? नहीं। विटामिन ख़त्म हो गया? नहीं।

तो फिर क्या है वो, जो निकल जाता है तो जीवन्त शरीर को मृत घोषित कर दिया जाता है।

वो हैं... 

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प्राण
Life Force

वो प्राण ही हैं, जो शरीर में से निकल जाने पर शरीर मृत हो जाता है।

इसीलिए हम हर जीव को प्राणी कहते हैं,
जैसे की धनी : जिसके पास धन है वो, 
बली : जिसके पास बल है वो, 
प्राणी : जिसके पास प्राण हैं वो। 
ऑक्सीजन को प्राणवायु कहते हैं, और जीवन को नियंत्रण करने वाले व्यायाम को प्राणायाम कहते हैं।

बिना प्राण का शरीर बस भौतिक द्रव्यों का ढ़ेर ही बनके रह जाता है।

तो,
क्या हैं ये प्राण? 
जीव की प्राथमिक जीवन शक्ति (Life Force) को प्राण कहते है।

प्राण से ही भोजन का पाचन, रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, वीर्य, रज, ओज, आदि धातुओं का निर्माण, व्यर्थ पदार्थो का शरीर से निकास, उठना, बैठना, चलना, बोलना, चिंतन, मनन, स्मरण, ध्यान आदि समस्त स्थूल एवं सूक्ष्म क्रियाएँ होती हैं।

वैसे ही जैसे किसी कंप्यूटर के Hardware और Software दोनों प्रकार के सभी कार्य मूलभूत रूप से विद्युत से ही होते हैं। वैसे ही शरीर के भी सभी कार्य मूलभूत रूप से प्राणशक्ति से ही होते हैं।

और जैसे ही बिजली के अभाव से कंप्यूटर धीमा पड़ जाता है वैसे ही प्राण की न्यूनता या निर्बलता से शरीर के सारे अंग, प्रत्यंग, इन्द्रियाँ, मन, हृदय और बुद्धि आदि शिथिल व रुग्ण (diseased) हो जाते हैं।

जिससे हमारा शरीर आलसी (Lazy, Procrastinator), मन ध्यान हीन (Uncontrolled), हृदय मृतभावनायुक्त (Depressed, Anxious, Suicidal), और बुद्धि विकारयुक्त (Cheater, Unrighteous, Dull) बन जाता है।

वैसे ही जब हम में भरपूर प्राण होते हैं तब.. 
शरीर बलवान, क्रियाशील (Strong, Active), 
मन संयमी, साहसी (Controlled, Brave), 
हृदय धैर्यवान, उत्साही, प्रसन्न (Patient, Enthusiastic, Lively) 
और बुद्धि सकारात्मक (Honest, Righteous, Wise) बन जाती है।

तदुपरान्त,
प्राण शक्ति के बढ़ने से आत्मबल (Courage) बढ़ता है। आत्मबल के कारण मनोबल (Confidence) बढ़ता है। मनोबल बढ़ने से संकल्प शक्ति और इच्छाशक्ति (Will Power) बढ़ती है। 
संकल्प शक्ति से अनुशासन (Discipline) बढ़ता है। 
अनुशासन से लक्ष्यों की प्राप्ति होती है। 
और निरंतर लक्ष्यों की प्राप्ति से जीवन के हर क्षेत्र में सामर्थ्य बढ़ता है।

प्राण की मात्रा :
प्रत्येक प्राणी, मनुष्य और स्थान में अलग अलग मात्रा में प्राण होते हैं। जितने अधिक प्राण हों उतना वो प्राणवान (जीवंत) होता है और कम होते होते वह अंत में प्राणहीन (मृत, निर्जीव, जड़) हो जाता है।

जितना आप प्राणवान के समीप रहते हो उतना आप में प्राण बढ़ता है। और जितना अधिक आप प्राणहीन के समीप रहते हो उतना ही आपका प्राण क्षीण होता है।

प्राकृतिक रूप से प्रत्येक प्राणी कुछ स्तर के प्राणों के साथ जन्म लेता है। फिर समय के साथ वो..
1. कहाँ रहता है?
2. किसके साथ रहता है?
3. कैसे रहता है?
4. क्या खाता है?
5. और क्या करता है?
आदि कर्मों के अनुसार अपने प्राणों की वृद्धि या नाश करता है।

प्राणों के अभाव वाले मनुष्य न ही लौकिक लक्ष्यों की प्राप्ति कर सकते है न ही आध्यात्मिक लक्ष्यों की।

ऐसे लोग जीते जागते होने के पश्चात् भी मृतक के समान लगते हैं और इनके समीप रहने मात्र से आपकी ऊर्जा क्षीण होने लगती है।

उसी के सामने प्राणवान लोग कोई न कोई लक्ष्यों की प्राप्ति में लगे रहते है, और इनके समीप जाने मात्र से हमें उत्साह, प्रेरणा, सकारात्मकता और आनंद की अनुभूति होती है तथा हमारे प्राणों की भी वृद्धि होती है।

सबसे अधिक प्राण किसमें होता हैं?
मनुष्यों में : संत पुरुषों, पवित्र सती स्त्रियों, निःस्वार्थ भक्तों, ब्रह्मचारियों और यहाँ तक कि सात्विक जीवन जीने वाले नास्तिक लोगों में भी अधिक प्राण होते है। इसीलिए जब ऐसे लोगों के समीप कुछ पल भी बिताते हैं, भले ही उनसे प्रत्यक्ष कोई बात न हो, भले ही वो आपको भीड़ में न देखें, फिर भी उनके कुछ पलों के सानिध्य मात्र से शरीर में प्राण भरता है और नकारात्मकता, मानसिक तनाव, डिप्रेशन और आत्महत्या के विचार (Suicidal Tendencies) तक निकल जाते हैं।

पशुओं में : विशेषत: गाय, घोड़ें, हाथी आदि शाकाहारी पशुओं में होता है। वैसे ज़्यादातर प्राणियों में आज के अधिकतर मनुष्यों से अधिक प्राण होते हैं, परंतु गायों में सबसे अधिक प्राण होते हैं। इसीलिए पाश्चात्य देशों में अभी ऐसी खास Cow Hugging Therapy भी दी जाती है जिसमें आप प्रति घंटा पैसा देकर गायों के साथ समय बिताकर अपना मानसिक तनाव (Anxiety) और अवसाद (Depression) आदि दूर कर सकते हो।

स्थानों में : मंदिर, नदियाँ, तीर्थ धाम और खेत, खलिहान, उद्यान, जंगल आदि हरियाली जगहें तथा प्राकृतिक हवा, सूर्यप्रकाश और वनस्पति से भरे घर में होता है। इसीलिए मंदिर और पवित्र धाम में जाने से नास्तिक के हृदय को भी शांति का अनुभव होता है (यदि वह द्वेषी नहीं है तो) और गाँव में रहने वाले और खेतों में काम करने वाले लोगों में Depression और Anxiety की समस्याएँ नहीं देखने को मिलती। वे दुःखी अवश्य हो सकते हैं परंतु Depressed नहीं।

भोज्य पदार्थों में : सूर्यप्रकाश, वर्षाजल, भूगर्भजल (Spring Water), नदी-समुद्र-झरने का जल, हरि सब्ज़ियों, ताज़ा फ़लों और खेतों में सुख से चरती गायों के दूध-घी आदि उत्पादों में होता है। इसमें भी सब्ज़ियों और फलों को जितना ज़्यादा काटा, उबाला, भुना, पकाया या तला जाता है उतना ही उनमें से प्राण की मात्रा कम होती जाती है। इसी लिए बाजारू जंक फ़ूड और ज्यूस आदि में प्राण कम होता हैं। तथा मांस व अंडा आदि मृत होने से संपूर्ण रूप से प्राणहीन होते हैं। 

कौन सी चीजें प्राणहीन होती हैं? 
किनमें सबसे कम प्राण होते हैं?

मनुष्यों में : आलस्य, मांसाहार, भोग, व्यसन, पाप, वाणी व आचरण में अमर्यादा, निरंकुश गुस्सा, स्वार्थ, लोभ, मोह, काम, कपट व दोगला स्वभाव यह गुण प्राण को क्षीण करने वाले है। अतः साधनाहीन, तपहीन, भोगी, पापी, अमर्यादित, आलसी और तामसिक जीवन जीने वाले लोगों में सबसे कम प्राण होता हैं। इसीलिए इनके समीप मात्र आने से नकारात्मकता और मानसिक ऊर्जाहीनता (Mental Energy Drain) अनुभव होती है। अतः ऐसे लोगों का संग करने के पश्चात आप स्वयं को विराम देकर मानसिक ऊर्जा की वृद्धि के कार्य करना पसंद करते हो।

पशुओं में : अधिकतर पशु में आजकल के मनुष्यों से अधिक प्राण होते हैं, परंतु गंदगी में रहने वाले (सूअर, भैंस, गधे, आदि), मांसाहारी (बिल्ली, कुत्ते, सियार, शेर आदि), केंचुली निकालने वाले (साँप, छिपकली आदि) सभी में कम प्राण शक्ति होती है। और जितना पशु छोटे शरीर का होता है उतनी ही उसमें प्राण शक्ति भी कम होती है। बड़े प्राणियों में छोटे प्राणियों के सापेक्ष अधिक प्राण होते हैं।

स्थानों में : निर्जीवता से भरी जगहें। जहाँ बहुत कम वनस्पति व पशु पक्षी रहते है जैसे कि शमशान, युद्धस्थल और बड़े बड़े कॉर्पोरेट शहर। निर्जीव प्रकाश (Tubelight, Bulbs, Tv, Computer, Mobile Screens), निर्जीव हवा (Fans, Coolers, AC) और निर्जीव वनस्पति (Fake Decorative Plants) से भरी जगहें।

जैसे कि शहरी फ़्लैट्स, कॉर्पोरेट ऑफिसें, बड़े बड़े मॉल, सिनेमाघर, थियेटर, क्लब, बार, कसीनो आदि भोग की जगहें सबसे प्राणहीन होती हैं। इसीलिए कॉर्पोरेट ऑफिसों में काम करने वालों में तथा अधिक भोगवृत्तिमें डूबे रहने वालों में तनाव और अवसाद का प्रमाण सबसे अधिक होता है।

भोज्य पदार्थों में : नल और बोतलों के पानी, मांस, मछली, अंडे आदि मृत भोजन, बासी भोजन, अत्यधिक बारीक कटी हुई सब्ज़ीयाँ, अधिक Process किया गया भोजन अर्थात् समस्त प्रकार का बाजारू जंक फ़ूड और बिना हवा उजास के अंधेरे में पकाया गया भोजन भी प्राणहीन होता है।

महान आयुर्वेद आचार्य वाग्भट तो यहाँ तक कहते हैं कि जिस भोजन को बनाते समय सूर्यप्रकाश, शुद्ध हवा और शुद्ध अग्नि ने न छुआ हो ऐसा भोजन विष के समान होता है। इसीलिए अधिकतर रेस्टोरेंट और ढाबों में बनाया गया भोजन त्यागने योग्य होता है।

और यह भी है कि आजकल अधिकतर घरों में रसोई घर के अंदर बिना सूर्यप्रकाश, बिना शुद्ध हवा और बिना शुद्ध अग्नि को छुए ही बनता है, जबकि पहले के समय में रसोई हमेशा घर के बाहर सूर्यप्रकाश में, शुद्ध हवा और शुद्ध अग्नि की उपस्थिति में चूल्हे पर बनाई जाती थी। अतः गरीब होने के पश्चात भी किसान आदि मज़दूर अधिक स्वस्थ और दीर्घायु होते थे।

अभी यदि आपको ध्यान में आया! तो आप समझ गए होंगे कि क्यों पिछले कुछ दशकों में पूरी दुनिया में मानसिक अवसाद (Depression) और तनाव (Anxiety) के किस्से इतनी अधिक मात्रा में बढ़ते जा रहे हैं।

क्योंकि हमेशा से पूरी दुनिया की जीवन शैली खेत, खलिहान और प्रकृति के अधीन रहने से प्राणवान रहती थी। परंतु पिछले कुछ दशकों के इंडस्ट्रियल रेवोलुशन के पश्चात बनी मॉडर्न जीवन शैली सबके लिए श्राप सिद्ध हो रही है।

हमारी आज की यह मॉडर्न जीवनशैली हम सभी में से धीरे धीरे प्राण हरण करके हमें प्राणहीन बना रही है।

क्योंकि न हम प्राणवान जगहों पर रहते हैं, न ही प्राणवान लोगों से मिलते हैं, न ही प्राणवान जीवों के साथ रहते हैं, और न ही प्राणवान भोजन पाते हैं।

और फिर जब Depression Anxiety होती है तो भी उसको मिटाने या उससे विचार हटाने के लिए हम क्लब, कैसीनो, सिनेमाघर जैसी और अधिक प्राणहीन जगहों पर जाते हैं, और अधिक प्राण का हरण करते हैं।

या फिर यह सोचकर कि डॉक्टर इसका इलाज करेगा इस विश्वास से फिर से प्राणहीन अस्पतालों में जाते हैं, प्राणहीन दवाइयाँ लेते हैं और आशा करते हैं कि इससे यह Depression Anxiety चली जाएगी।

परंतु, यह संभव नहीं है।

मॉडर्न मेडिकल विज्ञान में प्राण की कोई संकल्पना (Concept) है ही नहीं। जिसके कारण यहाँ सिर्फ़ बाहरी कारणों का इलाज करने के प्रयास वर्षों से किए जा रहे हैं, परंतु इसे जड़ से मिटाने का कोई उपाय मिल नहीं रहा है।

वो इसलिए क्यूँकि,
मानसिक अवसाद और तनाव मूलभूत रूप से कोई बीमारी नहीं है कि इसका इलाज किया जा सके। अधिक से अधिक दवाइयों से बाह्य लक्षण को कम किया जा सकता है, वो भी कुछ समय के लिए, परंतु इसका इलाज मात्र यही है कि आपके शरीर में प्राणों की पुनः वृद्धि की जाए।

इसीलिए कोई भी व्यक्ति यदि मानसिक अवसाद (Depression) और तनाव (Anxiety) से ग्रसित है तो उपर्युक्त प्राणवान और प्राणहीन सूची के अनुसार प्राणहीन का त्याग करें और प्राणवान को जीवन में अपनाए, अपने आप ही प्रथम दिन से आपकी स्थिति में सुधार शुरू हो जाएगा।

परंतु, अब प्रश्न यह आता है कि इतनी महत्त्वपूर्ण प्राणशक्ति आख़िर शरीर में रहती कहाँ है? 
उसका संचय कहाँ होता है? 
और किस रूप में होता है?

यह प्राण शक्ति हमारे संपूर्ण शरीर के कोने कोने में विद्यमान होती है। उसका संचय सूक्ष्म रूप से शरीर के प्रत्येक कोषों में होता है। और वो जिस रूप में विद्यमान रहती है, वह रूप है... “वीर्य”

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वीर्य
Semen, Seminal Fluid

परंतु! वीर्य तो पुरुषों के अंडकोषों (Testicals) में होता है न? पूरे शरीर में थोड़ी होता है?

जी नहीं। 
यह सबसे ग़लत अवधारणा है कि वीर्य का प्राथमिक स्थान अंडकोष में होता है।

जिस सफ़ेद धातु द्रव्य को हम लोग आज वीर्य मानते हैं वह वीर्य का धातु स्वरूप मात्र है। जो कि मात्र वीर्य के अस्तित्व की स्थूल अवस्था है।

और क्यूँकि आज का मॉडर्न विज्ञान केवल स्थूल अवस्थाओं पर ही शोध कर पाता है, अधिकतर लोग वीर्य के अस्तित्व को इतने में ही समेट लेते हैं कि,

“वीर्य और कुछ नहीं परंतु शरीर का एक द्रव्य मात्र है। जो कि हर पुरुष के शरीर में प्रतिदिन कुछ मात्रा में बनता रहता है।

वो वीर्य बनकर पुरुषों के अंडकोष में इकट्ठा होता रहता है और जब अधिक इकट्ठा होता है तब यदि आप न निकालो, तो अपने आप निन्द्रा में निकल जाता है।

इसलिए उसको हस्तमैथुन करके निकालने में कोई हानि नहीं है। अतः हस्तमैथुन एकदम हानि रहित है। इसको करने में कोई शर्म नहीं होनी चाहिए।’

ग़लत।

पाश्चात्य देशों के मॉडर्न विज्ञान की भौतिक सीमाएँ होने के कारण उन्हें तो इस अपूर्ण ज्ञान के सहारे जीना पड़ता है। परंतु हमें मॉडर्न विज्ञान के सहारे जीने की कोई आवश्यकता नहीं है। भारत के पास आयुर्वेद के स्वरूप में स्वयं भगवान का दिया गया संपूर्ण विज्ञान है।

आज उसी की सहायता से हम जानेंगे वीर्य का संपूर्ण विज्ञान। जिसमें सबसे पहला प्रश्न यह आता है कि...

आख़िर.... क्या है वीर्य?

वीर्य पुरुष के अस्तित्व का मूलभूत गुण तत्त्व है। जैसे सूर्य के लिए प्रकाश है, अग्नि के लिए ताप है, शक्कर के लिए मिठास है।

शक्कर की गुणवत्ता उसकी मिठास की मात्रा से आंकी जाती है, अग्नि की उसके ताप की मात्रा से, वैसे ही पुरुष की गुणवत्ता उसके वीर्य की मात्रा से आंकी जाती है।

परंतु ये कैसे हो सकता है? पुरुष कोई मेडिकल सर्टिफिकेट लेकर थोड़ी घूमते है, जिससे लोगों को पता चले की किस पुरुष में कितना वीर्य है?

जी नहीं। यहीं पर आवश्यकता पड़ती है वीर्य का संपूर्ण विज्ञान समझने की।

जीवन भर से हम वीर्य का मतलब बस वो द्रव्य ही समझते रहे है। जो यौन क्रिया के समय पुरुष के जननेंद्रिय से निकलता है।

परंतु वह मात्र वीर्य की पाँच अवस्थाओं में से एक अवस्था है।

जी हाँ!! जैसे पेड़ की मुख्य पाँच अवस्थाएँ हैं, 
फूल, फल, बीज, पौंधा और फिर पेड़।

फिर पुनः वही पेड़ पर फ़ूल आते हैं, उन्हीं फूलों से फल पकते हैं, उन्हीं फलों में बीज परिपक्व होते हैं और उन्हीं बीजों को धरती, जल और सूर्यप्रकाश देने से वह पुनः पौधा और उसके जतन से पेड़ बनता है। कुछ उसी तरह...

वीर्य की मुख्य पाँच अवस्थाएँ हैं—
1. गुणावस्था : Virtue Form, 
2. प्राणावस्था : Life Force Form, 
3. ऊर्जावस्था : Energy Form, 
4. बीजावस्था (धातु अवस्था) : Seed (Semen) Form 
5. अमृतावस्था: Nectar Form

वीर्य भी पेड़ की तरह अपनी पाँचों अवस्थाओं 
के चक्र में से पुनः पुनः गुजरता रहता है।

तो सर्व प्रथम परमात्मा हर जीवात्मा को जिस अवस्था में वीर्य प्रदान करते हैं वो है...

1. गुणावस्था : Virtue Form
गुणावस्था का वीर्य इच्छाशक्ति, संकल्प शक्ति व तपशक्ति के रूप में आत्मा के सूक्ष्म शरीर में विद्यमान होता है। जन्म जन्मांतर में आत्मा अपने कर्मों से उसकी वृद्धि या क्षय करती है और उसे अपने सूक्ष्म शरीर में, अपने साथ अलग-अलग शरीर में लेकर जाती है। यही कारण है कि कुछ बच्चें जन्म से ही अधिक गुणवान और कुछ कम गुणवान होते हैं।

वीर्य की अधिक मात्रा और मृत्यु समय की चेतना के समन्वय से ही आत्मा को अगले जन्म में पुरुष का शरीर मिलता है। और वीर्य के क्षय और मृत्यु समय की चेतना के समन्वय से आत्मा को अगले जन्म में स्त्री का शरीर मिलता है।

पुरुषों में वीर्य की गुणावस्था की व्याख्या करने के लिए स्वयं 'वीर्य' शब्द ही पर्याप्त है। 'वीर्य' का अर्थ गुण रूप में होता है वीरता, शौर्य, साहस और पौरुष (Manliness); जिनके गौण गुण है अनुशासन, निडरता, दृढ़ता, त्याग, तप, इच्छाशक्ति तथा दृढ़ नीतिपरायणता आदि।

रामायण, महाभारत, महापुराण और हमारे सभी राजा महाराजाओं के इतिहास में, जब भी इन गुण वाले व्यक्तित्वों की बात हुई है तब उन्हें वीर्यवान शब्द से संबोधित किया गया है।

किसी भी पुरुष में इन गुणों की अधिक मात्रा उस पुरुष में अधिक वीर्य होने के लक्षण हैं और उसी वीर्य की मात्रा से पुरुष की गुणवत्ता आंकी जाती है।

पर भला ऐसा क्यों? यही गुण क्यों? क्यों इन्हीं गुणों से पुरुष की गुणवत्ता आंकी जाती है? क्यूँकि इस संपूर्ण अस्तित्व का सर्जन, पालन, रक्षण और संहार पुरुष के पौरुष, वीरता, शौर्य, साहस, अनुशासन, निडरता, दृढ़ता, त्याग, तप, इच्छाशक्ति, दृढ़ नीतिपरायणता इन्हीं गुणों पर निर्भर है।

इन महान गुणों का चयन करने के लिए ही पुरुष शरीर बना है।

पुरुष के शरीर की हड्डियों के घनत्व (density) से लेकर उनकी चमड़ी की मोटाई (Thickness) तक सभी शारीरिक गुण पुरुषों को इसीलिए दिए गए है जिससे पुरुष जीवन में पौरुष, शौर्य, वीरता आदि दिखा सके और समाज का सर्जन, पालन और रक्षण कर सके।

अतः पुरुष के बीज रूपी वीर्य से ही समाज का सर्जन होता है, त्याग, तप और अनुशासन रूपी वीर्य से ही समाज का पालन होता है, शौर्य, साहस, वीरता व निडरता रूपी वीर्य से ही समाज का रक्षण होता है, इन्हीं गुण स्वरूप वीर्य से वह अधर्मियों और दुष्टों का नाश करता है, और वीर्य से ही अपने वंश परम्परा के माध्यम से अपने मूल्यों को आगे बढ़ाता है।

अतः वीर्य ही पुरुष के अस्तित्व का सबसे मूलभूतपूर्ण तत्त्व है। और जब जब आप बीज स्वरूप वीर्य (Semen) शरीर से निकालते हैं तब तब यह सभी गुण भी शरीर से निकलते हैं। फिर यदि वो पत्नी के गर्भ में जाए, तो वे गुण संतान रूप में आपका वंश आगे बढ़ाते हैं।

और यदि नाली में जाए तो आप और आप पे निर्भर आपके परिवार आदि सभी लोगों के अस्तित्व को नर्क की ओर ले जाते हैं।

हालाँकि वह गुण स्वरूप वीर्य बीज स्वरूप वीर्य में परिवर्तित हो इससे पहले वो दो और अवस्थाओं में से होकर गुजरता है।

जिसमें से प्रथम अवस्था है...
2. प्राणावस्था : Life Force Form
आत्मा के सूक्ष्म शरीर में विद्यमान गुण स्वरूप वीर्य ही परिवर्तित होकर संपूर्ण स्थूल (Physical) शरीर के प्रत्येक कोषों में प्राण स्वरूप में विद्यमान होता है। उसी प्राणशक्ति के उपयोग से शरीर का प्रत्येक कोष जीवित रहता है।

इसीलिए गुणवान व्यक्ति एकदम जीवंत (Full of Life) होते हैं और उनको मिलते ही हमें भी अत्यंत ही जीवंत अनुभव होता है।

जब प्राण पूर्ण मात्रा में हों तो वे हमारे रक्त में रोग प्रतिकारक कण (White Cells) की भी वृद्धि करते हैं और शरीर के प्रत्येक कोषों की वीर क्षत्रिय के समान सतत रक्षा करते हैं।

इसीलिए ऐसे लोगों में रोग प्रतिरोधक शक्ति इतनी ज़्यादा होती है कि बड़ी से बड़ी बीमारी भी उन्हें हानि नहीं पहुँचा सकती है।

अतः स्थूल शरीर की बात करें तो, वीर्य प्राथमिक रूप से शरीर के प्रत्येक कोर्षों में विद्यमान होता है। न की मात्र अंडकोषों (Testicals) में।

और उसी प्राण स्वरूप वीर्य का परिवर्तन सतत उसकी अगली अवस्था में होता रहता है। जिसके उपयोग से ही हमारा शरीर इस भौतिक जगत में सक्रियता प्राप्त करता है, और जिसके बिना हम कोई भी कार्य नहीं कर पाते हैं।

वह अवस्था है...
3. ऊर्जावस्था : Energy Form
मन के आदेश से प्राणस्वरूप वीर्य ऊर्जा में परिवर्तित होता है, फिर मन के आदेश से वही ऊर्जा भावना में परिवर्तित होती है, और वही भावना इंद्रियों के द्वारा कर्म में परिवर्तित होती है।

वैसे देखें तो, प्रेम, करुणा, वात्सल्य, हर्ष, प्रसन्नता, निर्भयता, उत्साह आदि भावनाएँ हैं
और क्रोध, लोभ, ईर्ष्या, मोह, घृणा, भय, कामुकता आदि भी भावनाएँ ही हैं।

ऊर्जा का परिवर्तन सकारात्मक भावनाओं में करने से वही ऊर्जा पुनः प्राण में परिवर्तित होकर प्राण की वृद्धि करती है। और नकारात्मक भावनाओं में परिवर्तन करने से ऊर्जा के साथ प्राण का भी क्षय होता है।

और इन सभी नकारात्मक भावनाओं में भी सबसे अधिक ऊर्जा का क्षय कामुकता व उत्तेजना में होता है। इसीलिए यदि आप अपनी वीर्य ऊर्जा को कामुकता और उत्तेजना में व्यय करते हैं, तो आप जीवन के अन्य सभी क्षेत्रों में ऊर्जाहीन, उत्साहहीन व प्रेरणाहीन (Demotivated) रहोगे।

परंतु यदि आप अपने आपको कामुक विचार (Sexual Thoughts), दृश्य (Porn) या स्पर्श (Masturbation) से उत्तेजित करना बंद कर देते हो तो आपके जीवन के सभी क्षेत्रों में आपको अनन्य उत्साह (Drive) और प्रेरणा (Motivation) देखने को मिलती है।

फिर वो कितना भी छोटा या बड़ा काम क्यों न हो, आपको उसे करने में सहज उत्साह आने लगता है। वैसे ही जीवन के सभी सुखों में भी आनंद की अनुभूति होती है, फिर वो कितना भी साधारण क्यों न हो।

और ऐसे लोग न ही केवल स्वयं उत्साह से जीते हैं अपितु जिनसे मिलते हैं, जिन के संपर्क में आते हैं सबमें एक उत्साह भर देते हैं। जिससे वे क्षण क्षण में कामुकता से भी बेहतर सुख का अनुभव करते हैं।

हालाँकि इस ऊर्जा को पचाना (संपूर्ण सदुपयोग करना) भी अत्यंत ही आवश्यक होता है। जिसका मात्र एक ही तरीक़ा है, शारीरिक श्रम। जो न होने पर वीर्य ऊर्जावस्था से परिवर्तित होकर बन जाता है...

4. बीजावस्था (शुक्राणु) : Seed /Semen Form
जब जब आप शारीरिक श्रम करके वीर्य की ऊर्जा का उपयोग नहीं करते है, तब तब वह ऊर्जावस्था से वीर्य बीजावस्था (Semen) में रूपांतरित होकर आपके अंडकोषों (Testicals) में जमा हो जाता है।

इसी बीजावस्था को प्रचलित रूप से लोग वीर्य मानते है। जो कि वीर्य का स्थूल स्वरूप है और समस्त अस्तित्व की सबसे मूल्यवान धातु है। इसी की गति से यह निर्णय होता है कि आपकी आत्मा की गति किस दिशा में होगी।

बीजावस्था के वीर्य की यह गति तीन दिशाओं में होती है–
1. ऊर्ध्व : ऊपर की दिशा में 
जब पुरुष अपने वीर्य का संपूर्ण रूप से रक्षण करके दीर्घकाल तक उसका स्खलन नहीं होने देता, तो वह वीर्य शरीर की ऊर्ध्व दिशा में मस्तिष्क के ब्रह्मरन्ध्र की ओर प्रवाहित होता है। ऐसे पुरुषों को शास्त्रों में ऊर्ध्वरता कहा गया है। ऊर्ध्वरताओं की गति हमेशा उच्च लोकों में होती है।

2. मध्य : वंश बढ़ाने की दिशा में 
वीर्य का उपयोग विवाह की मर्यादा में अपनी पत्नी के गर्भ में दान करके वंश को बढ़ाने में करने की दिशा को मध्य दिशा कहते हैं। ऐसे साधक जो अपने गृहस्थ धर्म का पालन दृढ़ता से करते हैं, वे केवल अपनी ही नहीं अपितु अपने समस्त कुल की गति को उच्च लोकों में करवाते हैं।

3. अधो : नीचे की दिशा में 
यदि आपको न ही वीर्य का रक्षण करना है और न ही उसका उपयोग वंश बढ़ाने के लिए करना अपितु क्षणिक सुख के लिए, इंद्रियों को उत्तेजित करके वीर्य स्खलित करना है तो ऐसी गति को अधोगति और ऐसे मनुष्यों को अधोरेता कहते हैं। अधोरेताओं की गति अपने वीर्य के समान ही अधोदिशा में अर्थात् नरक की ओर होती है।

आपके वीर्य की अधोगति आपकी अधोगति है। 
और इसका परिणाम देखने के लिए आपको मृत्यु तक की भी प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। यदि आप अपने वीर्य का अधोदिशा में व्यय करते है तो आप न ही मात्र मृत्यु के पश्चात परंतु जीते जी भी मुर्दे के समान ही हो जाओगे।

क्यूँकि चाहे योग करना हो या भोग, 
दोनों के लिए ही स्वस्थ शरीर और स्वस्थ मन की आवश्यकता होती है। और वीर्य का व्यय आपके शरीर और मन दोनों को निर्बल बनाकर आपको प्रतिदिन मृत्यु के द्वार के और समीप ले जाता है।

जिससे आप अपने इस अतुल्य मानव शरीर का उपयोग न ही परम ध्येय की प्राप्ति के लिए कर पाते हो और न ही भौतिक संसार के भोगों के लिए कर पाते हो।

जबकि वो लोग जो अपने वीर्य की प्रयत्नपूर्वक रक्षा करते हैं, वे जीते जी इसी जन्म में अमृत का पान करते हैं।

अमृत का पान? वो भला कैसे हो सकता है?

जी हाँ, 
हो सकता है।

क्यूँकि जब आप बीजावस्था में वीर्य का रक्षण दीर्घकाल तक करते हो तो वह परिपक्व होने के पश्चात् अपनी अंतिम उच्चतम अवस्था में परिवर्तित होता है।

जो कि है.....

5. अमृतावस्था: Nectar Form
जी हाँ! 
जब बीजावस्था में वीर्य का रक्षण दीर्घकाल तक किया जाता है तो वो परिपक्व होकर ऊर्ध्व दिशा में प्रवाहित होता है और फिर मस्तिष्क के ब्रह्मरंध्र में प्रवेश कर अमृत में परिवर्तित हो जाता है।

यह वही अमृत है जिसकी सहाय से ऋषि, मुनि और तपस्वी बिना कुछ खाए पिए वर्षों तक तपस्या करते रहते हैं और फिर भी जीवित रहते हैं।

इस अमृत का पान हठयोग की अनेक क्रियाओं की सहायता से किया जाता है। जोकि सामान्य मानव के लिए अत्यंत ही कठिन होती हैं।

उनमें से एक प्रचलित क्रिया है 'खेचरी मुद्रा’। 
जिसमें साधक अपनी जीभ के तलवे से जुड़ी चमड़ी (Tongue Tie) को काटकर जीभ को प्रतिदिन खींच कर लंबा करता है।

फिर प्रतिदिन कठोर अभ्यास से जीभ को नाक और मुख को जोड़ने वाले द्वार से मस्तिष्क के नीचे सुषुम्ना नाड़ी के बिंदु द्वार को छू लेता है जहाँ से हर एक ऊर्ध्व रेता ब्रह्मचारी का वीर्य अमृत बिंदु स्वरूप में झरता है।

इस अमृत बिंदु के पान से न ही भूख लगती है, न ही प्यास। और लंबे समय के सतत पान से आयु बढ़ना भी रुक जाती है और साधक सदियों तक जीवित रह सकता है। हालाँकि इसके लिए दशकों का अखंड ब्रह्मचर्य होना अत्यंत ही आवश्यक होता है।

आज के मॉडर्न समय में यह सभी बातें सुनकर अधिकतर युवा यह कह कर मुँह फेर लेते हैं कि यह सब सुनी सुनाई अवैज्ञानिक बातें हैं। इनका कोई आँखों देखा सबूत नहीं है।

परंतु यह सत्य नहीं है। 
प्रथम बात कि मॉडर्न विज्ञान को हर किसी चीज़ का प्रमाण नहीं मान सकते। मॉडर्न विज्ञान मानव की इंद्रियों के सक्षमता तक सीमित है। जिसके कारण वह मूलभूत रूप से ही अपूर्ण है और दिन प्रतिदिन बदलता रहता है।

हालाँकि फिर भी,
अमृत बिंदु के अस्तित्व को 2003, 2010 और 2017 में 35 वैज्ञानिकों की टीम की 15 दिन की सतत देख रेख में गुजरात के प्रह्लाद जानी नामक साधक ने सिद्ध भी किया था।

वे 70 वर्षों से बिना कुछ खाए पिए जीवित थे। जिनको झुठलाने और ढोंगी साबित करने के लिए काफ़ी विदेशी वैज्ञानिकों ने उन पर काफ़ी टेस्ट किए परंतु 15 दिन की सतत CCTV की निगरानी में भी उन्होंने कुछ खाया या पिया नहीं था।

फिर भी उनके सारे लैब टेस्ट नॉर्मल आ रहे थे और 2017 में DRDO की Brain Imaging Study में वैज्ञानिकों ने यह बताया कि प्रह्लाद जानी जी 87 वर्ष के होने के पश्चात् भी उनकी Pineal and Pituitary glands की अवस्था किसी 10 वर्ष के बच्चे के समान युवान है। जो कि एकदम असंभव सा प्रतीत होने पर सभी विदेशी वैज्ञानिकों ने हारकर उनपर लैब टेस्ट करना बंद कर दिया था।

कुछ वर्ष पहले वे देश विदेश के अख़बारों और न्यूज़ चैनेलों में इस टेस्ट के कारण प्रचलित भी हो गए थे और यह सभी लैब टेस्ट आज भी सार्वजनिक रूप से उपलब्ध है देखने के लिए, और आज तक कोई वैज्ञानिक इन्हें झुठला नहीं पाया है।

कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे शास्त्रों में बताई गई समस्त विधियाँ संपूर्ण रूप से सार्थक है। यदि उनको यथारूप किया जाए तो प्रत्येक विधि परिपूर्ण रूप से काम करती हैं।

परंतु,
हमारी बात करें यहाँ तो, 
1. हम तो इतने बड़े साधक हैं नहीं, 
2. न ही हम कोई बड़े योगी हैं, 
3. न ही हम ये सारी कठिन मुद्राएँ कर सकते हैं, 
4. और न ही हम 70 वर्ष का ब्रह्मचर्य धारण किए है। 
तो हमारा वीर्य अमृतावस्था में परिवर्तित होगा क्या?

और होगा तो भी हम तो उस अमृत का पान कर नहीं पाएँगे, 
तो उस अमृत का क्या होगा? वो व्यर्थ नहीं जाएगा? 
यदि व्यर्थ जाएगा, तो इतनी सारी मेहनत और संयम का क्या लाभ?

जी नहीं!
ऐसा कुछ नहीं होगा। जैसा कि हमने शुरुआत में ही बताया की वीर्य की यह अवस्थाएँ पेड़ की पाँच अवस्थाओं के समान है। फूल, फल, बीज, पौंधा और फिर पेड़।

पेड़ पर फूल आते हैं, उन्हीं फूलों से फल पकते हैं, उन्हीं फल में बीज परिपक्व होते हैं और उन्हीं पक्व बीज को धरती, जल और सूर्यप्रकाश देने से वह पुनः पौधा और उसके जतन से पेड़ बनता है, फिर पुनः उसी पेड़ पर फूल आते हैं और ऐसे ही अस्तित्व का यह चक्र चलता रहता है।

वैसे ही वीर्य जब अमृतावस्था को प्राप्त करता है तो वह अमृत पुनः गुणावस्था में परिवर्तित होकर पुरुष में वीरता, शौर्य, साहस, पौरुष (Manliness), अनुशासन, निडरता, दृढ़ता, त्याग, तप, इच्छाशक्ति, दृढ़ नीतिपरायणता आदि की वृद्धि करता है और साथ में मस्तिष्क को पोषण देकर यादशक्ति, ध्यानशक्ति और संकल्प शक्ति को भी बढ़ाता है।

परंतु यह सभी अमृत के फ़ायदे सिर्फ़ सात्विक वीर्य से ही होते हैं, न ही राजसिक और न ही तामसिक।

क्या? अब वीर्य के स्वभाव भी होते हैं?
जी हाँ! वीर्य के 3 उद्गम स्थान होते है, और उन्हीं के अनुसार..

वीर्य 3 स्वभाव के होते हैं —
1. सात्विक वीर्य : आत्मा से आया वीर्य प्रथम गुण स्वरूप वीर्य बनता है। 
2. राजसिक वीर्य : भोजन से आया वीर्य सीधा प्राण स्वरूप वीर्य बनता है। 
3. तामसिक वीर्य : रसायणों से आया वीर्य सीधा ऊर्जा स्वरूप वीर्य बनता है।

सात्विक वीर्य :
यदि आपने हमारे B.O.S.S पुस्तक के प्रथम दो अध्याय 'आत्मा और परमात्मा का मूलज्ञान' पढ़ा है तो आपको यह अच्छे से पता होगा कि अस्तित्व के प्रत्येक जीवात्मा का उद्गम स्थान और कोई नहीं परंतु स्वयं परम पुरुषोत्तम परमात्मा ही है। और हम सभी जीवात्माएँ उन्हीं का अंश मात्र हैं।

इसीलिए हमारे अस्तित्व के लिए आवश्यक सभी गुण, तत्त्व और विषयों का स्त्रोत भी परमात्मा ही है। हम ऐसा कह सकते हैं कि हमारे अस्तित्व को बनाए रखने के लिए हम अन्य तत्त्वों के सहित वीर्य को भी उन्हीं से उधार लेते है। अधिक जानकारी के लिए पढ़ें भगवद् गीता : अध्याय 10 और 14

अतः सात्विक वीर्य का उद्गम स्थान भी परमात्मा ही है। यह वीर्य जन्म से 14-16 वर्ष तक सबसे अधिक स्फुरित होता है और 19-25 वर्ष तक संपूर्ण रूप से परिपक्व हो जाता है।

इसीलिए हमारे गुरुकुलों में 25 वर्ष की आयु तक पुरुष को ब्रह्मचारी रहने का प्रावधान है। जिससे इस सात्विक वीर्य का संपूर्ण उपयोग शरीर, मस्तिष्क और चेतना के विकास में करके विद्यार्थी को एक आदर्श नागरिक बनाया जा सके।

सात्विक वीर्य का स्वभाव स्थिर होता है।
यह वीर्य सरलता से शरीर से निकल नहीं जाता, इसीलिए इसका संचय सबसे आसान होता है। सात्विक वीर्य ही अमृतावस्था में परिवर्तित हो सकता है, अन्य सभी वीर्य मात्र बीजावस्था और ऊर्जावस्था तक ही परिवर्तित हो सकते है।

सात्विक वीर्य से उत्पन्न हुई संतान मेधावी, धार्मिक, शांत और भक्तिमय होती है। सात्विक वीर्य का व्यय तीन कारणों से होता है।
1. स्खलन (Ejaculation),
2. प्रजल्प (अनावश्यक विषयों पर वाणी व्यर्थ गँवाने से) और 3. तामसिक वीर्य (External Testosterone etc Drugs) से।

सात्विक वीर्य की वृद्धि के भी मात्र तीन साधन हैं,
1. साधुसंग : भगवान के पार्षदों और भक्तों का संग 
2. नाम जप : भगवान के पवित्र नामों का नियमित जप
3. सात्विक भोजन : भगवान को अर्पित सात्त्विक भोजन प्रसाद।

राजसिक वीर्य : 
राजसिक वीर्य का उद्गम स्थान है राजसिक भोजन। 
जब भोजन में अधिक प्रोटीन वाले भोज्य पदार्थ का सेवन किया जाता है तो उनसे शरीर में बनने वाला वीर्य राजसिक होता है। यह वीर्य स्वभाव से राजसिक होने से साधक के स्वभाव में भी राजसिकता बढ़ाता है।

राजसिक वीर्य का स्वभाव चंचल होता है। अतः इसका संचय करना अधिक कठिन होता है और यह वीर्य सरलता से शरीर से निकल जाता है। इसीलिए यह वीर्य अधिकतर प्राणावस्था से बीजावस्था तक की परिवर्तित हो सकता है।

राजसिक वीर्य शरीर में सात्विक वीर्य से अधिक प्रमाण में स्थूल ऊर्जा उत्पन्न करता है, इसीलिए क्षत्रिय और पहलवान आदि के लिए अधिक प्रोटीन वाले भोज्य पदार्थ सार्थक रहते हैं।

परंतु ब्राह्मण, वैष्णव, तपस्वी, योगी और कोई भी जो अपनी आध्यात्मिक साधना में आगे बढ़ने की कामना रखता है, उनके लिए अत्याधिक प्रोटीन वाले भोज्य पदार्थ उनकी आध्यात्मिक साधना में बाधक होते हैं। इसलिए वे उनका त्याग करते हैं।

यहाँ तक की राजसिक वीर्य से उत्पन्न हुई संतान भी चंचल, अभिमानी, राजसिक और अधिक भौतिक इच्छाओं वाली होती है। इसीलिए उच्च स्तर के धार्मिक क्षत्रिय आज भी गर्भाधान करने से पहले 3 से 6 महीने तक अपना आहार सात्विक करके जप, तप, साधुसंग और सात्विक भोजन करते हैं। जिससे वीर्य सात्विक हो जाता है और संतान मेधावी होती है।

राजसिक वीर्य का व्यय तीन कारणों में होता है,
1. स्खलन,
2. शारीरिक निष्क्रियता और
3. तामसिक वीर्य से।

जब कि उसकी वृद्धि का एक ही साधन है, अधिक प्रोटीन वाला भोजन। 
उसमें भी सबसे बड़ा साधन है मांसाहार व अंडे। फिर उसके बाद सोयाबीन, मसूर दाल व उड़द दाल आदि, क्यूँकि उसमें भी अधिक मात्रा में प्रोटीन होता है, जो कि राजसिक वीर्य बनाता है।

तामसिक वीर्य :
तामसिक वीर्य का उद्गम स्थान है बाह्य द्रव्य रसायण। (Clinically Injected Chemical Testosterone or Steroids) जिन्हें सीधा रक्तवाहिनी में इंजेक्शन से प्रवाहित किया जाता है।

यह रसायण शरीर की माँसपेशियाँ से इस हद्द तक की ऊर्जा उत्पन्न करवाते है जितनी प्राकृतिक रूप से न ही संभव है और न ही शरीर के लिए स्वास्थ्यप्रद।

इस रसायण की ऊर्जा से बनने वाला वीर्य तामसिक वीर्य होता है। यह वीर्य प्राणहीन होने से उसका स्वभाव शिथिल (मृत) होता है। अतः इसका संचय और उपयोग दोनों ही असंभव होता है।

इसका अधिक प्रमाण में उपयोग शरीर में वर्तमान में उपस्थित प्राण, आयु और सात्विक व राजसिक वीर्य का नाश करता है। और शरीर की प्राकृतिक वीर्य बनाने वाली ग्रंथियों को सुखाकर वीर्य का प्राकृतिक उत्पादन धीरे धीरे बंद कर के पुरुष के जननांग को भी संकुचित कर देता है।

उसका उपयोग बंद करने पर भी शरीर के लिए प्राकृतिक वीर्य बनाना असंभव सा हो जाता है। जिसके कारण व्यक्ति को जीवन पर्यन्त उन्हीं रसायणों (Steroids) के इंजेक्शन लेकर अल्पायु को व्यतीत करना पड़ता है।

ऐसे रसायण (Steroids) का उपयोग अधिकतर मॉडर्न बॉडी बिल्डिंग, लड़ाई और अन्य शारीरिक बल व फुर्ती वाले खेलों में होता है।

इन तीनों के उपरांत एक और वीर्य का प्रकार है जिसको राजसिक-तामसिक वीर्य कह सकते हैं, जो कि Supplements से बनता है।

राजसिक इसलिए क्यूँकि इसे भोज्य पदार्थ के रूप में लिया जाता है, सीधा रक्त में इंजेक्ट नहीं किया जाता है और तामसिक इसलिए क्यूँकि अप्राकृतिक रूप से रसों (Nutrients) को सांद्र (Concentrated, Saturated) करके बनाया गया है। इसका उपयोग आवश्यकता होने पर फ़ायदेमंद हो सकता है परंतु यदि स्वस्थ व्यक्ति को इनका उपयोग टालना चाहिए।

अब आइए जानते हैं की, इन तीनों प्रकार के वीर्यों को धारण करने वाला धातु स्वरूप... वीर्य कैसे बनता है?

अभी हमने वीर्य के सूक्ष्म से स्थूल स्वरूप के अवस्था चक्र को समझा, अभी हम वीर्य के स्थूल धातु स्वरूप के बनने की प्रक्रिया को समझेंगे। जिसके बारे में आचार्यपाद् सुश्रुत बताते हैं कि –

रसाद्रक्तं ततो मांसं मांसान्मेदः प्रजायते।
मेदस्यास्थिः ततो मज्जा मज्जायाः शुक्रसंभवः॥

अर्थात्,
भोजन का पाचन होकर पहले रस (Nutrients) बनता है।
पाँच दिवस तक उसका पाचन होकर रक्त (Blood) बनता है।
पाँच दिवस बाद रक्त से मांस (Muscle )। 
उसमें से पाँच दिन में मेद (Healthy Fat)। 
मेद में से पाँच दिन में हड्डी (Bones)। 
हड्डी में से पाँच दिन में मज्जा (Bone Marrow) और 
मज्जा में से पाँच दिन में अन्त में वीर्य (Semen Fluid) बनता है। 
स्त्रियों में जो यह धातु बनती है उसे 'रज' कहते हैं।

अतः वीर्य को शरीर की समस्त सप्त धातुओं रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, शुक्र का सार कहते है।

कहते हैं कि 32 किलो भोजन से 800 ग्राम रक्त बनता है, और 800 ग्राम रक्त से 20 ग्राम वीर्य बनता है। यानी कि महीने भर का भोजन एक यौन क्रिया में खर्च हो जाता है। तो नाली में बहाने वालों की तो क्या ही बात करनी?

ये तो ऐसी बात हुई की किसी माली ने बड़े से बगीचे में महीनों की मेहनत से गुलाब उगाए, सभी को कूट कूट कर रस निकाला, फिर उस रस को और उबाल उबाल कर उसका अर्क बनाया, फिर उसको प्रक्रिया कर के एक छोटी सी बोतल भर मूल्यवान इत्र बनाया, फिर जाकर नाली में फेंक दिया। 

इसीलिए शास्त्र कहते हैं कि, 
मरणं बिन्दु पातेन जीवनं बिन्दु धारणात्। — नारायण स्मृति 
वीर्य का धारण ही जीवन है और वीर्य का पात ही मरण है।

इसीलिए यह आवश्यक है कि हम जाने कि, हमें वीर्य क्यों दिया है भगवान ने?

हमारी नस नस में युवावस्था में वीर्य इसलिए दौड़ता है, क्योंकि यही समय है उसका उपयोग करके शरीर को कसने का, लड़ाई करना सीखने का, इंद्रिय संयम करके विद्या, शक्ति और सक्षमता के अर्जन के लिए संघर्ष करने का। फिर इन सभी से स्वास्थ्य कमा सको, सम्मान कमा सको, धन कमा सको और अपना, अपनों का तथा समाज का कल्याण कर सको।

न कि इसलिए की प्रतिदिन उसी वीर्य को निचोड़ कर बाथरूम में फ्लश कर सको। इसलिए सक्रिय रहो, वीर्य उन लोगों का निकल जाता है जो सक्रिय नहीं रहते। इसलिए हमें वीर्य को पचाना आना चाहिए।

परंतु वीर्य का इन कार्यों से क्या लेना देना? 
भला वीर्य इन सब कार्यों में कैसे सहायता करता है? 
वीर्य करता क्या है हमारे शरीर में?

अरे! ये बोलिए कि क्या नहीं करता? एक पुरुष को क्षमता बढ़ाने के लिए जो मानसिक और शारीरिक आवश्यकताएँ होती हैं वह सभी केवल वीर्य ही देता है।

1. आत्मविश्वास (Confidence) बढ़ाता है, 
2. ध्यान (Focus) बढ़ाता है, 
3. दैनिक ऊर्जा (Daily High Energy) बढ़ाता है, 
4. इन सभी से आपकी मानसिक क्षमता (Productivity) बढ़ती है।

आपको लगता है कि जीवन में कोई उत्साह न होना, कोई हेतु न होना, कोई मोटिवेशन न होना और जीवन में आगे बढ़ने की तीव्र इच्छा न होना, यह सब सामान्य बात (Normal) है?

परंतु ऐसा जरा भी नहीं है। 
यह सब बस आपके जीवनभर के वीर्यनाश का असर है।

और इसके उपरान्त आप जीवन के हर मोड़ पर सही निर्णय तभी ले पाते हो जब आप अपने मस्तिष्क से सोचना शुरू करते हो, ना कि अपने जननांग से।

अधिकतर लोग दुनिया में इसीलिए ठगे (Manipulate) जाते है क्योंकि वे अपने जननांग से सोचते है। अर्थात् हमेशा कामवासना आदि के प्रभाव में रहते है। उसी के कारण उनकी बुद्धि सतत आच्छादित रहती है और वे बुद्धिपूर्ण निर्णय नहीं ले सकते।

शरीर की बात करें तो वीर्य से आपकी.. 
पाचन शक्ति (Metabolism) बढ़ती है, 
माँसपेशियाँ (Muscle Mass) बलिष्ठ होती हैं, 
मेदस्विता (Fat) घटती है और 
हड्डियों की सघनता (Bone Density) बढ़ती है।

अतः यह जानिए कि, 
आपका वीर्य आपके जीवन के हर क्षेत्र में विजय पाने की मूलभूत कुंजी है। और इसका व्यय भोगी, योगी, ज्ञानी, आर्त, अर्थार्थी सभी के लिए सिर्फ़ दुःख ही लाता है।

तो अब आप इतना समझ ही गए होंगे कि, जिस वीर्य को आज की पीढ़ी अंडकोषों में संग्रह होने वाला कोई सामान्य प्रवाही समझ रही है वो वीर्य अंडकोषों स्थित कोई प्रवाही मात्र नहीं है; परंतु पूरे शरीर के प्रत्येक कोष में विद्यमान व्यक्ति के गुण, प्राण और ऊर्जा है।

और शरीर के उन प्रत्येक कोषों में से उस गुण, प्राण और ऊर्जा रूप में स्थित वीर्य को निकालने का एकमात्र तरीक़ा है।

वो है... “मैथुन”

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मैथुन 
Sex, संभोग, यौनक्रिया

जी हाँ,
प्राकृतिक रूप से तो सिर्फ़ मैथुन (Sex) ही वीर्य को शरीर से निकालने के लिए सक्षम होता है। हालाँकि यह दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि चेतना की दुर्गति से हमने शरीर से वीर्य को निचोड़ लेने के लिए हस्तमैथुन व पोर्न जैसे नवीन तरीके बना दिये है।

परंतु इस विषय को समझने की शुरुआत हम प्राकृतिक क्रिया से ही करेंगे।

जो कि है, 
मैथुन (Sex)

परंतु आख़िर, क्या है मैथुन? या संभोग? या यौन क्रिया? या Sex ?

सरल शब्दों में मैथुन प्रजनन हेतु की गई वो प्रक्रिया है जिसमें एक पुरुष एक स्त्री के संपूर्ण शारीरिक संपर्क में आकर उसकी योनि में अपने जननांग से वीर्य बीज का दान करता है, जिससे संतान की प्राप्ति हो सके।

यह हो गई हेतु के लक्ष्य की गई मैथुन की व्याख्या।

परंतु यदि वीर्य को लक्ष्य में रखकर मैथुन की व्याख्या करनी हो तो 'मैथुन' शब्द अपने आप में पूरी प्रक्रिया की व्याख्या कर देता है।

मैथुन शब्द आता है 'मंथन' (Churning) शब्द से। जिसका अर्थ है मथना, जैसे कि समुद्र के मंथन से देवों को अमृत मिला था, और दूध के मंथन से हमें मक्खन मिलता है, वैसे ही शरीर के मंथन से वीर्य मिलता है।

दूध में मक्खन दिखता नहीं है, पर उसकी बूँद बूँद में विद्यमान होता है। वैसे ही शरीर में वीर्य दिखता नहीं है, परंतु उसके कोष कोष में विद्यमान होता है।

जब दूध में से मलाई निकाल ली जाए तो दूध पतला और रसहीन हो जाता है, मक्खन निकाल लिया जाए तब तो दूध ही नहीं रहकर छाछ बन जाती है।

वैसे ही जब जब पुरुष के शरीर में से वीर्य निकलता है तब तब उसके शरीर से पौरुष निकल रहा होता है। जिसका विश्व में सिर्फ़ एक ही सार्थक उपयोग है, जो कि है संतान प्राप्ति।

कोई भी अलग उद्देश्य से किया गया शरीर का मंथन शरीर के अमूल्य प्राण, ऊर्जा, बीज, और अमृत नाश मात्र है।

यह कुछ वो बात हो गई कि, देवों और दानवों ने सहस्रों वर्षों तक दिन रात समुद्र मंथन किया और जब अमृत आया तो उसे नाली में फेंक कर फिर पुनः समुद्र मंथन करने लगे।

मूर्खता है ना? वही तो समझा रहे हैं हम।

हम यही सोचकर मैथुन करते है कि इसमें परम आनंद मिल जाएगा। परंतु यदि सही में मैथुन में इतना आनंद होता तो वैश्याएँ दुनिया के सबसे आनंदित लोगों में से एक होतीं। परंतु सत्य एकदम विपरीत ही देखने को मिलता है।

इसीलिए हम हर बार यह सोचकर मैथुन या हस्तमैथुन करते हैं कि, “इस बार तो उत्तम आनंद मिलेगा, भले पिछली बार नहीं मिला था, और न ही उसके पिछली बार मिला था, और न ही उसके पिछली बार, परंतु इस बार ऐसा प्रतीत हो रहा है कि उत्तम आनंद मिलेगा ही।’

फिर कृत्य करने के तुरंत पश्चात ही पता चलता है कि, “ये तो एकबार फिरसे उसी खाई में आकर गिर गए जिसमें हज़ारों बार गिर चुके हैं।”

यही कारण है कि जब अनावश्यक वीर्यपात होता है, तब भारी मात्रा में ग्लानि (Guilt) का अनुभव होता है।

परंतु वीर्यपात से ग्लानि (Guilt) क्यों होती है?

सत्य यह है कि, वीर्यपात से ग्लानि नहीं होती है। वीर्य नाश से होती है।

जब आप गर्भाधान के हेतु से मैथुन करते हो तब जब वीर्य योनि में स्खलित होता है तब स्त्री और पुरुष दोनों को अत्यंत ही आनंद की अनुभूति होती है।

क्यों? क्यूँकि यहाँ वीर्य का उपयोग हुआ है, व्यय नहीं।

परंतु जब हम वीर्य का सार्थक उपयोग न करके व्यय करते हैं, तब हमें भारी मात्रा में ग्लानि होती है। और यह ग्लानि परमात्मा करवाते हैं।

क्यूँकि यहाँ आप न ही मात्र जीवन में पुरुषार्थ करने के लिए परमात्मा का उधार दिया वीर्य आप व्यय कर रहे हो, परंतु अपने प्राण क्षीण करके अपने आपको मृत्यु के समीप धकेल कर अपनी आत्मा के प्रति घोर अपराध कर रहे हो।

परंतु, यदि ऐसा करने से ग्लानि ही मिलनी थी तो, हमें कामवासना होती ही क्यों है? क्या कामवासना होना अप्राकृतिक है?

हाँ और नहीं। हाँ इसलिए क्यूँकि हमारे मूल सत् चित आनंद आत्मा स्वरूप के लिए कामवासना सहज नहीं है, अप्राकृतिक है। हमारे उस मुक्त रूप में हमें इन वासनाओं का शिकार नहीं होना पड़ता।

और नहीं इसलिए क्यूँकि हम अभी मुक्त नहीं परंतु बद्ध जीव हैं। हम भौतिक प्रकृति के गुणों से इस शरीर में बंधे हुए हैं।

इसीलिए हमें इन शारीरिक वासनाओं को सहन करना पड़ रहा है। और इसी कारण इस कामवासना के त्याग मात्र से साधक मुक्ति के अत्यंत समीप आ जाता है।

परंतु यदि इससे आकर्षित होना ही नहीं था तो, मैथुन भगवान ने क्यों बनाया?

हमारी इच्छा की पूर्ति के लिए। जी हाँ, हमारी इच्छा हुई थी शारीरिक भोग करने की। जो कि हम आध्यात्मिक जगत में नहीं कर सकते। इसीलिए भगवान ने हमारी सबसे तगड़ी इच्छा को ही इस भौतिक सृष्टि के सर्जन और पालन का केंद्र बना दिया, यौन क्रिया।

और उसी यौन क्रिया के संयम को इस दुःखालय से बाहर निकलने का द्वार भी बना दिया। जिसे कहते है, ब्रह्मचर्य।

इसीलिए आचार्यगण कहते हैं कि,
हमारा भौतिक संसार में होने का सबसे बड़ा कारण ही है कामेच्छा। यदि वह नहीं होती तो हम यहाँ नहीं होते और जब तक वह है तब तक इस भौतिक जगत से हम बाहर नहीं निकल सकते।

यही बात उस प्रश्न का भी जवाब दे देती है कि.....
मैथुन की इच्छा इतनी प्रबल क्यों है?

क्योंकि भौतिक जगत में उससे बड़ा कोई आनंद नहीं है। सभी 
इंद्रिय सुखों में सर्वोच्च सुख है मैथुन सुख ।
यहाँ तक कि समस्त सुखों में बस यह एकमात्र सुख है जिसे स्वर्गीय स्तर का सुख कहा गया है। क्योंकि यह एक ही सुख ऐसा है जिसमें समस्त पाँच प्रकार के इंद्रिय विषय सुखों की प्राप्ति हो जाती है। जो कि है....
1. शब्द : Sound
2. स्पर्श : Touch
3. रूप : Beauty
4. रस : Taste
5. गंध : Smell

दुनिया में कोई अन्य ऐसा कृत्य नहीं है जिसमें पाँचों इंद्रियों के विषय सुखों की प्राप्ति एक साथ हो सके। परंतु सर्वोच्च इंद्रिय सुख होने के पश्चात भी अंत में तो यह जड़ इंद्रियों का सुख ही है।

और भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि जड़ इंद्रियों से उच्च मन, उससे उच्च बुद्धि, उससे उच्च अहंकार और उससे भी उच्च आत्मा होती है। अतः जब मनुष्य मन, बुद्धि, अहंकार और उनसे भी उत्तम आत्मा के स्तर का सुख प्राप्त कर लेता है तो उसे जड़ेन्द्रियों के सुखों में रुचि नहीं रहती है।

वैसे ही जैसे किसी ने जीवन भर मात्र ठंडी सूखी रोटी ही खाई हैं। वो भी प्रतिदिन बस एक ही बार। तो वो प्रतिदिन उस घड़ी की प्रतीक्षा करता है कि कब उसे वह सूखी रोटी मिले।

परंतु यदि आप उसको एक बार घी से लत पत गरम गरम रोटी खिला देते हो तो फिर उसको ठंडी सूखी रोटी में कोई रुचि नहीं रहती है। क्योंकि अब उसने उच्च स्तर का सुख चख लिया है।

ऐसे ही जब व्यक्ति को आत्मा का सुख मिल जाता है तो उसे जनेन्द्रियों का सुख ठंडी सूखी रोटी के समान लगने लगता है। अतः उसका त्याग उसके लिए अत्यंत ही सरल हो जाता है। जिसके बारे में हम आगे बात करेंगे।

परंतु अभी बात करते हैं कि... ब्रह्मचर्य कब खंडित होता है?
ब्रह्मचर्य तब से खंडित होना शुरू हो जाता है जब हम स्त्री भोग का प्रथम विचार करते हैं। मैथुन के विचार से लेकर मैथुन की क्रिया तक के आठ चरणों को शास्त्रों में आठ प्रकार के मैथुन बताए गए हैं। जिन्हें कहते है, “अष्ट मैथुन”

श्रवणं (स्मरणं) कीर्तनं केलिः प्रेक्षणं गुह्यभाषणं संकल्पोध्यवसायश्च क्रियानिवृत्तिरेव च

1.श्रवणं व स्मरणं : मित्र, संबंधी या इंटरनेट आदि से स्त्रियों के बारे में सुनना, फिर उसके बारे में चिंतन करना।
2. कीर्तन : उन स्त्रियों के रूप, गुण और अंग प्रत्यंग के बारे में चर्चा करना, उसके गीत गाना, उसके बखान करना या औरों को बताना।
3. केलिः स्त्रियों के साथ हंसी, मजाक, मस्ती (Flirting) व खेल खेलना। 
4. प्रेक्षणं : स्त्री को एकांत में चोरी से, सार्वजनिक स्थल में ऊँट की तरह गर्दन उठा कर ताकना व फ़ोन आदि में भोग दृष्टि से देखना।
5. गुह्यभाषणं : स्त्री के साथ बार-बार आना-जाना, उनके साथ घूमना, एकांत में बातचीत करना, फ़ोन वीडियो कॉल आदि पर बातें करना। 
6. संकल्प : जान बूझकर स्त्रियों के गंदे फोटो देखकर, सिनेमा के कामचेष्टापूर्ण (Erotic) दृश्य देखकर उसकी कल्पनाएँ करना। 
7. व्यवसाय : किसी अ-प्राप्य स्त्री को प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करना। 
8. क्रियानिवृत्ति: स्त्री के साथ प्रत्यक्ष सम्भोग या हस्त मैथुन आदि करना।

मैथुन के यह सभी आठ चरण ब्रह्मचर्य नाश के चरण हैं। इनमें प्रवृत्त होने वाले को अपने आपको ब्रह्मचारी नहीं कहना चाहिए। और जो ब्रह्मचारी बनना चाहता है। उसे इन अष्ट मैथुन में किसी भी प्रकार प्रवृत्त नहीं होना चाहिए।

एतन्मैथुनमष्टगं प्रवदन्ति मनीषिण; विपरीतं ब्रहमचर्य एतत एवाष्टलक्षणम — दक्षस्मृति ७/३१-३३
अर्थात् इन्हीं आठ लक्षणों के विपरीत लक्षण को जीवन में उतारने वाले को अखंड ब्रह्मचारी कहते हैं।

अतः आदर्श ब्रह्मचारी में इन आठ लक्षणों में से एक भी लक्षण नहीं पाया जाना चाहिए क्योंकि इनमें से एक भी लक्षण हमें और हमारे ब्रह्मचर्य व्रत को नष्ट भ्रष्ट करने के लिए पूर्ण रूप से समर्थ है।

परंतु आख़िर क्यों? क्योंकि आप ही विचार कीजिए कि, शरीर में आख़िर.... वीर्य कब बनता है?

लोगों में यह सामान्य मिथ्या धारणा है की, वीर्य तो तभी बनता और निकलता है जब प्रत्यक्ष मैथुन करते हैं। परंतु शरीर में वीर्य बनने की शुरुआत ऊपर बताए अष्ट मैथुन के प्रथम चरण से ही हो जाती है।

जैसे ही कामवासना का मन में मनोमंथन शुरू होता है, हमारी इंद्रियाँ शरीर का मंथन करके उसके प्रत्येक कोषों से वीर्य मथना शुरू कर देता है।

और यदि उस मनोमंथन के पश्चात कृत्य नहीं करते हैं तो वही मथा हुआ वीर्य स्वप्न दोष के माध्यम से शरीर से निकल जाता है।

तो,
क्या समझें? 
यही कि,

सिर्फ़ हस्तमैथुन न करना (Nofap) ब्रह्मचर्य नहीं है, सिर्फ़ मैथुन (Sex) न करना भी ब्रह्मचर्य नहीं है, सिर्फ़ वीर्य को न गिरने देना (Semen Retention) भी ब्रह्मचर्य नहीं है, और सिर्फ़ अपने वीर्य को बाह्य प्रभाव से दबाकर नशा, जुआ, सॉफ़्ट पोर्न जैसी अन्य विकार युक्त आदतों में बने रहना भी ब्रह्मचर्य नहीं है।

तो फिर, क्या है ब्रह्मचर्य?

महाभारत में व्यासदेव बताते है कि,
'इंद्रिय सुखों का स्वैच्छिक त्याग करके, अपनी इंद्रियों पर संपूर्ण नियंत्रण पाकर, अपने प्राणों की वृद्धि करके पुनः अपने आध्यात्मिक रूप की प्राप्ति करने की प्रक्रिया को कहते है, “ब्रह्मचर्य”

परंतु अभी प्रश्न यह आता है कि...
क्यों करें ब्रह्मचर्य ?

To be continued..