किसी ने क्या खूब कहा है कि जो आनंद अपनी छोटी पहचान बनाने में है वो किसी बड़े की परछाईं बनने में नहीं है | बेहतर होगा कि आप अपने जीवन में कर्तव्य परायणता और संघर्ष करना पिता और गुरु से सीखें , संस्कार मां से और शेष सब कुछ जाइसे जोड़ -घटाना, गुणा – भाग तो दुनियाँ ही सिखा देगी | मैंने इस कथन को शत -प्रतिशत अपने जीवन में उतरते और फलीभूत होते हुए देखा है| मुझे शायद इसीलिए अपनी छोटी पहचान से ही संतुष्ट होना पड़ रहा है | बड़े बड़े पुरस्कार और सम्मान मुझसे दूर हैं, जब कि मेरे संग- साथ के लोग कुछ बड़ों की परछाईं के सहारे आज ढेर सारे लाभ उठाते जा रहे हैं और उन्हें मिल रहे सम्मान की तो गिनती ही नहीं है | प्रगतिशील कवि दुष्यंत कुमार ने ठीक ही कहा है कि- “ इतिहास में कहाँ दर्ज होते हैं वे युद्ध जो मन के भीतर (कई - कई कालखंडों में ) चलते रहते हैं |” मुझे भी अपने आंतरिक और बाह्य जीवन में ऐसे अनेक युद्धों या युद्ध जैसी परिस्थितियों से गुजरना पड़ा है जिसकी चर्चा आवश्यक तो है ही , उन प्रसंगों के प्रत्यक्ष या परोक्ष उल्लेख बिना मेरी यह आत्मकथा अधूरी भी रहेगी |लड़े गए या लड़े जा रहे युद्ध( जैसा कि मैंने उल्लेख किया है )जीवन में आंतरिक , बाह्य और मानसिक मोर्चों पर | वर्ष 2007 – मेरे जीवन के लिए एक ऐसा ही यादगार वर्ष रहा जिसमें मेरे नितांत निजी ही नहीं मेरे हितैषियों ,बंधु बांधवों और परिजनों के भी जीवन में सुख के रास्ते दुख ने प्रवेश किया | कभी भी ना भूलने वाले दुख ने सुख के अध्याय को पूर्ण विराम दे दिया और दुख की नीर भरी बदली ने हमारे जीवन में अंधेरा कर दिया |लड़ाइयाँ छिड़ गईं ढेर सारे मोर्चे खुल गए | उस दौर के स्मरण मात्र से आज भी मैं भावुक हो उठता हूँ और घंटों मानसिक आघात -प्रतिघात से गुज़रता रहता हूँ |यह वर्ष मेरे जीवन का ऐसा काला अध्याय बन कर रह गया है कि जो प्राणांत तक साथ रहेगा | क्या सुनना चाहेंगे आप ? 31 जनवरी 2007 को फैजाबाद में बड़े बेटे दिव्य की शादी के इंगेजमेंट के बाद यश और दिव्य दोनों अपने अपने काम पर वापस चले गए थे |कुछ ही दिन बाद मेरे हिप ज्वाइंट में इन्फेक्शन हो जाने के कारण 10 अप्रैल 2007 को मुझे चेन्नई के एक बड़े अस्पताल MIOT में भर्ती होना पड़ा जहां 24 अप्रैल 2007 को Revision of S-Rom THR of Right Side हुआ | उसके बाद 10 मई को मुझे वहाँ से डिस्चार्ज किया गया | मुझे बड़े बेटे दिव्य डिस्चार्ज करा कर लखनऊ लाए | चेन्नई से लखनऊ की फ्लाइट जब चौधरी चरण सिंह इंटरनेशनल एयरपोर्ट लखनऊ उतरने ही वाली थी कि इतनी तेज आंधी और तूफान का गुबार उठा कि पाइलट रन वे छू ही नहीं सका और विवश होकर फ्लाइट वापस दिल्ली चली गई |लगभग एक घंटे बाद वही प्लेन फिर वापस लखनऊ के लिए उड़ान भरी |यहाँ मेरी पत्नी और साढ़ू ओ.पी.मणि त्रिपाठी जो मुझे रिसीव करने एयरपोर्ट गए थे, परेशान रहे | चेन्नई प्रवास की इस एक महीने की लंबी और अप्रत्याशित अवधि में कभी पत्नी मीना, कभी बड़े पुत्र दिव्य और कभी छोटे और अत्यंत लाडले पुत्र यश ने मेरी परिचर्या की |साढ़ू पुत्र अनुराग(बॉबी) और पुत्र वधू अनन्या तो वहीं चेन्नई में थे ही और वे हमेशा हम सभी के लिए तत्पर रहते थे |मेरे गोरखपुर स्थित परिवार के सदस्यों में मेरे प्रति इतनी विषबेल फैल चुकी थी कि मुझे देखने चेन्नई कोई नहीं आया | मेरे पिता-माता तक नहीं आए |मैंने अपने पिता से कुछ आर्थिक मदद मांगी थी तो उन्होंने एक पैसा तक नहीं दिया |यह अवश्य सुनने में आया कि इस मसले पर उन्होंने गोरखपुर में अपने घर के सामने के पाटेश्वरी प्रसाद मिश्रा के पुत्र के.एन. वात्स्यायन (पप्पू) से अवश्य सलाह ली थी और पप्पू ने उनसे कहा था कि अगर प्रफुल्ल आपको आर्थिक मदद करते हैं तो दीजिए अन्यथा कोई मदद मत कीजिए | उन दिनों वे लोग मेरे पिता और माता जी के अत्यंत प्रिय हुआ करते थे क्योंकि चिकनी चुपडी बातें करने में वे लोग सिद्ध हस्त थे | आज पैतृक संपदा के रुप में करोड़ों रुपये की प्रॉपर्टी मेरे माँ बाप मेरे उपयोग के लिए छोड़ गए हैं अगर वे चाहते तो उसमें से मेरे ही हिस्से के खेत बेंच कर मुझे आर्थिक मदद कर सकते थे |लेकिन ऐसा उन्होंने नहीं किया |मुझे आर्थिक मदद न देने के पीछे एक मुख्य कारण यह भी था कि मेरी माँ सरोजिनी त्रिपाठी भी अक्सर रामायण की मंथरा की भूमिका में उतर आया करती थीं और पिताजी उनका अनुकरण करते थे |ऐसे कुछ प्रकरण उन दोनों के व्यक्तित्व का काला अध्याय है |उनसे जुड़े ऐसे और भी दुखद अध्याय हैं जिनकी चर्चा आगे करूंगा |और हाँ,इस एक महीने में मैंने उस अस्पताल में कितने - कितने नरक झेले उसकी एक अलग ही रोमांच भरी कहानी है उसे भी आगे बताऊँगा | 2 जनवरी 1985 को गोरखपुर में जन्मे ,एयरफोर्स स्कूल गोरखपुर से हाई स्कूल टॉप करके सिटी मांटेसरी स्कूल, महानगर, लखनऊ से इंटर करते ही एन. डी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करके नेशनल डिफेंस एकेडमी ,खड़गवासला,पुणे से आर्मी की ट्रेनिंग लेकर मेरे छोटे पुत्र लेफ्टिनेंट यश आदित्य (I.C. 68122- H) 7 MECH. INFANTRY (1 DOGRA) में अपनी नियुक्ति पा चुके थे और उ दिनों अपनी पहली पोस्टिंग पर लेह में नियुक्त थे |उधर बड़े बेटे लेफ्टिनेंट कर्नल दिव्य आदित्य (I.C. 63692-P) भी भारतीय थल सेना (ई. एम. ई. ) में ही कैप्टन के रूप में हिसार में नियुक्त थे | उनकी शादी और फिर रिसेप्शन का समारोह धूमधाम से सम्पन्न हो चुका था |वे अपनी नई नवेली पत्नी लेकर हिसार चले गए और यश वापस अपनी पोस्टिंग पर लेह |लेह पहुंचते ही यश को यह जानकारी मिली कि यूनिट अब बबीना कैंट (झांसी) शिफ्ट होगी और उसके सुरक्षित वापसी की जिम्मेदारी सुरक्षा अधिकारी के रुप में यश की होगी |यश बहुत खुश थे और उन्होंने फोन पर हमें बताया कि उनका बनवास अब समाप्त होने को है और अब मैदानी इलाके में और लखनऊ के पास बबीना कैंट (झांसी) में अब उन्हें रहना होगा |हम लोग भी बहुत खुश थे | अगस्त के अंतिम सप्ताह में यश की यूनिट की बबीना वापसी तय हुई और लेह से सड़क मार्ग से अपने लाव लश्कर के साथ लेह से वह पठानकोट रेलवे स्टेशन आ गए |रेल प्रशासन से समन्वय स्थापित करके मिलिट्री स्पेशल ट्रेन की व्यवस्था करने , उसमें सैन्य हथियार आदि की सुरक्षित लोडिंग होने और फिर उसके रवाना कराने में वे अत्यंत व्यस्त और परेशान रहे |29 अगस्त को ट्रेन पठानकोट से रवाना हुई और वह अब लुधियाना रेलवे स्टेशन के यार्ड में खड़ी थी | ट्रेन के अंदर ही सारे जवान और अधिकारी अपना लंच ले रहे थे कि तभी एक जोरदार धमाके की आवाज आई |लोग बाहर निकाल कर देखते हैं कि लेफ्टिनेंट यश आदित्य यार्ड के प्लेटफ़ॉर्म पर अस्त व्यस्त, आग का गोला बन कर पड़े हुए हैं|चारों ओर अफरा- तफरी का माहौल |कुछ लोग बोरे ,कंबल,पानी आदि से आग बुझा रहे हैं |थोड़ी ही देर में उनका प्राथमिक उपचार होता है लेकिन उनका जीवन खतरे में देख कर उनके उच्च अधिकारी उनको लुधियाना के क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज एण्ड अस्पताल के बर्न यूनिट में लेकर भागते हैं | लगभग दो बजे मेरा मोबाइल फोन घनघना उठता है और दूसरी ओर से यश के सीनियर ऑफिसर कर्नल संजीव शर्मा की आवाज आने लगती है |वे बता रहे हैं कि “लेफ्टिनेंट यश एक दुर्घटना में बुरी तरह घायल हो गए हैं और इस समय सी. एम. सी. लुधियाना की बर्न यूनिट में भर्ती हैं |फिलहाल अभी उनकी तबीयत कंट्रोल में है |” इतना सुनते ही मानो मुझे काठ मार गया |अपने आप को संभालते हुए मैंने उनसे पूछा-“वो ठीक तो हैं ?” “हाँ, हाँ, मैं आपकी बात कराता हूँ |” कर्नल बोल उठे |उधर अब फोन पर यश थे | उनकी थकी हुई ,भारी भारी आवाज़ आ रही है –“डैडी मैं ठीक हूँ |आप लोग घबराइए नहीं |कर्नल साहब मेरी देखभाल कर रहे हैं |सब ठीक हो जाएगा |” शरीर के 67 प्रतिशत अंग जिसके जल चुके हों ,जो अस्पताल के आई. सी. यू. में पड़ा अनजाने, अचीन्हे नर्स और डाक्टर से घिरा कराह रहा हो उस वीर बेटे के इस आत्म विश्वास पर मैं चकित भी था हतप्रभ भी | मुझे रोना आ गया | “ठीक है बेटा ,हम लोग जल्दी से जल्दी पहुंचते हैं |” मैंने भारी और बोझिल मन से बात समाप्त की | फोन पर बातचीत के बाद तुरंत मैं सक्रिय हो उठा | सबसे पहले बड़े बेटे कैप्टन दिव्य को इस घटना की सूचना दिया तो वे बताए कि यश की यूनिट से कर्नल साहब उसे घटना के बारे में बता चुके हैं और वह हिसार से लुधियाना के लिए निकल चुके हैं | इसके बाद मैंने अपने साढ़ू की बिटिया पूजा को फोन करके यह कहा कि वे लखनऊ से लुधियाना के लिए रात की ट्रेन में दो बर्थ के लिए रिजर्वेशन देखें | अब अपनी पत्नी को संभलते संभलते इस दुर्घटना को बताने की बारी थी जो उस समय अपने स्कूल में थीं | अब याद नहीं है कि इस हृदय विदारक घटना के बारे में मैंने उनसे क्या और कैसे कहा ! ,हाँ इतना अवश्य याद है कि उनको यह हिदायत दे दी कि वे घर पहुँच कर यात्रा की तैयारी कर लें |उसी क्रम में साढ़ू के लड़के अनुराग (जो संयोग से उन दिनों लखनऊ में थे और उनको एक हफ्ते में अपनी नई नौकरी पर कुवैत जाना था ) को मीना के साथ लुधियाना भेजने का निर्णय हुआ | संयोग यह रहा कि रिजर्वेशन मिल गया | बुझे मन से शाम को जब मैं घर लौटा तो ढेर सारे लोग जुटे मिले | सभी के सभी चिंतित,किसी अनहोनी से भयभीत और उदास | एक प्रकार का मातम पसरा हुआ था |मीना ने यात्रा की तैयारियां कर ली थीं | नियत समय पर ट्रेन पकड़ने वे लोग स्टेशन रवाना हुए |मेरी रात ,वह भयानक रात कैसे कटी वर्णनातीत है | इस अंक में बस ! अब इतना ही ! इस प्रसंग पर चर्चा चलते ही जैसा कि पहले ही बता चुका हूँ कि मैं मर्मांतक पीड़ाओं के दौर से गुजरने लगता हूँ |इसलिए शेष अगली कड़ी में |