"कागज़ का फूल"
2025 की एक नम शाम, दिल्ली के एक पुराने मोहल्ले में, जहाँ नीम के पेड़ों की छाँव और पुरानी हवेलियों की दीवारें अभी भी समय को थामे हुए थीं, अनन्या अपनी दादी के साथ बैठी थी। बाहर बारिश की बूँदें खिड़की पर टपक रही थीं, और कमरे में चाय की भाप के साथ पुरानी लकड़ी की अलमारी की खुशबू घुल रही थी। अनन्या की दादी, 78 साल की शांति देवी, अपनी पसंदीदा मलमल की साड़ी में लिपटी, रॉकिंग चेयर पर धीरे-धीरे झूल रही थीं। उनके चेहरे पर उम्र की लकीरें थीं, लेकिन उनकी आँखों में एक चमक थी, जैसे कोई अधूरी कहानी अभी भी उनके दिल में साँस ले रही हो।
"दादी, आपकी जवानी में कुछ खास था ना?" अनन्या ने चाय का प्याला थामते हुए पूछा, उसकी आवाज़ में जिज्ञासा और उत्साह था। वह हमेशा से दादी की कहानियों की दीवानी थी। उनकी कहानियाँ सिर्फ़ कहानियाँ नहीं थीं; वे समय की यात्रा थीं, जो पुराने ज़माने की सैर कराती थीं।
शांति देवी ने एक गहरी साँस ली, और उनकी नज़र खिड़की की ओर चली गई, जहाँ बारिश की बूँदें शीशे पर नाच रही थीं। "बेटा, जवानी तो एक सपना थी—रंगों से भरा, हँसी से सजा, और... थोड़ा सा दर्द भी लिए हुए।" उनकी आवाज़ में एक हल्की सी उदासी थी। "तूने कभी मेरी और तेरे दादाजी की शादी की बात सुनी?"
अनन्या ने सिर हिलाया। "हाँ, दादी, आपने बताया था कि दादाजी से आपकी शादी अरेंज्ड थी। लेकिन उससे ज्यादा कुछ नहीं।"
शांति देवी की मुस्कान में कुछ अनकहा था। "शादी तो अरेंज्ड थी, पर उससे पहले... मेरे दिल में एक और कहानी थी। मेरी पहली मोहब्बत की कहानी।"
अनन्या की आँखें चमक उठीं। "पहली मोहब्बत? दादी, ये तो आपने कभी बताया नहीं! बताओ ना, पूरी कहानी, शुरू से आखिर तक!"
शांति देवी ने खिड़की की ओर देखा, जहाँ बारिश अब तेज़ हो रही थी। "ठीक है, बेटा। लेकिन ये कहानी मेरी और एक मेले की है, जहाँ मैंने अपने दिल को खोया... और कुछ हद तक पाया भी।"
1965 का साल था। उत्तर प्रदेश के साहरनपुर में मकर संक्रांति का मेला हर साल की तरह पूरे शबाब पर था। गलियों में रंग-बिरंगे झंडे लहरा रहे थे, हलवाइयों की दुकानों से तिल के लड्डुओं और गजक की मिठास हवा में घुल रही थी, और बच्चे पतंगों के पीछे दौड़ रहे थे। उस समय देश में एक नया उत्साह था—नए भारत का सपना, सिनेमा की चमक, और जवानी की उमंग।
18 साल की शांति, एक हंसमुख और सपनों से भरी लड़की, अपनी सहेली लक्ष्मी के साथ मेले में थी। उसकी नीली साड़ी में वह किसी चित्र से उतरी हुई लगती थी। उसकी आँखों में जिज्ञासा थी, और होंठों पर एक हल्की सी मुस्कान, जो हर किसी का ध्यान खींच लेती थी।
"शांति, देख, वो झूला कितना ऊँचा है!" लक्ष्मी ने उत्साह से कहा, अपने दुपट्टे को बार-बार सँभालते हुए।
"हाँ, पर मुझे तो पहले वो तिल की बर्फी खानी है!" शांति ने हँसते हुए जवाब दिया, उसकी आँखें मेले की चमक में खो गईं।
दोनों सहेलियाँ मेले की भीड़ में आगे बढ़ीं। तभी, शांति की नज़र एक स्टॉल पर पड़ी, जहाँ एक जवान लड़का किताबें बेच रहा था। वह साधारण सफ़ेद कुरता-पायजामा पहने था, लेकिन उसकी मुस्कान में एक अलग ही जादू था। वह ग्राहकों से बात करते हुए हँस रहा था, और उसकी आवाज़ में एक गर्माहट थी, जो भीड़ के शोर को भी शांत कर देती थी।
"लक्ष्मी, वो देख, किताबों का स्टॉल!" शांति ने उत्साहित होकर कहा, उसका ध्यान उस लड़के पर था।
लक्ष्मी ने शरारत से मुस्कुराया। "किताबें देखने जा रही है, या उस लड़के को?"
शांति का चेहरा लाल हो गया। "चुप कर, बकवास मत कर!" लेकिन उसकी आँखें बार-बार उस लड़के की ओर जा रही थीं।
दोनों स्टॉल के पास पहुँचीं। लड़के ने उन्हें देखा और मुस्कुराया। "नमस्ते, बहनजी। कुछ खास किताब ढूंढ रही हैं?" उसकी आवाज़ में एक दोस्ताना लहजा था, जो शांति को तुरंत भा गया।
शांति ने हल्के से सिर झुकाया। "बस, कुछ अच्छा सा पढ़ने को चाहिए। कोई कहानी की किताब हो तो?"
लड़के ने एक किताब उठाई, जिसका कवर थोड़ा पुराना था, लेकिन उसकी आँखों में चमक थी। "ये लीजिए, रवींद्रनाथ टैगोर की 'काबुलीवाला'। कहानी ऐसी कि दिल को छू लेगी।"
शांति ने किताब थामी, और उसकी उंगलियाँ अनायास ही लड़के की उंगलियों को छू गईं। एक पल के लिए उनकी नज़रें मिलीं, और शांति को लगा जैसे मेले का सारा शोर गायब हो गया हो।
"आपका नाम?" शांति ने हिम्मत जुटाकर पूछा, उसकी आवाज़ में हल्की सी काँप थी।
"कृष्ण। कृष्ण शर्मा। और आपका?" उसने जवाब दिया, उसकी मुस्कान और गहरी हो गई।
"शांति," उसने धीरे से कहा, अपनी नज़रें किताब पर टिकाते हुए।
"शांति... नाम तो वैसा ही है, जैसे मेले की ये शांत शाम," कृष्ण ने कहा, और शांति का दिल धड़क उठा।
लक्ष्मी ने खाँसकर माहौल को हल्का किया। "अच्छा, किताब कितने की है?"
कृष्ण ने हँसते हुए कहा, "आपके लिए मुफ्त, अगर आप वादा करें कि इसे पूरा पढ़ेंगी। और... शायद फिर मेले में मिलें तो बताएँ कि कैसी लगी।"
शांति ने मुस्कुराकर सिर हिलाया। "वादा।"
उस दिन की छोटी सी मुलाकात ने शांति के दिल में एक हलचल मचा दी। मेले की भीड़ में, रंगों और शोर के बीच, एक नया रिश्ता शुरू हो चुका था।
मेले के बाद के हफ्तों में, शांति और कृष्ण की मुलाकातें बढ़ने लगीं। कृष्ण साहरनपुर के एक छोटे से स्कूल में अंग्रेजी पढ़ाता था और अपनी किताबों की छोटी सी दुकान चलाता था। शांति, जो अपने पिता की किराने की दुकान में मदद करती थी, हर बहाने से बाज़ार जाती, ताकि कृष्ण से मिल सके।
एक दिन, बाज़ार में, कृष्ण ने उसे एक चिट्ठी थमाई। "ये तुम्हारे लिए," उसने कहा, उसकी आँखों में शरारत और थोड़ा सा डर था।
शांति ने चिट्ठी खोली। उसमें लिखा था:
*"शांति, तुम्हारी मुस्कान मेरे दिन को रौशन करती है। क्या तुम कल शाम नदी किनारे मिल सकती हो? मैं तुम्हें कुछ दिखाना चाहता हूँ। —कृष्ण"*
शांति का चेहरा लाल हो गया। उसने चिट्ठी को अपने दुपट्टे में छिपा लिया और घर भागी। उस रात वह सो नहीं पाई। कृष्ण की बातें, उसकी मुस्कान, उसकी चिट्ठी—सब उसके दिमाग में घूम रहा था।
अगले दिन, नदी किनारे, कृष्ण ने उसे एक छोटा सा कागज़ का फूल दिया। "ये मैंने बनाया है," उसने कहा। "तुम्हारे लिए।"
शांति ने फूल को थाम लिया, उसकी उंगलियाँ काँप रही थीं। "तुम इतने अच्छे क्यों हो, कृष्ण?"
"क्योंकि तुम हो," उसने जवाब दिया, और दोनों हँस पड़े। उस शाम, नदी के किनारे, उन्होंने अपने सपने साझा किए। कृष्ण एक लेखक बनना चाहता था, जो कहानियाँ लिखे जो लोगों के दिल को छू लें। शांति एक ऐसी दुनिया चाहती थी, जहाँ प्यार को कोई बंधन न बांधे।
"शांति, क्या तुम्हें लगता है कि प्यार हमेशा जीतता है?" कृष्ण ने पूछा, उसकी आँखें नदी की लहरों में खो गई थीं।
शांति ने मुस्कुराकर कहा, "जब तक दिल सच्चा है, प्यार हार नहीं सकता।"
1966 का मेला फिर आया। इस बार शांति और कृष्ण ने साथ में मेला घूमने का प्लान बनाया। वे झूले पर बैठे, तिल के लड्डू खाए, और एक-दूसरे की आँखों में खो गए।
"शांति, एक दिन हम अपना मेला बनाएँगे," कृष्ण ने कहा, उसकी आवाज़ में सपने थे। "जहाँ सिर्फ़ प्यार और हँसी होगी।"
"और तिल के लड्डू!" शांति ने हँसते हुए कहा, उसका हाथ कृष्ण के हाथ को हल्के से छू गया।
लेकिन उस रात, मेले में एक हादसा हो गया। साहरनपुर में उस समय एक बड़ा बाढ़ का खतरा मंडरा रहा था। नदी का पानी बढ़ रहा था, और प्रशासन ने मेले को जल्दी खत्म करने का आदेश दिया। भीड़ में अफरा-तफरी मच गई। लोग इधर-उधर भागने लगे, और शांति और कृष्ण भीड़ में बिछड़ गए।
"कृष्ण!" शांति ने चिल्लाया, लेकिन उसकी आवाज़ भीड़ के शोर में दब गई। वह उसे ढूंढती रही, लेकिन बारिश और भीड़ ने उसे रोक लिया। उस रात, वह रोते हुए घर लौटी, अपने हाथ में वही कागज़ का फूल थामे हुए।
कृष्ण का परिवार उस रात साहरनपुर छोड़कर चला गया। बाढ़ के डर से वे दिल्ली शिफ्ट हो गए। शांति को बाद में पता चला कि कृष्ण ने उसे एक चिट्ठी भेजी थी, लेकिन बाढ़ के कारण डाक व्यवस्था ठप थी, और चिट्ठी कभी उस तक नहीं पहुँची।
अनन्या की आँखें नम थीं। "दादी, फिर आपने कृष्ण जी को दोबारा नहीं ढूंढा?"
शांति देवी ने सिर हिलाया। "उस समय हालात ऐसे थे, बेटा। मेरे पिता ने मेरी शादी तेरे दादाजी से कर दी। वो अच्छे इंसान थे, और मैंने उनके साथ एक अच्छी ज़िंदगी जी। लेकिन कृष्ण... वो मेरे दिल का एक कोना था, जो हमेशा अधूरा रहा।"
अनन्या ने दादी का हाथ थामा। "दादी, ये कहानी इतनी खूबसूरत और दुखी है। काश, आप दोनों फिर मिले होते।"
शांति देवी ने मुस्कुराकर कहा, "ज़िंदगी ऐसी ही होती है, बेटा। कुछ कहानियाँ अधूरी ही अच्छी लगती हैं।"
अगले दिन, अनन्या अपनी कॉलेज लाइब्रेरी में थी। वहाँ उसकी मुलाकात अर्जुन से हुई, जो एक नया स्टूडेंट था। अर्जुन की हँसी और किताबों के प्रति उसका जुनून अनन्या को तुरंत पसंद आया। दोनों की बातें शुरू हुईं, और जल्द ही वे दोस्त बन गए।
एक दिन, अर्जुन ने अनन्या को अपने दादाजी की एक पुरानी किताब दिखाई। "ये मेरे दादाजी की थी," उसने कहा। "वो साहरनपुर में एक किताबों का स्टॉल चलाते थे।"
अनन्या का दिल जोर से धड़का। "साहरनपुर? तुम्हारे दादाजी का नाम क्या था?"
"कृष्ण शर्मा," अर्जुन ने जवाब दिया।
अनन्या की साँस रुक गई। "कृष्ण शर्मा? क्या वो 1965 के दशक में मकर संक्रांति के मेले में जाया करते थे?"
अर्जुन हैरान हो गया। "हाँ, मेरे दादाजी हमेशा उस मेले की बात करते थे। वो कहते थे कि वहाँ उनकी ज़िंदगी की सबसे खूबसूरत यादें थीं।"
अनन्या ने उसी शाम अर्जुन को अपने घर बुलाया। जब शांति देवी ने अर्जुन को देखा, उनकी आँखें भर आईं। अर्जुन की मुस्कान, उसकी आँखें—सब कुछ कृष्ण की याद दिला रहा था।
"अर्जुन, तुम्हारे दादाजी... क्या वो अभी हैं?" शांति देवी ने काँपती आवाज़ में पूछा।
अर्जुन ने सिर झुकाया। "नहीं, दादी। वो पिछले साल चल बसे। लेकिन वो हमेशा एक लड़की की बात करते थे... शांति।"
शांति देवी की आँखों से आँसू छलक पड़े। "वो मैं थी, बेटा।"
अनन्या और अर्जुन स्तब्ध रह गए। उस रात, शांति देवी ने अर्जुन को वो कागज़ का फूल दिखाया, जो उन्होंने इतने सालों तक सँभालकर रखा था। अर्जुन ने बताया कि उनके दादाजी भी एक ऐसी ही चिट्ठी सँभालते थे, जो उन्होंने शांति के लिए लिखी थी, लेकिन कभी भेज नहीं पाए।
कहानी का अंत दुखी नहीं था। अनन्या और अर्जुन ने फैसला किया कि वे अपने दादा-दादी की अधूरी कहानी को पूरा करेंगे। उन्होंने साहरनपुर में एक छोटा सा बुक फेस्टिवल शुरू किया, जिसका नाम रखा "शांति-कृष्ण मेला।" वहाँ किताबें, तिल के लड्डू, और प्यार की कहानियाँ बाँटी जाती थीं।
हर साल, जब मेला लगता, अनन्या और अर्जुन एक-दूसरे के साथ वहाँ जाते। उनकी दोस्ती धीरे-धीरे प्यार में बदल रही थी, जैसे उनके दादा-दादी का प्यार कभी अधूरा रह गया था।
शांति देवी, अब अपनी रॉकिंग चेयर पर बैठकर, उस मेले की तस्वीरें देखतीं और मुस्कुरातीं। "कृष्ण, तुम जहाँ भी हो, देखो, हमारा मेला फिर से जी उठा है," वह धीरे से कहतीं।