दुःख में से द्वेष पैदा होता है ... और दुःख में से वैराग्य भी पैदा होता है। अग्निशर्मा के चित्त में वैराग्यभाव पैदा हो गया।
'लोगों की ओर से मुझे घोर अवहेलना सहन करनी पड़ती है। असह्य संत्रास और नारकीय वेदना सहनी पड़ती है। कोई भी मुझे बचा नहीं पाता है। न मेरी माँ मेरी रक्षा कर पाती है ... न मेरे पिता मुझे सुरक्षा दे सकते हैं। कितनी विवशता है मेरी? मैं कितना अनाथ हूँ! कैसी मेरी बेबसी है? पूरे नगर में ऐसी कदर्थना केवल मुझे उठानी पड़ती है! मेरे अलावा और किसी की भी इतनी घोर अवहेलना नहीं होती होगी! ऐसा क्यों? मेरे पिता के मुंह से मैंने कई बार सुना है .. 'पाप से दुःख आता है ... धर्म से सुख मिलता है!' जरूर, मैंने गत जन्म में कई पाप किये होंगे। पूर्वजन्म में मेरी आत्मा ने औरों का तिरस्कार किया होगा! दूसरों का उत्पीड़न किया होगा! दूसरे जीवों को दुःखी किये होंगे। इसका ही फल क्या मुझे इस जन्म में उठाना पड़ रहा है?
हाँ, वर्ना इस जन्म में मैंने गुणसेन राजकुमार का कुछ भी तो नहीं बिगाड़ा है! उसे मैंने कुछ भी दुःख नहीं दिया है। न उसके मित्रों को कभी सताया है। फिर वे लोग क्यों मुझे इस तरह बेरहमी से सताते हैं?
पिताजी कहते हैं : 'कारण के बगैर कोई कार्य होता नहीं है।' इस जन्म में ऐसा कोई पाप भी मैंने नहीं किया है, जिसके फलस्वरूप इतना घोर तिरस्कार मुझे उठाना पड़े! मानना ही होगा कि गत जन्म में मैंने पाप किये हैं। यह तो मेरा अनुमान है। कार्य पर से कारण का अनुमान होता है ...। वैसे तो सर्वज्ञ महापुरुष ही कार्य-कारण को प्रत्यक्ष देख सकते हैं। कैसा बेढंगा... बदसूरत शरीर लेकर मैं पैदा हुआ हूँ। जब मैं छोटा था... पर कुछ समझने लगा था... तब मेरी माता ने मेरे पिता से पूछा था : 'मेरी कोख से ऐसा बदसूरत पुत्र क्यों पैदा हुआ? अधिकांश तो पुत्र या पुत्री, माता या पिता का रूप लेकर, रंग व आकार लेकर ही जन्म लेते हैं! अपने इस पुत्र में न तो आप का रूप है... न मेरा रंग या रूप है! न तो मेरा आकार है, न आप की प्रतिकृति है...। यह कैसे हुआ होगा?'
मैं आंखें मूंदकर सो रहा था। मुझे नींद नहीं आई थी। मैं माता-पिता का वार्तालाप सुन रहा था और उसे समझने की कोशिश कर रहा था। पिताजी ने कहा था तब-'देवी, तुम्हारी बात सही है। यह एक सर्वसाधारण नियम है कि संतान में माता-पिता के रूप और आकार उतरे... परंतु हर एक नियम का अपवाद होता है। कोई संतान ऐसी भी पैदा हो सकती है जिसमें माता-पिता के रूप... आकार न भी हो! अपना यह पुत्न गत जन्मों में बहुत घोर पाप करके अपने परिवार में आया है!'
मेरी माँ ने पूछा था : 'यह जीव अपने ही परिवार में क्यों पैदा हुआ? किसी निम्न स्तर के कुल में क्यों नहीं पैदा हुआ?'
पिताजी ने प्रत्युत्तर दिया था 'गत जन्म के इसके पापकार्यों में एक या अन्य रूप से हम भी हिस्सेदार रहे होंगे। इसलिए तो इस जन्म में इसके दुःख से हम भी दुःखी हो रहे हैं। भगवान ने-ईश्वर ने इस जीव को अपने ही घर में जन्म दिया। देवी, कुछ एक पुण्य-पाप के फल इसी जन्म में प्राप्त होते हैं! कुछ पुण्य-पाप अन्य जन्मों में अपना असर दिखाते हैं।'
कई बार अपने माता-पिता के मुंह से मैं ऐसी बातें सुनता रहा हूँ! मेरे पिता ज्ञानी हैं...। शास्त्रों का गहन ज्ञान उन्होंने प्राप्त किया है। मुझे उनके प्रति आदर है... प्रेम है... श्रद्धा है।
यदि कोई अज्ञानी और पापी माता-पिता होते तो मेरा जन्म होते ही... मेरा कुरूप शरीर देखते ही मुझे कचरे के ढेर में फिंकवा दिया होता! किसी जंगली जानवर का मैं शिकार हो गया होता! परंतु मेरा इतना कुछ पुण्य बचा था कि मुझे करुणामयी माँ मिली और ज्ञानी जैसे पिता मिले।
मेरी माँ ने कभी मेरा दिल नहीं दुःखाया है...। नगर के हजारों लोगों ने मेरा उपहास किया है... मुझे दुःख दिया है, पर मेरी वात्सल्यमयी माँ ने निरे प्यार से मुझे अपनी गोद में लेकर दया के आंसू ही गिराये हैं!
मैं जानता हूँ कि ऐसा कुरूप पुत्न किसी भी माँ को अच्छा नहीं लगता। किसी पिता को प्यारा नहीं लगता...। फिर भी ईश्वर की मेरे ऊपर इतनी दया है कि मेरे माता-पिता का पूरा प्यार मुझे मिला है। हाँ, मेरे कारण, मेरे ऊपर के स्नेह के कारण वे दोनों बहुत दुःखी हैं! मुझे खिलाए बगैर वे कभी खाना नहीं खाते! मुझे सुलाए बगैर वे नींद नहीं लेते ! मैंने उन्हें बहुत दुःखी किया है। अब कब तक उन्हें इस तरह दुःखी करता रहूँगा? जब तक मेरी जिन्दगी है... तब तक ये राजकुमार या इसके दोस्त मुझे छोड़नेवाले नहीं हैं। मेरी घोर कदर्थना करते ही रहेंगे। और इसके परिणामस्वरूप मेरे इन उपकारी माता-पिता को दुःख झेलना ही होगा।
नहीं... नहीं... मुझे यह अच्छा नहीं लगता! जब मैं मेरी प्यारी प्यारी माँ को आँसू बहाती हुई देखता हूँ... मेरा कलेजा फट सा जाता है। जब-जब गहरी उदासी के समुद्र में अपने पिताजी को डूबा हुआ देखता हूँ, तब मुझे बड़ी पीड़ा होती है। पर क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? मैं तो दुःखी होता ही हूँ। मेरे माता-पिता भी बेचारे मेरे लिए परेशान रहते हैं। मेरे कारण चिंतित रहते हैं।
कभी मुझे आत्महत्या करके मर जाने का विचार आ जाता है। कभी जंगल में दूर-दूर भाग जाने का मन होता है! कभी श्मशान में जाकर किसी सुलगती चिता में कूद कर जिन्दगी को समाप्त करने का मन होता है! कभी तो मुझे दुःख देनेवाले राजकुमार और उसके मित्रों को मार डालने के विचार आ जाते हैं। भयानक गुस्सा खौल उठता है भीतर में। पर कुछ भी कर नहीं सकता हूँ! क्योंकि वह राजा है... राजा का बेटा है। मैं प्रजा हूँ। वह श्रीमंत है... मैं गरीब-रंक हूँ! राजा के समक्ष रंक की औकात क्या?
· वह राजकुमार... राजपरिवार में क्यों पैदा हुआ?
· उस राजकुमार को... इतना खूबसूरत शरीर क्यों मिला?
· उस राजकुमार को रहने के लिए सुंदर महल क्यों मिला? पहनने के लिए ढेर सारे बढिया-बढिया कपड़े मिले हैं! और वह जो चाहे सो कर सकता है... ऐसी सत्ता क्यों मिली ?'
ऐसे सवाल मेरे दिमाग में अक्सर पैदा होते रहते थे। उनके जवाब मुझे मेरे पिता की बातों में से मिल जाते थे।
· जिसने पूर्वजन्म में धर्म किया हो, उसे इस जन्म में ऐसे सारे सुख मिलते हैं। ईश्वर उसे ढेर सारे सुख देता है।
· जो किसी भी छोटे-बड़े जीव को मारता नहीं है।
· जो कभी झूठ नहीं बोलता है।
· जो कभी चोरी नहीं करता है।
· जो सदाचारों का पालन करता है।
· जो लोभ लालच नहीं करते हैं।
· जो ईश्वर का प्रणिधान करते हैं।
· जो सत्पुरुष का समागम करते हैं।
· जो दुःखी जीवों के प्रति दया रखते हैं।
उसे ईश्वर अगले जन्म में सुख ही सुख देता है।
गुणसेन को ईश्वर ने सुख दिया है। उसने पूर्व जन्म में इस तरह का धर्म किया होगा, इसलिए ईश्वर ने उसे सुख ही सुख दिया है! मैं भी यदि इस जन्म में धर्म करूँ तो अगले जन्म में मुझे अवश्य ईश्वर सुख देगा! फिर कोई भी मेरा मजाक नहीं उड़ाएगा। मुझे दुःख नहीं देगा! बुरे लोग मेरा उत्पीड़न नहीं करेंगे।
परंतु इस तरह का धर्म इस नगर में रहकर तो मैं कर ही नहीं सकता! रोजाना सुबह होती है और कुमार के मित्र मुझे खिलौने की भांति उठा जाते हैं... और सारे दिन मुझे संत्रास देते हैं...। घोर वेदना से मैं तड़प-तड़प कर रह जाता हूँ...। ऐसे हालात में मैं धर्म कर भी कैसे सकता हूँ?
मुझे इस नगर को छोड़कर चले जाना चाहिए ! परंतु, मुझे मेरे माता-पिता कहीं भी जाने नहीं देंगे। यदि उन्हें कुछ भी कहे बगैर मैं चला जाऊँ तो मुझे हर पल प्यार करने वाले मेरे माता-पिता बेचारे दुःखी-दुःखी हो जाएंगे। मुझे भी उनकी याद तो सताएगी ही। क्या करूँ? नगर में रहता हूँ तो दुःख है, सब छोड़कर जाता हूँ तब भी सामने दुःख है। वास्तव में, यह पूरा संसार ही दुःखमय है!
नहीं... नहीं... मुझ से अब राजकुमार और उसके मित्रों का अत्याचार सहा नहीं जाता। कुछ भी हो, मुझे इस नगर से दूर-दूर चले जाना चाहिए...। माता-पिता को दुःख तो होगा... पर ज्यों-ज्यों समय गुजरेगा... त्यों-त्यों दुःख हल्का हो जाएगा। और फिर समय बीतने के साथ दुःख भी भुला जाएगा।
पर मैं क्या करूँ? कहाँ जाऊँगा मैं?
ईश्वर जहाँ ले जाएगा... वहाँ चल दूँगा। मुझे वैसे भी अब इस जिंदगी से तनिक भी लगाव नहीं है। जंगल में यदि कोई बाघ-शेर मेरा शिकार कर लेंगे... तब भी मुझे डर नहीं है। और चोर-लुटेरे मिल गये तो वे मेरा क्या लूट लेंगे? चला जाऊँगा कहीं भी! ईश्वर के राज्य में अंधेर तो नहीं है ना! कहीं पर भी ठौर ठिकाना मिल जाएगा!'
इस तरह रातभर विचारों की गलियों में भटकता हुआ अग्निशर्मा अंतिम प्रहर में सो गया।
· तीन दिन अग्निशर्मा के लिए अच्छे गुजरे।
· यज्ञदत्त और सोमदेवा को भी शांति मिली।
· ब्राह्मण-युवान और महाजन भी आश्वस्त हो गये।
· महाराज पूर्णचन्द्र भी निश्चिंत हो गये।
परंतु राजकुमार गुणसेन, तीन दिन में काफी अस्वस्थ, बेचैन और चंचल हो उठा था। महाजन के डर से, ब्राह्मण युवानों की हरदम की चौकसी से और मित्रों के असहकार के कारण गुणसेन अग्निशर्मा के साथ क्रूर खेल रच नहीं पाया था। वह उदास... निराश... और गुस्से से पागल हो उठा था।
तीसरे दिन शाम को युवानों ने अग्निशर्मा के इर्दगिर्द की सुरक्षा उठा ली थी। महाजन भी अपनी-अपनी प्रवृत्तियों में व्यस्त हो गये थे। महाराज पूर्णचन्द्र निश्चिंत होकर अपने राजकार्य में प्रवृत्त हो गये थे।
गुणसेन ने राजमहल के अपने खंड में मित्नों को बुलाकर गुप्त मंत्रणा की। निर्णय किया गयाः 'दूसरे दिन सबेरे जल्दी अंधेरे ही अंधेरे अग्निशर्मा को उठा लाना।'
चारों मित्नों को और तो कुछ कार्य था नहीं! बेबस होकर मजबूरी में तीन दिन तक घर में बैठे रहना पड़ा था। गुणसेन ने मित्रों को योजना समझा दी 'हमें अब उसे राजमार्ग पर घुमाना नहीं है। किसी को हवा तक न लगे इस तरह, अग्निशर्मा को रथ में डालकर, नगर से चार कोस दूर जो महल है, उस महल पर ले जाना और वहाँ उसके साथ खेलना ! शाम को अंधेरा हो तब नगर के बाहर ही जीर्ण देवालय के चबूतरे पर उसे रखकर, चारों मित्र अपने-अपने घर पर सुरक्षित पहुँच जाएं!
सूर्योदय से पूर्व अग्निशर्मा को लाने के लिए जहरीमल और शत्रुघ्न तय हुए। गुणसेन और कृष्णकांत रथ लेकर ब्राह्मण मुहल्ले के बाहर खड़े रहेंगे। अग्निशर्मा को रथ में डालकर रथ को जंगल की ओर भगा ले जाने का।'
किसी को जरा भी शंका न आये, उस ढंग से चारों मित्न अलग होकर अपने अपने स्थान को चल दिये।
दूसरे दिन तड़के ही जब सभी नगरजन मीठी नींद में सो रहे थे, तब जहरीमल और शत्रुघ्न यज्ञदत्त पुरोहित के घर पर पहुँच गये। दरवाजा खटखटाया। यज्ञदत्त ने दरवाजा खोले बगैर पूछा :
'कौन है?'
'हम अग्नि के मामा!' जहरीमल ने जवाब दिया। यज्ञदत्त ने कभी भी जहरीमल की आवाज सुनी नहीं थी। क्योंकि ज्यादातर अग्निशर्मा को लेने के लिए कृष्णकांत ही आता था।
यज्ञदत्त ने दरवाजा खोला।
शीघ्र ही वेग से जहरीमल घर में प्रविष्ट हुआ। शत्रुघ्न दरवाजे के पास खड़ा रहा। जहरीमल ने घर में घुसकर सोये हुए अग्निशर्मा को उठाया... यज्ञदत्त उसे रोके या कुछ कहे इससे पहले तो जहरीमल घर से बाहर निकल गया। शत्रुघ्न ने यज्ञदत्त को धमकी दी : 'अभी जरा भी हो-हल्ला किया तो तेरे बेटे को तू जिन्दा नहीं देखेगा। शाम को नगर के बाहरी मंदिर के चबूतरे पर से उसे ले आना।'
शत्रुघ्न दौड़ता हुआ रथ के पास पहुँच गया, रथ में बैठ गया। गुणसेन ने रथ को भगाया। चारों मित्न अपने मूल स्वरूप में खिल उठे थे।
जंगल में स्थित महल के द्वार पर रथ आकर खड़ा हुआ।
कुमार रथ में से नीचे उतरा और चाबी से ताला खोलकर दरवाजा खोल दिया। कृष्णकांत ने रथ को महल के विशाल मैदान में ले लिया। दरवाजा बंद करके भीतर से कुंडी लगा दी।
रथ को मैदान में रख दिया। घोड़ों को मैदान में खुले छोड़ दिये। चारों मित्र, अग्निशर्मा को लेकर महल के विशाल खंड में आये।
गुणसेन ने कहा : 'सबसे पहले हम दुग्धपान करें... और नाश्ते को न्याय दें। शत्रुघ्न, जा और रथ में से दूध और नाश्ते का डिब्बा ले आ।'
चारों मित्रों ने दूध पिया और नाश्ता किया। अग्निशर्मा को भी दूध दिया और मिठाई भी दी। पर अग्निशर्मा ने न तो दूध पिया... न ही मिठाई खाई...। आज वह पहली बार बोला :
'तुम मुझे रोजाना यमराज की तरह यातना देते हो...। बरसों से मैं वह दुःख सहता हूँ। आज इस जंगल में मेरे शरीर के टुकड़े कर-करके जानवरों को खिला दो...
चारों मित्र हंस पड़े। गुणसेन ने कहा 'तुझे यदि मार डालें... फिर हमारे साथ खेलेगा कौन? हम मजा किसका लूटेंगे?'
जहरीमल ने जहरीली आवाज में कहा 'हम तो तुझे खिला-पिला कर मोटा-ताजा रखेंगे... ताकि खेलने में तू थके नहीं! थोड़ा कुछ खा ले ! आज तो तुझे शिकारी कुत्तों के साथ लड़ाई करनी है...! खायेगा तो लड़ने की ताकत आयेगी! अन्यथा वह कुत्ता तेरा नाश्ता कर जायेगा...।'
'तब तो बहुत ही अच्छा! जिन्दगी का अंत आ जाए यह तो मांग ही रहा हूँ! कुत्ता ही क्यों? भूखे शेर को ही छोड़ दो ना मेरे ऊपर ?'
'अरे... ऐसा थोड़े ही होगा! हम किसी भी कीमत पर तुझे यों मरने नहीं देंगे। तू तो हमारा प्रिय खिलौना है! तेरे से तो हम यूँ बरसों से आनंद लूट रहे हैं! मजा ले रहे हैं!'
'मुझे खाना-पीना नहीं है। कहाँ है तुम्हारा शिकारी कुत्ता? छोड़ दो उसे मेरे ऊपर। मैं जा रहा हूँ मैदान में! तुम कुत्ते को लेकर चले आओ!'
अग्निशर्मा मैदान में गया।
गुणसेन महल के भीतरी खंड में बंधे हुए शिकारी कुत्ते को खोलकर उसे बाहर ले आया। लम्बी जंजीर उसके गले में बंधी थी। जंजीर के एक हिस्से पर बड़ी सी गोल कड़ी थी। उसे पकड़कर गुणसेन मैदान में आया। अग्निशर्मा मैदान के बीच में बैठ गया था। कुत्ते ने उस पर हमला कर दिया। अग्निशर्मा जमीन पर लुढ़क गया। कुत्ता उसके सीने पर चढ़ गया और उसके नुकीले दाँत अग्निशर्मा के पेट में घुस गये। अग्निशर्मा चित्कार कर उठा। गुणसेन और उसके दोस्त जोर-जोर से हंसने लगे। तालियाँ पीटने लगे। मुंह में से दांत निकालकर कुत्ता उसके पेट को फाड़ डालने के लिए लपका कि गुणसेन ने जंजीर खींची... कुत्ते को अग्निशर्मा से दूर कर दिया। अग्निशर्मा के पेट से खून की धारा बहने लगी।
कुत्ते की जंजीर कृष्णकांत ने अपने हाथ में ले ली। अग्निशर्मा दर्द से कराहता हुआ पेट के बल लेट गया था। कुत्ता उसकी पीठ पर चढ़ गया और पीठ को काटने लगा। अग्निशर्मा लोटने लगा। कुत्ते ने उसके चेहरे को काट लिया। अग्निशर्मा दहाड़ मार-मार कर रोने लगा। उसका शरीर खून से सन गया था। कृष्णकांत ने जंजीर खींच कर कुत्ते को अपने पास खींच लिया। अग्निशर्मा को वहीं पड़ा हुआ छोड़कर, चारों मित्र महल में गये। शत्रुघ्न ने कहा: 'यह ब्राह्मण का बच्चा मर तो नहीं जाएगा न? यदि मर गया तो हम चारों की खैर नहीं रहेगी... समझना !'
गुणसेन ने कहा: 'इतने में मर जाएगा क्या? देख ना, इतने दूर से भी उसकी चीखें सुनाई दे रही हैं! उस पट्टे में काफी ताकत है!'
'पर यदि शरीर से काफी खून बह गया तो मर जाने का डर है।' कृष्णकांत ने संदेह व्यक्त किया।
जहरीमल ने कहा: 'ठीक है, मैं उसका खून बहना बंद कर देता हूँ। मैं ऐसी जड़ी-बूटी (वनस्पति) को जानता हूँ। उसका रस घाव पर डालने से खून बहना बंद हो जाएगा।' जहरीमल महल का दरवाजा खोलकर जंगल में गया। वनस्पति लाकर... उसका रस निकालकर अग्निशर्मा के शरीर पर लगाया।
शत्रुघ्न ने कुछ सहमे सहमे अंदाज में कहा 'महाराज को इस बात का पता लगेगा... महाजन को भी मालूम तो होगा ही... और नगरवासी लोगों को भी सब मालूम होगा!'
'होने दो सबको खबर! क्या कर लेंगे वे अपना ?'
'शायद महाराज हमें देशनिकाला दे दें!'
'तो... मेरी माँ के द्वारा वह सजा माफ करवा दूंगा।'
'और महाराज ने क्षमा नहीं दी तो ?'
'तब का तब देखा जाएगा! अभी क्यों चिंता करता है? हम यहाँ मस्ती मनाने आये हैं, मौज उड़ाने आये हैं... चिंता में घुल-घुल कर परेशान होने के लिए नहीं!'
शत्रुघ्न मौन हो गया। पर उसके मन में डर तो छा ही गया था। कृष्णकांत भी बेचैन हो उठा था। अग्निशर्मा घोर पीड़ा से कराहता हुआ चीख रहा था :
'ओ ईश्वर, अब तो मुझे इस संत्रास से छुटकारा दिला दे।' यों रोते-कलपते हुए वह ईश्वर को प्रार्थना करता रहा।
कृष्ण पक्ष की अष्टमी का अंधेरा पृथ्वी पर साया बनकर लिपट रहा था। जंगल में स्थित महल में से अग्निशर्मा को लेकर रथ बाहर निकला और क्षितिप्रतिष्ठित नगर की ओर दौड़ने लगा।
नगर की सुरक्षा के लिए चौतरफ पत्थर का किला था। उस किले में, चारों दिशाओं की ओर चार द्वार थे। उत्तर दिशा के दरवाजे के बाहर यक्ष का एक जैन मंदिर था। रथ उस मंदिर के पास आकर खड़ा हुआ। जहरीमल रथ में से उतरा। उसने अंधकार में चारों ओर देखा...। जल्दी से रथ में से अग्निशर्मा को उठाया और मंदिर के चबूतरे पर लाकर सुला दिया। रथ में बैठकर रथ को नगर के भीतर दौड़ा दिया।
राजमहल से कुछ दूर निर्जन जगह पर रथ खड़ा हुआ। तीन मित्न उसमें से उतर गये। गुणसेन ने रथ को राजमहल के द्वार पर लाकर द्वारपाल को सौंप दिया, एवं स्वयं राजमहल के सोपान चढ़ने लगा।
उसका मन आज आनंदित था। बिना किसी रोक-टोक और विघ्न-विरोध के, आज का उसका खेल हुआ था। इसकी खुशी मनाता हुआ वह महारानी कुमुदिनी के महल में पहुँचा।
'वत्स, आज सबेरे से तेरे दर्शन ही नहीं हुए!' रानी ने कुमार के सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा।
'माँ, हम सब दोस्त आज सबेरे ही हमारा वह खिलौना लेकर अपने जंगल के महल पर गये थे। माँ, आज तो बड़ा मजा आया! शिकारी कुत्ते के द्वारा उसके साथ खेल किये !'
'मन में आये सो कर... पर बेटे, सबके बीच में कुछ भी नहीं करना।'
'आज तो किसी को कुछ भी पता नही लगा होगा'
'इसका मुझे पता नहीं, पर तेरे पिताजी ने आज खाना नहीं खाया है। चार दिन से वे मेरे साथ बोलते भी नहीं हैं। किसी गंभीर सोच में उलझे हुए प्रतीत होते हैं।'
'माँ, उन्हें भूख नहीं लगती होगी, मुझे तो इस समय जोरों की भूख लगी है। यहीं पर भोजन मंगवा ले... हम दोनों साथ ही भोजन करेंगे।'
रानी ने परिचारिका को भोजनखंड में भिजवाकर कुमार के लिए खाना मंगवा लिया। कुमार को भोजन करवाया। खुद ने भोजन नहीं किया। कुमार ने पूछा भी नहीं! भोजन करके कुमार ने, अग्निशर्मा के साथ खेलने को अपनी क्रूर तरकीबें बताई...। रानी चुपचाप सुनती रही। हालांकि कुमार की बातें उसे जरा भी अच्छी नहीं लगी। फिर भी उसने ममतावश कुमार को मौन इजाजत दे दी। कुमार को भरोसा हो गया कि 'मेरी माँ मेरे पक्ष में है, अब मुझे किसी का डर नहीं है!'
· कुमार कूदता हुआ... उछलता हुआ अपने कमरे में पहुँच गया।
· पुरोहित यज्ञदत्त, अपने पुत्न अग्निशर्मा को शकट में डालकर घर पर पहुँचा। घर के कमरे में अग्निशर्मा को सुलाकर उसने घर का दरवाजा भीतर से बंद किया। अग्निशर्मा के शरीर पर हुए घाव और खून के दाग देखकर यज्ञदत्त और सोमदेवा रो पड़े। अग्निशर्मा के खून से सने हुए और फटे हुए कपड़े देखकर 'आज उन शैतानों ने काफी जुल्म गुजारा लगता है।' यह बात समझ गये। गरम पानी से अग्निशर्मा को स्रान करवाया। घाव पर औषध लगाया। और स्वच्छ कपड़े पहनाये।
अग्निशर्मा ने 'आज मेरे पर शिकारी कुत्ते को छोड़ा गया... यह बात नहीं की। चूंकि वह माता-पिता को ज्यादा दुःखी करना नहीं चाहता था। यज्ञदत्त ने भी सुबह से लोगों से एक ही बात कही थी:
'अग्नि के मामा आकर अग्नि को ले गये हैं। रात को वापस उसे छोड़ जाएंगे।' इसलिए नगर में शांति थी।
सोमदेवा ने यज्ञदत्त से कहा 'आज तो उन नराधमों ने तीन दिन का इकट्ठा दुःख बरसा दिया है अग्नि पर। एक दिन वे लोग मेरे बेटे की जान लेकर ही सांस लेंगे। तुम आज की बात महाजन से करो।'
यज्ञदत्त ने कहा: 'मेरे मन में सुबह से ही कशमकश चल रही है। क्या करूँ?
यदि महाजन को जाकर बात करता हूँ तो बात महाराज तक जाएगी। महाराज कुमार को सजा करेंगे। इससे कुमार गुस्सा करेगा। रानी महाराज से नाराज हो जाएगी। राजमहल में क्लेश होगा। कुमार के राक्षसी दोस्त मिलकर रात में अपने घर को आग ही लगा दें... हमें जिन्दा ही जला डालें !'
अग्निशर्मा चुपचाप बिछौने में लेटा हुआ था। वह माता-पिता का वार्तालाप सुन रहा था।
सोमदेवा ने पूछा : 'तब फिर क्या करना?'
यज्ञदत्त ने कहा 'ईश्वर-इच्छा का सहारा लेना। ईश्वर को प्रार्थना करें कि राजकुमार की बुद्धि सुधर जाए और अग्नि पर कृपा उतरे।'
सोमदेवा खामोश हो गई। उसने अग्निशर्मा को बिछौने में बिठाया। और उसे भोजन करवाया।
भोजन करके अग्निशर्मा ने कहा: 'माँ, तू और पिताजी इस तरह दुःखी मत हो ! मेरे बांधे हुए पापकर्मों की सजा मुझे भुगतनी होगी। भुगते बिना उन कर्मों का नाश नहीं होगा। मैंने गत जन्म में धर्म नहीं किया है... पाप ही पाप किया है। इसलिए फिर मुझे सुख कहाँ से मिलेगा ?
पिताजी, आप मुझे धर्मशास्त्र की बातें सुनाइये-समझाइये। धर्मशास्त्र की बातें सुनकर मुझे शांति मिलेगी। समता मिलेगी। दिल को हिम्मत मिलेगी।' अग्निशर्मा की समझदारी भरी बातें सुनकर पुरोहित रो पड़े।
'वत्स, तेरी बात सच है। घोर दुःख में भी शांति और समता बनाए रखने का यही एक सही उपाय है। फिर भी बेटे, तेरा दुःख हमारा दुःख बन गया है। तेरी पीड़ा हमारी अपनी पीड़ा बन गई है। तेरा दुःख दूर करने की चिंता हमें हमेशा सताती रहती है।'
'मत करो चिंता, पिताजी!'
'वत्स, चिंता हम करते नहीं है... हो जाती है चिंता! यह हृदय है ही ऐसा! मेरे से ज्यादा चिंता तो तेरी माँ को बनी रहती है!'
'मैं चिंता करती नहीं हूँ...। चिंता हो ही जाती है! बेटा दुःख की आग में झुलसता हो... फिर चिंता नहीं होगी क्या?' सोमदेवा की आंखो से बरसाती नदी की तरह आँसू बहते रहे।
कुछ भी हो, आज यज्ञदत्त और सोमदेवा को नींद आ गई। अग्निशर्मा को कुछ-कुछ पीड़ा हो रही थी। नींद आ नहीं रही थी। उसने मन ही मन 'गृहत्याग' का संकल्प कर लिया था। 'मैं यह घर और यह नगर छोड़कर दूर-दूर चला जाऊँगा... किसी अनजान इलाके में चला जाऊँगा... यही मेरे इन दुःखों से छूटने का एकमात्र उपाय है।'
वह खड़ा हुआ।
गहरी नींद में सोये माता-पिता को भावपूर्वक प्रणाम किया। जरा भी आवाज न हो, उस ढंग से दरवाजे की कुंडी खोलकर वह बाहर निकल गया। सम्हाल कर धीरे से दरवाजा बंद किया और आधी रात के काले स्याह अंधेरे में वह गायब हो गया।
ब्राह्मण मुहल्ले के बीचोबीच खड़े पीपल के पेड़ पर बैठे हुए उल्लु ने घू... घू... घू... की आवाज की और खामोश वातावरण एक पल के लिए दहल उठा।
Chapter -3 का सारांश (Summary):
"शैतानियत की हद"
मुख्य बिंदु:
अग्निशर्मा का आत्ममंथन और वैराग्य:
समाज से मिली पीड़ा और उपेक्षा ने अग्निशर्मा को वैराग्य की ओर अग्रसर कर दिया। वह आत्मग्लानि, आत्मचिंतन और अपने पूर्व जन्म के पापों को कारण मानते हुए दुःख को स्वीकार करता है।
माता-पिता का प्रेम:
यद्यपि अग्निशर्मा कुरूप है, फिर भी उसके माता-पिता—विशेषतता: उसकी माँ—उसे भरपूर प्रेम देती हैं। यज्ञदत्त, जो एक ज्ञानी ब्राह्मण हैं, बेटे को आध्यात्मिक दृष्टिकोण से समझाते हैं।
राजकुमार गुणसेन की हैवानियत:
तीन दिनों तक शांत रहने के बाद, गुणसेन पुनः अपने राक्षसी स्वभाव में लौट आता है। वह अग्निशर्मा को छल से अगवा करता है और एक सुनसान जंगल के महल में ले जाकर उस पर शिकारी कुत्ते से हमला करवाता है।
नरकीय पीड़ा:
अग्निशर्मा पर अत्याचार की सीमा पार कर दी जाती है। वह खून से लथपथ होकर बेहोशी की स्थिति में पहुँच जाता है। परंतु वह फिर भी माता-पिता को और अधिक दुःखी नहीं करना चाहता।
पलायन और संकल्प:
अग्निशर्मा इस अमानवीय व्यवहार से पूरी तरह टूट जाता है और अंततः रात के अंधेरे में ‘गृहत्याग’ कर देता है। वह अपने पूर्वजन्म के कर्मों का फल मानते हुए जंगल या अनजान जगह में तपस्वी जीवन जीने का मन बना लेता है।
NEXT PART - पश्चात्ताप
क्या अग्निशर्मा सुरक्षित स्थान पर पहुँच पाएगा या कोई और संकट उसका इंतज़ार कर रहा है?
जब अग्निशर्मा घर से चला गया, तो माता-पिता की क्या प्रतिक्रिया होगी?
क्या नगर में उसकी गुमशुदगी से हड़कंप मच जाएगा?
क्या वास्तव में राजकुमार गुणसेन को ही आत्मग्लानि या पश्चात्ताप होगा या उनके पिता महाराज को?
क्या यह दुःख किसी बड़े परिवर्तन की शुरुआत है?
क्या यही से शुरुआत होगी समरादित्य बनने की ?