अध्याय 2: भूतकाल की परछाइयाँ
(स्थान: शिवधाम गुरुकुल – मध्य रात्रि)
रात्रि के गहन मौन में जब सब सो रहे थे, तब भी एक आत्मा जाग रही थी। शिवधाम गुरुकुल की पश्चिम दिशा में स्थित छोटा ध्यान-कक्ष, जिसमें शायद ही कोई जाता था, आज विशेष कंपन से भरा था।
आरव वर्धन, अपनी चटाई पर पद्मासन में बैठा था। उसकी पलकों के नीचे चैतन्य था, और ह्रदय में एक तूफान।
“मैं वापस आ चुका हूँ… पर यह संसार अब वैसा नहीं रहा।”
पाँच हज़ार वर्षों का बोझ उसकी चेतना में कहीं शांत पड़ा था, लेकिन हर नाड़ी में वह इतिहास साँस ले रहा था।
उसे सब याद था।
आखिरी युद्ध में कौशल की आँखों में झलकता विश्वासघात,
उसकी सबसे प्रिय शिष्या "त्रिलोक्या" का बलिदान,
और वह अंतिम क्षण जब समय रुक गया था।
आज उसी काल के साये फिर से जीवित हो रहे थे।
आरव ने धीरे-धीरे अपनी साँसों को गिनना शुरू किया — प्राचीन तप विद्या “त्रिकाल क्रिया” का अभ्यास।
1... 2... 3... 4...
हर साँस के साथ एक नया दृश्य उसके मन में उभरता गया।
काले घोड़े पर सवार वह योद्धा...
आकाश से उतरती रक्तवर्णी ज्वालाएँ...
एक सिंहासन, जो लहू से ढका था...
"कौशल..." वह बुदबुदाया।
वह अभी भी जीवित हो सकता है।
या... कहीं न कहीं, वह भी पुनर्जन्म ले चुका हो।
सुबह के समय गुरुकुल की रसोई में गुनगुनी धूप पड़ रही थी। बाकी शिष्य अपने-अपने कार्यों में व्यस्त थे, लेकिन आरव की दृष्टि माया को खोज रही थी।
वह कन्या — जिसकी आँखों में चिरकालिक पहचान थी।
वह उसे पश्चिमी कक्ष की ओर जाते देख कर पीछे-पीछे गया।
“माया,” उसने धीमे स्वर में पुकारा।
वह रुकी। मुड़ी नहीं।
“तुम्हारी आँखों में समय की चाल झलकती है,” आरव बोला।
अब वह धीरे-धीरे उसकी ओर मुड़ी। उसके चेहरे पर कोई स्पष्ट भाव नहीं था।
"तुम भी… वैसा ही अनुभव करते हो?" उसने धीरे से पूछा।
"तुम जानती हो मैं कौन हूँ?"
"नहीं पूरी तरह… लेकिन मेरी आत्मा जानती है, हमने कभी एक साथ एक महासमर देखा था।"
आरव का दिल एक क्षण को थम गया।
“त्रिलोक्या…?”
"मैं माया हूँ, आरव शर्मा। बाकी तुम्हें स्वयं समझना होगा।"
वह आगे बढ़ गई, जैसे अतीत को छूकर वह वर्तमान में लौट आई हो।
आरव के आने के बाद गुरुकुल के वातावरण में कुछ अजीब सा परिवर्तन होने लगा था।
फूल बिना कारण मुरझा रहे थे।
साधना-स्थलों पर विद्युत सी कंपन हो रही थी।
और सबसे अधिक, गुरु अच्युतानंद अब आरव को विशेष दृष्टि से देखने लगे थे — मानो कुछ पहचानने की कोशिश कर रहे हों।
एक दिन उन्होंने आरव को अपने कक्ष में बुलाया।
"आरव, तुम्हारी साधना बहुत तीव्र है। तुम्हारा ध्यान — वैसा नहीं जैसा अन्य बालकों का होता है।"
आरव चुप रहा।
"क्या तुमने कभी किसी अन्य जीवन का स्वप्न देखा है?"
"मैं हर रात देखता हूँ," आरव ने गंभीरता से कहा।
गुरुजी कुछ पल मौन रहे, फिर बोले, "क्या तुम जानते हो कि यहाँ आने से कुछ ही दिन पूर्व, नागकुल की सीमाओं से एक भविष्यवाणी आई थी?"
"कैसी?"
"कि प्राचीन सम्राट पुनर्जन्म लेकर धरती पर उतर चुका है… और वह धर्म व अधर्म दोनों को चुनौति देगा।"
आरव के होंठों पर एक रहस्यमयी मुस्कान आई।
"शायद यह समय… फिर से शुरू हो गया है।"
गुरुकुल के भीतर एक परंपरा थी — हर पूर्णिमा को साधकों की प्रथम आत्म-परीक्षा होती थी।
उन्हें "शून्य-संवेदना कक्ष" में प्रवेश करना होता था — एक अंधकारमय कक्ष, जहाँ आत्मा को ही आत्मा पर प्रश्न करना होता था।
“कौन हो तुम?”
“क्या है तुम्हारा भय?”
“क्या तुम अपने भीतर की छाया से भिड़ सकते हो?”
आज आरव को उस कक्ष में भेजा गया।
वह भीतर गया — और द्वार बंद हो गया।
आरव ने आँखें बंद कीं।
और तभी —
एक स्वर गूँजा।
“क्यों लौटे हो?”
आरव ने उत्तर नहीं दिया।
“तू सम्राट नहीं रहा… अब तू एक बालक है। न तेरे पास सेना है, न धन, न राज। तू अकेला है।”
आरव ने धीरे से कहा — “मेरे पास अब अनुभव है… और वह सत्य जो तुम्हारे जैसे प्रलोभनों से मुक्त है।”
“और अगर मैं कहूँ कि त्रिलोक्या अभी भी जीवित है?”
उसका ह्रदय काँप गया।
"झूठ।"
"वह अब कौशल की पत्नी है..."
आरव ने आँखें खोल दीं। उसके चारों ओर कंपन हुआ। हवा स्थिर हो गई। अंधकार पीछे हट गया।
"तुम मेरी स्मृतियाँ तो देख सकते हो… पर मेरे भीतर की ज्वाला नहीं।"
कक्ष एक बार फिर शांत हो गया।
कुछ क्षण बाद, द्वार खुला।
गुरुजी ने आश्चर्य से देखा — आरव का चेहरा शांत था। मगर आँखों में वो ज्वाला थी जो केवल सत्य से टकराने के बाद पैदा होती है
उसी रात, एक रहस्यमयी पंक्ति आरव के कक्ष की दीवार पर उभरी:
“वह जाग रही है… काल अब स्थिर नहीं रहा।”
उसने दीवार को स्पर्श किया। एक कंपन उसके हाथों से होकर आत्मा तक गया।
"शायद माया ही नहीं... और भी कोई है जो जाग रहा है।
भोर होते ही गुरुजी ने घोषणा की:
“अगले सप्ताह, हम गुरुकुल से बाहर यात्रा करेंगे। नागकुल की रजकुमारी स्वयं गुरुकुल आएँगी, एक दैवीय सन्धि हेतु। इस अवसर पर, एक यज्ञ-कर्म और मंत्र युद्ध भी आयोजित किया जाएगा।”
आरव की आँखों में चमक आई।
"नागकुल... यानी रजनीशा।"
शायद, अगले चरण की यात्रा शुरू हो चुकी थी।
अध्याय 2 समाप्त।