स्थान: शिवधाम गुरुकुल – सप्तप्रांगण, यज्ञशाला का निर्माणस्थल
समय: आरव के आगमन के तीसरे सप्ताह की प्रातः
शिवधाम की पूर्व दिशा में, जहाँ सात महाप्रांगणों में से सप्तप्रांगण स्थित था, वहीं अगले सप्तदिवसीय यज्ञ हेतु निर्माण कार्य आरंभ हो चुका था। यह स्थान, जहाँ पहले केवल वृद्ध साधक ही साधना के लिए आते थे, अब एक आयोजन का केंद्र बनने जा रहा था।
शांत आकाश के नीचे पत्थरों को तराशते यंत्राधारी शिल्पी, मंत्रों का उच्चारण करते ऋषिपुत्र, और उस समूचे आयोजन के बीच में खड़ा — आरव वर्धन।
उसकी आँखें इस समस्त व्यवस्था को इस प्रकार देख रही थीं, जैसे वह केवल एक किशोर नहीं, एक दृष्टा हो… जो सब देखता है, परंतु कुछ कहता नहीं।
"कभी ऐसा आयोजन मेरे शासन में हुआ करता था…" उसने अपने मन में सोचा।
लेकिन अब वह पुनः एक विद्यार्थी था। एक बालक। वह जो पिछले युग का सम्राट था, अब उसे फिर से शुरू से आरंभ करना था।
गुरु वसिष्ठ, जो कि शिवधाम गुरुकुल में वेद-कर्म और आभ्यंतर योग के मुख्याचार्य थे, धीरे-धीरे आरव के पास आए।
“आरव पुत्र,” उन्होंने कहा, “तुम यहाँ रुक क्यों गए? तुम्हें तो वायु-कुंड की दिशा में भेजा गया था।”
आरव ने सिर झुकाया, “गुरुवर, मैं उस पत्थर को देख रहा था… वह साधारण नहीं है।”
वसिष्ठ मुस्कराए। “तुम्हारी दृष्टि गहराई में जाती है, यह अच्छा है। किंतु प्रत्येक गहराई में उतरने से पहले, तुम्हें सतह की रेखाएँ समझनी होंगी।”
“यदि रेखाएँ टूटी हों, गुरुवर?”
“तो उन्हें जोड़ना ही साधना है, पुत्र।”
वे कुछ पल चुप रहे, फिर कहा, “शाम को मेरे पास आना, एक विशेष ग्रंथ दिखाना है तुम्हें।”
उसी समय, गुरुकुल के उत्तर-पूर्वी कक्षों में माया शिला नामक साधिका अपने ध्यान-कक्ष में बैठी थी। उसका ललाट श्वेत तिलक से युक्त था, और उसके चारों ओर जलते दीपकों की लौ स्थिर थी।
उसके सामने रखी ताम्र-पट्टिका पर आरव का चित्र उकेरा गया था — एक रहस्यमयी तकनीक जिससे किसी व्यक्ति के आत्मिक विक्षोभ को पढ़ा जा सकता था।
चित्र की रेखाएँ कंपायमान थीं।
"यह असंभव है… उसकी आत्मा तो स्थिर होनी चाहिए थी।"
उसने तिलक को अपने ललाट से मिटाया, और धीरे से बुदबुदाई:
"तुम सच में वही हो, ना? वही… जिसके लिए मैं युगों से तप कर रही हूँ?"
सूर्य अस्त हो चुका था। गुरुकुल की भूमि पर चंद्रमा की शीतल रश्मियाँ बिखरने लगी थीं। ऐसे समय में, जब अधिकांश शिष्य अपने ध्यान-कक्षों में चले जाते हैं, आरव धीरे-धीरे गुरु वसिष्ठ के निजी कक्ष की ओर चला।
वह स्थान गुरुकुल के मुख्य प्रांगण से कुछ दूर स्थित था — जहाँ केवल वयोवृद्ध आचार्य रहते थे, और जहाँ जाने की अनुमति केवल विशेष शिष्यों को होती थी।
पत्थरों की दीवारों के बीच, धूप और गंध-धूनी की मिश्रित सुगंध वातावरण को गंभीर बनाती थी। द्वार खुला था।
“आ गया तू,” वसिष्ठ की भारी आवाज आई।
आरव ने प्रणाम किया और चुपचाप भीतर बैठ गया।
वसिष्ठ ने एक मोटा ग्रंथ उसके सामने रखा — “प्राचीन चैतन्य विज्ञान”।
“यह ग्रंथ केवल उन्हें दिखाया जाता है, जिनकी आत्मा जागने के कगार पर हो। तुम ऐसे ही प्रतीत होते हो, आरव। परंतु... मैं अभी भी नहीं जानता कि तुम क्या हो।”
आरव ने ग्रंथ के पहले पन्ने को स्पर्श किया।
जैसे ही उसकी अंगुलियाँ उस शिलालेख-सरीखे पन्ने पर गईं, एक हल्का कंपन उसकी हथेली से होकर शरीर में समा गया।
“शिव के समान शांत… परंतु यम के समान भयानक। यह तो वही ऊर्जा है…”, वसिष्ठ के मन में कौंधा।
“क्या आप जानते हैं, गुरुवर,” आरव ने कहा, “कभी-कभी आत्मा समय से भी प्राचीन हो जाती है। देह नया होता है… पर चेतना, वह काल से परे चलती है।”
वसिष्ठ कुछ क्षण मौन रहे।
“यह वाक्य किसी बालक का नहीं हो सकता,” उन्होंने धीरे से उत्तर दिया।
जैसे-जैसे आरव ग्रंथ पढ़ता गया, कुछ चित्र उभरने लगे —
एक युद्धभूमि जहाँ वह एक काले कवच में खड़ा था
त्रिशूल उठाए एक स्त्री… जिसका चेहरा धुँधला था
और सिंहासन पर बैठा एक व्यक्ति, जिसकी आँखें रक्तवर्णी थीं… कौशल।
“ये चित्र क्या मेरे अतीत के हैं, या कोई भ्रांति?”
"या फिर… कोई मुझे याद दिला रहा है?"
उसने ग्रंथ बंद किया।
“गुरुवर,” आरव ने गंभीर स्वर में पूछा, “क्या कोई ऐसा है, जो मन से किसी अन्य को पूर्व जन्मों की अनुभूतियाँ भेज सकता है?”
वसिष्ठ ने उसकी ओर गहराई से देखा।
“हाँ… एक साधिका थी… जिसका नाम माया था।
दूसरी ओर, माया अभी भी उसी ध्यान-कक्ष में बैठी थी, जहाँ दीपक अब बुझने लगे थे।
उसके सामने बैठा था एक त्रिकोणमंत्र-स्फटिक — एक दैवीय रत्न, जो किसी की आत्मिक ऊर्जा को पकड़ सकता है।
उसमें आरव की छवि स्पष्ट दिख रही थी — परंतु यह कोई सामान्य छवि नहीं थी।
उसमें आरव के साथ एक स्त्री भी खड़ी थी — चंद्रकला के आभामंडल में लिपटी, केशों में नागिनी की आकृति समेटे।
"त्रिलोक्या…?"
माया की साँसें रुक गईं।
"यदि वह जाग रही है… तो मुझे आरव से पहले उस तक पहुँचना होगा।"
सुबह होते ही गुरुकुल में एक विशेष घोषणा हुई:
“नागकुल की रजकुमारी — रजनीशा नागेंद्र — कल प्रातः शिवधाम में प्रवेश करेंगी। सभी वरिष्ठ शिष्य, मंत्रद्वार पर स्वागत हेतु उपस्थित रहेंगे।”
गुरुकुल में खलबली मच गई।
नागकुल — जो उत्तर भारत के नागवंश से जुड़ा था, वहाँ से कोई शिष्या भेजना दुर्लभ बात थी। और जब भेजा गया हो — वह रजनीशा जैसी हो — तो यह केवल साधना नहीं, एक राजनीतिक संकेत था।
आरव, जो अब तक गुरुकुल में शांत था, अचानक जान गया —
"खेल शुरू हो चुका है।"
उस रात पहली बार माया ने स्वयं आरव से संपर्क किया।
गुरुकुल की झील के पास, चंद्रमा की रोशनी में दो आकृतियाँ आमने-सामने खड़ी थीं।
“क्यों बुलाया?” आरव ने पूछा।
“तुम्हारे भीतर कुछ है, जो मेरे प्रश्नों से परे है,” माया ने कहा।
“या शायद तुम्हारे उत्तरों से परे…”
कुछ क्षण दोनों मौन रहे।
“क्या तुम्हें कभी लगा, जैसे तुमने इस जीवन को पहले जिया है?” माया की आवाज धीमी थी।
आरव ने उत्तर नहीं दिया। पर उसकी आँखें झील की जलधारा में कुछ तलाश रही थीं।
“अगर मैं कहूँ… कि हम पहले एक साथ थे? एक संग्राम में… एक महायुद्ध में?”
आरव ने उसकी आँखों में देखा। पहली बार, लंबे समय बाद, किसी ने उसकी आत्मा को इतनी गहराई से देखा था।
“क्या तुम त्रिलोक्या हो?”
माया की आँखें काँप गईं।
"नहीं… पर शायद मैं उसकी छाया हूँ।"
गुरुकुल के उस भाग में, जहाँ वायुप्रवेश द्वार था — वहीँ से रजनीशा नागेंद्र के आने की सूचना पूरे परिसर में फैल चुकी थी। शिष्यगण, आचार्यगण और कुछ विशेष अतिथि अब एकत्रित हो रहे थे।
यह कोई सामान्य विद्यार्थी का आगमन नहीं था। यह था — एक वंश का प्रतिनिधित्व।
नागकुल की रजकुमारी। एक ऐसी कन्या, जो रक्त में विष लेकर जन्मी थी — और फिर भी दिव्यता की साधिका बनी।
गाड़ी नहीं, रथ आया था। वह रथ लकड़ी और नागमणि से निर्मित था, जिसे खींच रहे थे — चार सर्पनुमा रथयंत्र, जिनकी आँखों में नीला आभा थी।
रथ से उतरी कन्या ने जैसे ही भूमि को स्पर्श किया, वहाँ उपस्थित वायु रुक गई।
उसकी ऊँचाई मध्यम थी, पर उसकी चाल में जो गरिमा थी, वह केवल किसी रानी में ही होती है। काले वस्त्र, हरे मणि से जड़ी कटि-बंध, और आँखें — जो सीधे किसी की आत्मा को पढ़ सकती थीं।
गुरु वसिष्ठ ने आगे बढ़कर उसका स्वागत किया, “स्वागत है, नागेंद्र वंश की रजकुमारी। शिवधाम तुम्हें अपना शरण देता है।”
रजनीशा ने धीमे स्वर में कहा, “मैं शरण नहीं माँगती, गुरुवर। मैं यहाँ सीखने नहीं, स्मरण करने आई हूँ।”
जब माया शिला को बताया गया कि एक और विशेष साधिका आ चुकी है, तो वह सामान्य नहीं रही।
वह सीधी गंधर्वकक्ष की ओर बढ़ी, जहाँ रजनीशा को ठहराया गया था।
“रजनीशा नागेंद्र?” माया ने कहा, द्वार पर रुकते हुए।
रजनीशा ने बिना देखे कहा, “तुम वही हो ना… जो भविष्य को देखने का दावा करती हो?”
माया भीतर आई। दोनों आमने-सामने।
“भविष्य मैं नहीं देखती,” माया ने उत्तर दिया, “मैं याद करती हूँ… उस जीवन को, जो हम सभी भूल चुके हैं।”
रजनीशा मुस्कराई — “तो तुम भी उन्हीं में से हो। पूर्वजन्म के स्वप्नों में जीने वाले साधक।”
“कभी-कभी स्वप्न ही सत्य होते हैं,” माया बोली, “और आरव?”
यह नाम सुनते ही रजनीशा की आँखें जरा तेज़ हुईं।
“वो… सिर्फ एक साधक है अभी।”
“नहीं,” माया बोली, “वो बहुत कुछ है। शायद… हम दोनों से भी आगे।”
उधर, वसिष्ठ ने आरव को अगले दिन की घोषणा सुनाई:
“तुम्हें ‘शिवशिला परीक्षा’ देनी होगी।”
आरव चौंका — “इतनी शीघ्र?”
“यह आदेश मेरा नहीं… पुरातन परंपरा का है,” वसिष्ठ बोले।
शिवशिला परीक्षा वो थी, जहाँ किसी साधक को एक शिवलिंग के ऊपर स्थित विशाल काले प्रस्तर पर ध्यानमग्न होकर बैठना होता था — और उस शिला के भीतर की ऊर्जा से सामना करना होता था।
कई बार साधक पागल हो जाते थे… कई बार मृत्यु भी हो जाती थी।
“क्या यह परीक्षा सबको दी जाती है?” आरव ने पूछा।
वसिष्ठ ने गंभीर स्वर में कहा — “नहीं… केवल उन्हें, जिनकी आत्मा में कोई पिछला द्वार खुल रहा हो।”
उस रात, माया झील किनारे अकेले बैठी रही। वह जानती थी — शिवशिला परीक्षा केवल शरीर की नहीं, आत्मा की परीक्षा थी।
यदि आरव सच में कालचक्र सम्राट है…
यदि उसके भीतर युद्धों का भार अभी भी जीवित है…
तो वह परीक्षा में क्या देखेगा?
"तुम याद करोगे, आरव," वह बुदबुदाई, "तुम मुझे याद करोगे या… उसे?"
रजनीशा अपने कक्ष में एक पुराने ताम्रपत्र को देख रही थी — उसपर उकेरा था सर्प की कुंडली और बीच में एक त्रिशूल।
“यदि वह वही है… तो मेरे कुल का ऋण है उसपर। परंतु अगर नहीं…?”
वह उठी। “कल मैं स्वयं देखूँगी, वह आरव कौन है।”
शिवशिला: चेतना की अग्निपरीक्षा
शिवधाम के दक्षिणी छोर पर स्थित थी शिवशिला — एक विशाल काले प्रस्तर की शिला, जिसके नीचे शिवलिंग था और ऊपर, खुले आकाश की ओर झुकी हुई सी एक गुम्फित चोटी।
यह स्थान वर्षों से मौन था — यहाँ साधकों को अकेले भेजा जाता था, जहाँ उन्हें अपने भीतर के सत्य से सामना करना होता था।
आरव को वहाँ संध्या वेला में लाया गया।
गुरु वसिष्ठ ने उसे अंतिम निर्देश दिए, “यहाँ तुम न गुरुकुल के शिष्य हो… न कोई राजवंशी। यहाँ तुम केवल एक चेतना हो। तुम्हारा शरीर एक खोल है… और आत्मा को उसी खोल से बाहर आकर स्वयं को देखना होगा।”
आरव ने मौन सहमति में सिर झुकाया और शिला पर बैठ गया।
जैसे ही उसने ध्यानस्थ मुद्रा ली और आँखें मूँदीं, एक विचित्र कंपन पूरे वातावरण में फैल गया।
वह कंपन धीरे-धीरे उसके शरीर से भीतर प्रवेश करने लगा — पहले रीढ़ में, फिर हृदय में, और अंत में… उसकी मस्तिष्क-चेतना में।
तब… दृश्य बदलने लगे।
सामने अब न शिवधाम था, न गुरुकुल…
बल्कि एक युद्धक्षेत्र था — धधकती रेत, राख में बदल चुके महल, और आकाश में उड़ते हुए रक्त-पतंगे।
एक सिंहासन टूटा पड़ा था… और उसके सामने, स्वयं आरव खड़ा था — पर उस रूप में नहीं… बल्कि एक काले कवचधारी, लाल नेत्रों वाले योद्धा के रूप में।
“काल-सम्राट।”
एक स्त्री की आवाज गूँजी — शांत, पर गूढ़।
वह स्त्री धीरे-धीरे राख से बनी सी आकृति में सामने आई — उसके वस्त्र पूर्ण श्वेत, और नेत्र गहरे नील।
“तुमने वादा किया था… कि अंतिम युद्ध के बाद तुम लौटोगे। क्या वह सब एक छल था?”
आरव ने कुछ नहीं कहा। उस स्वर से वह थर्रा गया था।
“तुमने मुझे त्याग दिया… जब मैं तुम्हारे गर्भ में तुम्हारे पुत्र को लेकर मृत्यु के द्वार पर खड़ी थी।”
अब आरव का मन धधकने लगा — यह कौन है?
“मैं तुम्हारी मालिनी थी… और अब मैं काल-शाप बन चुकी हूँ।”
उस क्षण, शिवधाम की दोनों स्त्रियाँ — माया और रजनीशा — अपने-अपने स्थानों पर ध्यानमग्न थीं।
दोनों ने एक साथ, बिना कोई संवाद किए, वही कंपन महसूस किया।
माया की आँखें फट गईं — “नहीं… ये कंपन तो मालिनी ऊर्जा है! वो स्त्री… जाग गई है!”
रजनीशा ने अंदर से दर्पण की ओर देखा, जिसमें आरव की छवि धुँधली थी — अब उसमें केवल अंधकार था।
“उसके भीतर कोई और शक्ति जाग गई है। क्या मैं बहुत देर कर चुकी?”
शिवशिला पर आरव अभी भी बैठा था, पर भीतर वह एक अलग युग में था।
उसने उस स्त्री — मालिनी — की आँखों में देखा। वह घृणा और प्रेम का एक अजीब संगम था।
“तुम्हारे कारण मैं पुनर्जन्म नहीं पा सकी… तुम्हारे कारण मैं काल में फँसी रही। और अब… जब तुम पुनः जन्मे हो, मैं भी मुक्त हो सकती हूँ।”
“मुक्त?” आरव की चेतना ने पूछा।
“हाँ… पर केवल तब, जब तुम मेरे साथ पुनः विवाह करोगे — आत्मा का बंधन। नहीं तो तुम्हारा कालचक्र अधूरा रहेगा।”
अचानक, आरव की चेतना को झटका लगा।
उसने पाया कि वह फिर से शिवशिला पर है… पर अब उसका शरीर थरथरा रहा था, शिला के चारों ओर धुआँ फैल गया था।
गुरु वसिष्ठ और अन्य आचार्य दौड़ते हुए आए — शिला से ऐसी ऊर्जा कभी नहीं निकली थी।
आरव ने आँखें खोलीं — पर अब उसकी आँखें हल्के रूप से चमक रही थीं।
“मैं… मैं कौन हूँ?” उसने खुद से पूछा।
अध्याय का समापन: तीन स्त्रियाँ, एक सम्राट
माया — जो अब भय और आशा दोनों में डूबी थी — सोच रही थी:
“क्या ये वही आरव है जिससे मैंने युगों पहले बंधन बाँधा था?”
रजनीशा — जिसने पहली बार आरव की ऊर्जा को महसूस किया — अपने आप से कह रही थी:
“यदि वह वही सम्राट है… तो नागकुल का ऋण चुकाना होगा। चाहे वो… विवाह हो या युद्ध।”
और कहीं, काल की दरारों के पार, मालिनी मुस्कराई —
“तुम लौटे हो… और अब मैं तुम्हें फिर से बाँधूँगी। चाहे युगों लगें… सम्राट।”
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[अध्याय 3 समाप्त]