Goutam Buddh ki Prerak Kahaaniya - 2 in Hindi Short Stories by Amit Kumar books and stories PDF | गौतम बुद्ध की प्रेरक कहानियां - भाग 2

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गौतम बुद्ध की प्रेरक कहानियां - भाग 2

गौतम बुद्ध का नामकरण

असित ऋषि का आशीर्वाद और वक्तव्य सुनकर राजा शुद्धोधन को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने बहुत सा धन शिशु के ऊपर न्योछावर करके निर्धनों में वितरित कर दिया। बड़े हर्ष और प्रसन्नता के वातावरण में शिशु के नामकरण संस्कार का समारोह आयोजित किया गया। शिशु राजकुमार के लिए 'सिद्धार्थ' नाम उपयुक्त माना गया।

        जब से सिद्धार्थ का जन्म हुआ था, राजमहल के वातावरण में एक अनोखी सी प्रसन्नता का भाव समाहित था। चारों ओर जैसे शिशु सिद्धार्थ का स्पर्श कर मंद-सुगंध समीर के झोंके राजमहल में अठखेलियाँ कर रहे थे।

        काल की गति बड़ी बलवान होती है और कोई इसे सरलता से नहीं समझ सकता। राजमहल में प्रसन्नता की बयारें बहाकर संभवतः काल कोई विडंबना रच रहा था, तभी तो राजमहल की प्रसन्नता उसे फूटी आँख न सुहा रही थी।

        कपिलवस्तु के राजमहल में अभी प्रसन्नता और हर्ष का समारोह पूर्ण भी न हुआ था कि काल की गति रुक गई।

         शिशु सिद्धार्थ की माता रानी महामाया की तबीयत बिगड़ने लगी। रानी महामाया ने शिशु सिद्धार्थ को रानी प्रजावती की गोद में डालते हुए कहा, "बहन! संभवतः अब मैं न बचूँगी।"

          "नहीं दीदी। ऐसा न कहिए।" रानी प्रजावती विलाप करते हुए बोली।"प्रजा, मेरी बहन !!, कृपया शांत हो जाइए और ध्यान से मेरी बात सुनिए।" रानी महामाया ने प्रजावती को शांत करते हुए कहा, "मेरे पास अधिक समय नहीं है।"

     "कहिए दीदी, कहिए! मैं आपकी हर आज्ञा का पालन करूँगी।"

     "प्रजा! आज्ञा नहीं, अनुरोध है!"

     "कहिए तो दीदी!"

     "राजकुमार सिद्धार्थ का अपने पुत्र के समान पालन-पोषण करना। मैं इसे तुम्हारे सुपुर्द कर रही हूँ।" यह कहते-कहते महामाया की आँखें मुँदने लगीं और गरदन एक ओर को लुढ़क गई।


हंस की प्राण रक्षा

   एक दिन राजकुमार सिद्धार्थ उपवन में विचारमग्न बैठे थे कि तभी क्रों-क्रों' करता हुआ एक हंस उनके पास आ गिरा। किसी निर्दयी शिकारी ने तीर चलाकर उसके प्राण लेने का प्रयास किया था। राजकुमार ने दयावश उसके पंखों में लगा तीर निकालकर घाव धोया और। उसे जल पिलाया। जल पीकर जैसे हंस के प्राण लौट आए।

       इतने में ही शिकारी दौड़ता हुआ वहाँ आ पहुँचा। वह सिद्धार्थ का चचेरा भाई देवदत्त था।

       "सिद्धार्थ!" देवदत्त आते ही बोला, "यह हंस मुझे दे दो, मैंने इसका शिकार किया है।"

       "नहीं देवदत्त!” सिद्धार्थ विनम्रता से बोले, "मैं यह हंस तुम्हें नहीं दे सकता। तुम इसे मार डालोगे।"

       "मैं इसे मारूँ या छोड़ दूँ।” देवदत्त बोला, "यह मेरा शिकार है।"

       "देवदत्त! मैंने इस हंस की प्राण-रक्षा की है, अतः यह मेरा है। मैं कदापि इसे तुम्हें नहीं दूँगा।"

        इसी बात पर दोनों में वाद-विवाद होने लगा, किंतु कोई भी सार्थक परिणाम न निकला।

        अतः विवाद राजदरबार में राजा शुद्धोधन के सामने पहुँचा। राजा ने गंभीरतापूर्वक दोनों की बातें सुनीं।

        "महाराज!" देवदत्त बोला, "मैंने हंस का शिकार किया है। मेरे तीर से घायल होकर हंस पृथ्वी पर गिर पड़ा था। अतः इस पर मेरा अधिकार है और यह मुझे ही मिलना चाहिए।"

         अब राजा शुद्धोधन ने सिद्धार्थ का पक्ष सुना।

         "महाराज!" सिद्धार्थ ने कहा, "यह हंस पृथ्वी पर मरणासन्न अवस्था में पड़ा हुआ था। यदि मैं इसके पंखों में से तीर निकालकर इसका उपचार न करता तो संभवतः यह तभी प्राण त्याग देता। मैंने इसकी प्राणरक्षा की है। अतः इस पर मेरा अधिकार है और यह मेरे पास ही रहना चाहिए।"

        राजा ने इस विवाद पर दरबारियों के विचार भी सुने। अंततः राजा ने निर्णय दिया, "देवदत्त! तुमने हंस के प्राणहरण की चेष्टा की, जबकि सिद्धार्थ ने प्राणरक्षा की। प्राणहरण की अपेक्षा प्राणरक्षा करने वाले का हंस पर अधिकार है। अतः यह हंस सिद्धार्थ का है।"

        दरबारियों ने मुक्त कंठ से राजा के निर्णय की सराहना की, जबकि अपने विपरीत निर्णय सुनकर देवदत्त सिद्धार्थ के प्रति क्रोध और ईर्ष्या, से सुलग उठा।