अंतर्मन - जुलाई 2022 के एक पृष्ठ, रिश्तों की खनक पर दिव्या बहन, मधु सेठी जी, आदरणीय पेरी सर और शकुंतला गौतम जी की समीक्षा प्राप्त हुई।
आप सभी ने विचार प्रकट किए... आप सभी को कृतज्ञ आभार।
यह एक सामाजिक विषय था और आप सभी ने सामाजिक संवेदनाओं की गहन परख के आधार पर समीक्षात्मक टिप्पणी प्रेषित की है। सब का नहीं पता पर आपके विचार मेरे लिए प्रेरक और सुगम जीवन मे सहायक सिद्ध होंगे।
अंतर्मन आपसे आज इस पृष्ठ पर रिश्तों की खनक के ही सन्दर्भ मे ही शकुंतला गौतम जी की समीक्षा को शामिल कर रहा हूँ, मेरे समझ से उनके विचार समाज को मार्गदर्शित करने मे सहायक सिद्ध होंगे।
Shakuntala gautam 18 July 2022
"रिश्तों की खनक", को प्रतिलिपि पर पढ़ें :,
https://pratilipi.page.link/b9FpZbKFMK9F2Fzx5
(कृपया लिंक के माध्यम से समीक्षा अवश्य पढ़े)
आज कल अधिकांश यही देखा गया है , स्वार्थ लिप्त सोच के कारण अपने संस्कारों को भूलते जा रहे हैं पर विचारणीय प्रस्तुति दी है आपने है।
गंभीर रूप ले रही इस समस्या मुझे लगता है यह समस्या पीढ़ी दर पीढ़ी धीरे धीरे पनपती है । बच्चों की परवरिश करते हुए माता पिता के मन में अक्सर उसे अधिक से अधिक पैसा कमाने योग्य और आधुनिक व्यवहार की ओर प्रेरित करने की मानसिकता बढ़ गई है ।
नैतिक शिक्षा और जिम्मेदारी की शिक्षा देने वाले विचारों की आवश्यकता आज ना माता पिता और ना ही शिक्षण संस्थानों को आवश्यक लगते हैं । ऐसे में नयी पीढ़ी में बीजारोपण के विपरीत फलने फूलने की संभावना बहुत मुश्किल है ।
एक पिता का स्वयं को गोली मार लेना भी अनियंत्रित और हताश व्यवहार ही है अच्छा तो यह होता कि वह अपनी संपत्ति और आगे के जीवन को समाज कल्याण में लगाकर बेटों के मोह और निर्भरता से मुक्त होकर आत्मविश्वास से जीवन जीने का लक्ष्य लेकर औरों के लिए आदर्श बन सकते थे।
शकुंतला जी आपके विचार उत्कृष्ट है।
अंतर्मन यह जो निम्नांकित है, यह उनकी समीक्षा पर मेरी प्रतिउत्तर टिप्पणी है -
उस पिता ने गोली क्यों मार ली, इसका एकमात्र कारण बड़े बेटे के द्वारा छोटे भाई से भेजा शब्द है - "तुम माता जी के मरने पर चले जाओ, जब पिता जी मरेंगे मैं चला जाऊँगा। "
हमारे यहां एक ग्रामीण कहावत है कि - " बातै हाथी पाइए, बातै हाथी पांव " अर्थात बात (शब्द, बोल) से ही हाथी (बड़ी सफलता, अथवा भारी मूल्य) प्राप्त हो जाता है, और कई बार यही बात मन पर हाथी पांव (भार, बोझ,चुभना ) बन जाता है।
आसान शब्दों मे शब्द तीर से भी तीक्ष्ण होते है।
यहां पिता को यही चुभा!
मुखाग्नि बड़ा बेटा देता है.. माँ बेटों की प्रतीक्षा करते हुए परलोक वासी हो गई, मृत शरीर सम्मुख रखा हो, और वो बेटा पिता के मरने पर आएगा, तो पिता ने सोचा मर ही जाऊँ.... तब तो आओगे।
माँ और पिता दोनों को मुखाग्नि देना है तो दो वर्ना हम तो चले ही गए।
संपति तो समाज कल्याण मे लगा ही दी।
माता पिता की अनमोल पूंजी उसकी सन्तान ही होती है... जब वो ही विकृत है तो बाकी संपति निरर्थक है।
कहते भी है "पूत सपूत तो का धन संचय, पूत कपूत तो का धन संचय "।
आपकी बात शत प्रतिशत सत्य है कि आज हम बच्चों मे धनार्जन और धन लौलुप्ता को बढा़वा देते है नैतिक मूल्यों और जिम्मेदारी का पाठ अब अंतिम सांसे ले रहा है। इनका बीजारोपण नितांत आवश्यक है।
आपका कथन - "स्वार्थलिप्त सोच के कारण अपने संस्कारों को भूलते जा रहें है "। अक्षरशः यही मूल सत्य है।
एक पिता संतानो के लिए बेहतर आदर्श होता है, किंतु वहीं उसके आदर्श खण्डित हो जाए तो भला वो कैसे आत्मविश्वास को दृढ़ कर सकता है।
पिता दिखते कठोर है, पर हृदय से नर्म ही होते है।
- संदीप सिंह (ईशू)